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Tuesday, August 10, 2010

बहाना


कविता में उतरे
यह एहसास
ज़िन्दगी की टूटी हुई
कांच की किरचें हैं
जिन्हें महसूस करके
मैं लफ्जों में ढाल देती हूँ
फ़िर सहजती हूँ
इन्ही दर्द के एहसासों को
सुबह अलसाई
ओस की बूंदों की तरह
अपनी बंद पलकों में
और अपने अस्तित्व को तलाशती हूँ
पर हर सुबह ...........
यह तलाश वही थम जाती है
सूरज की जगमगाती सी
एक उम्मीद की किरण
जब बिंदी सी ......
माथे पर चमक जाती है
एक आस ,जो खो गई है कहीं
वह रात आने तक
जीने का एक बहाना दे जाती है...

Monday, July 05, 2010

चंद लफ्ज़ कुछ यूँ ही


रेशमी सपने भी
आंसू के संग बह जाते हैं
वीरान आँखों में
जब यादो के
लम्हे मुस्कारते हैं
****************


खुद को बहलाने के
अब सब बहाने भी
नाकाम हो चले
जब से दिल ने जाना
कि हर साथ चलने वाला
हमसफर नहीं होता !!
*******************
हकीकत में
ख्वाब
एक फ़साना है
एक साया है दिल में
और उसका चेहरा
खुद बनाना है !!!

रंजना (रंजू ) भाटिया

Monday, May 24, 2010

यादों के पल


जीवन की रेल पेल में
हर संघर्ष को झेलते
हर सुख दुःख को सहते
कभी मैंने चाही नही इनसे मुक्ति
पर कभी बैठे बैठे यूं ही अचानक
जब भी याद आई तुम्हारी
तब यह मन आज भी
भीगने सा लगता है
चटकने लगते हैं तन मन में
जैसे मोंगारे के फूल
और जैसे
सर्दी से कांपते बदन में
तेरी याद का साया
गुनगुनी धूप सी भर देता है

छेड़ता नहीं है कोई सरगम को
फ़िर भी एक संगीत दिल में
गूंजने लगता है ..
उतर जाते हैं कई आवरण
उन यादो से .
जिन्हें दिल आज भी संजोये हुए हैं
नही पड़ने देता दिल
इन पर वक्त का साया
क्यों कि यही कुछ याद के पल
इस तपते जीवन को
एक ठंडी छाया देते हैं
जीवन के कड़वे यथार्थ को
कुछ तो समृद्ध बना देते हैं !!

रंजना (रंजू ) भाटिया

Wednesday, April 21, 2010

लफ्ज़ बिखरे हुए ...




१)सपने देखना
बंद पलकों में
क्यों कि उन में उड़ने के
कुछ पर होंगे
दुनिया देखना
तो आँख खोल के
यहाँ उन
सपनो के टूटे पर होंगे



२)रात के घने अंधेरे
कैसे सब फ़र्क
मिटा जाते हैं
अलग अलग वजूद
अलग राह के
मुसाफिर की परछाई को
एक कर जाते हैं
रोशन होते ही
हर उजाले में
यह छिटक कर
अलग हो जाते हैं



रंजना (रंजू ) भाटिया















Wednesday, April 14, 2010

प्यार -एक एहसास


कैसे लिखूं मैं तेरे लिए,
जबकि मैं जानती हूँ
कि तुझ तक पहुँचने के बाद
विचार शून्य हो जाते हैं
और कल्पनाएँ ........
वो तो न जाने
किस ताखे पर
बैठ जाती है
और देखो ...
मैं यूँ ही अलसाई हुई सी
उसी ताखे पर बैठी हुई
देखती रहती हूँ
बस देखती रहती हूँ
कैसे लिखूं मैं तेरे लिए
जबकि मैं जानती हूँ
कि प्यार तुझ तक आ कर
तुझे छूने के बाद
पूरी आत्मा को
कुछ इस क़दर
झंझोर देता है
कि सारे लफ्ज़
भरभरा कर
रेत किले की तरह
ढह जाते हैं ...और
फिर रह जाता है बस
प्यार ...
और उसकी तो कोई भाषा ही नहीं ....

Friday, March 26, 2010

दो रंग ...(कुछ यूँ ही )



अस्तित्व

अपना ही अस्तित्व
अजनबी सा
नजर आता है
मुझे
...
जब
गैरों को तू
मुझे
अपना कह कर
मिलाता है
.......




आईना

अपना ही चेहरा
बिना आवाज़ के
सामने तो दिख जाता है
पर ....
आईने
के पीछे की दुनिया
क्या है.........
यह कौन देख पाता है ?
दिखते अक्स में
धडकता दिल है
पीछे आईने की दीवार को
कौन कब समझ पाता है ....?


रंजना (रंजू ) भाटिया

Wednesday, October 21, 2009

कोई तो होता .....


कोई तो होता ......
दिल की बात समझने वाला
सुबह के आगोश से उभरा
सूरज सा दहकता
रात भर चाँद सा चमकने वाला

पनीली आखों में है
खवाब कई ...
कोई संजो लेता ..
इन में संवरने वाला
थरथराते लबों पर
ठहरा है लफ्जों का सावन
कोई तो होता ..
इनमें भीगने वाला

दिल की धडकनों में
कांपते हैं कितने ही एहसास
कोई तो होता ..
इन एहसासों को परखने वाला
इक नाम बसा है
अरमानों के खंडहर पर
कहाँ लौट के आता है
फ़िर जाने वाला ...!!!!

रंजू भाटिया

Tuesday, June 09, 2009

दिलो के फासले


यूँ ही जाने -अनजाने
महसूस होता है
रिश्तो की गर्मी
शीत की तरह
जम गई है ...
न जाने कहाँ गई
वह मिल बैठ कर
खाने की बातें
वह सोंधी सी
तेरी -मेरे ....
घर की सब्जी
रोटी की महक सी
मीठी मुस्कान ....

अब तो रिश्ते भी
शादी में सजे
बुफे सिस्टम से
सजे सजाये दिखते हैं
प्यार के दो मीठे बोल भी
जमी आइस क्रीम की तरह
धीरे से असर करते हैं
कहने वाले कहते हैं
कि घट रही धीरे धीरे
अब हर जगह की दूरी
पर क्या आपको नही लगता
कि दिलो के फासले अब
और महंगे .....
और बढ़ते जा रहे हैं??

Sunday, May 31, 2009

मृगतृष्णा



दो अलग रंग .....

१)
एक मृगतृष्णा
एक प्यास..
को जीया है
मैंने तेरे नाम से
दुआ न देना
अब मुझे..
लम्बी उम्र की
और ..........
न दुबारा...
जीने को कहना

२)
बंधने लगा
बाहों का बंधन..
मधुमास सा
हर लम्हा हुआ..
तन डोलने लगा
सावन के झूले सा..
मन फूलों का
आंगन हुआ..
जब से नाम आया
तेरा ,मेरे अधरों पर
अंग अंग चंदन वन हुआ |

रंजना (रंजू ) भाटिया

Monday, May 25, 2009

मौसम ..कुछ यूँ ही ..

मौसम आज कल कई रंग एक साथ दिखा रहा है ...कभी जलती गर्मी और कभी रिमझिम फुहार ..इसी रंग को इन्हीं छोटी क्षणिकाओं के रूप में कहने की एक कोशिश की है ..

१)
गुलमोहर के फूल
जैसे हाथ पर कोई
अंगार है जलता ...

२)
जेठिया आग से
झुलसे है बहार
अमलतास से मिटे
कुछ गर्मी की आस

३)
झूमे पत्ते
डाली डाली
झूम के बरसा मेघ
सावन की ऋतु आ ली

४)
कैसे मदमस्त
हो के छेड़े मल्हार
पत्तियों पर बुंदिया की
पड़े है जब मार.....

५ )
उमड़ी घटा
दीवाने बदरा
शोर मचाये
नाचा मन मोर भी
पर तुम न आये ..
बिखरी जुल्फों को
अब कौन सुलझाए ...

Tuesday, May 12, 2009

बेबसी ...


कहा उन्होंने चाँद तो ,
चांदनी बन मैं मुस्कराई
उनकी ज़िन्दगी में ....

कहा कभी उन्होंने सूरज तो
रोशनी सी उनकी ज़िन्दगी में
जगमगा कर छाई मैं ...

कभी कहा मुझे उन्होंने
अमृत की बहती धारा
तो बन के बरखा
जीवन को उनके भर आई मैं

पर जब मैंने माँगा
उनसे एक पल अपना
जिस में बुने ख़्वाबों को जी सकूँ मैं
तो जैसे सब कहीं थम के रुक गया ..
तब जाना....
मैंने कि ,
मेरे ईश्वर माने जाने वाले
ख़ुद कितने बेबस थे
जो जी नही सकते थे
कुछ पल सिर्फ़ अपने
अपनी ज़िन्दगी के लिए!!!

Tuesday, April 28, 2009

मिलन ....



कैसे बांधे...मन से मन की डोर
मैं एक दरिया की लहर ,चली मिलने सागर की ओर

दिल में बसे हैं जाने, कितने सपने सलोने
आंखो की लाली में दिखे ,प्यार की भोर
महके मेरा तन -मन जैसे केसर
जब दिल में जगे ,यादों का छोर

मैं एक दरिया की लहर ,चली मिलने सागर की ओर

खिले हुए हैं अरमानों के पंख सुहाने
मनवा बस खींचे तेरी ही ओर
कैसे पार लगाऊं अब यह रास्ता
कठिन बहुत है प्यार का हर मोड़
मैं एक दरिया की लहर , चली मिलने सागर की ओर ....

पीछे बीता सप्ताहांत ऋषिकेश ,गंगा नदी के साथ बीता ..चलती ठंडी हवा और बहती नदी की लहरें ......अदभुत लगता है बीतता हर लम्हा ...और दे जाता है दिल की बहती उथल पुथल में कई विचार ,कई सोच ओर कई नए लफ्ज़ ...उन्ही विचारों से एक विचार ,कुछ इस तरह से कागज पर बिखरे ...

रंजना
( रंजू ) भाटिया ,ऋषिकेश ..२६ अप्रैल २००९

Thursday, April 23, 2009

जीने की वजह


दुःख ...
आतंक ...
पीड़ा ...
और सब तरफ़
फैले हैं .............
न जाने कितने अवसाद ,
कितने तनाव ...
जिनसे मुक्ति पाना
सहज नही हैं
पर ,यूँ ही ऐसे में
जब कोई...
नन्हीं ज़िन्दगी
खोलती है अपने आखें
लबों पर मीठी सी मुस्कान लिए
तो लगता है कि
अभी भी एक है उम्मीद
जो कहीं टूटी नहीं है
एक आशा ...
जो बनती है ..
जीने की वजह
वह हमसे अभी रूठी नही है !!

रंजना ( रंजू) भाटिया
चित्र गूगल से

Monday, April 13, 2009

बहुत दिन हुए ...........



एक लम्हा दिल फिर से
उन गलियों में चाहता है घूमना
जहाँ धूल से अटे ....
बिन बात के खिलखिलाते हुए
कई बरस बिताये थे हमने ..
बहुत दिन हुए ...........
फिर से हंसी की बरसात का
बेमौसम वो सावन नहीं देखा ...

बनानी है एक कश्ती
कॉपी के पिछले पन्ने से,
और पुराने अखबार के टुकडों से..
जिन्हें बरसात के पानी में,
किसी का नाम लिख कर..
बहा दिया करते थे ...
बहुत दिन हुए .....
गलियों में छपाक करते हुए
दिल ने वो भीगना नहीं देखा .....

एक बार फिर से बनानी है..
टूटी हुई चूड़ियों की वो लड़ियाँ,
धूमती हुई वह गोल फिरकियाँ,
और रंगने हैं होंठ फिर..
रंगीन बर्फ के गोलों...
और गाल अपने..
गुलाबी बुढ़िया के बालों से,
जिनको देखते ही...
मन मचल मचल जाता था
बहुत दिन हुए ..
यूँ बचपने को .....
फिर से जी के नहीं देखा....

और एक बार मिलना है
उन कपड़ों की गुड़िया से..
जिनको ब्याह दिया था..
सामने वाली खिड़की के गुड्डे से
बहुत दिन हुए ..
किसी से यूँ मिल कर
दिल ने बतियाना नहीं देखा ..

बस ,एक ख़त लिखना है मुझे
उन बीते हुए लम्हों के नाम
उन्हें वापस लाने के लिए
बहुत दिन हुए ..
यूँ दिल ने
पुराने लम्हों को जी के नहीं देखा ....

रंजना (रंजू ) भाटिया
चित्र
गूगल से

Tuesday, April 07, 2009

गूंजता सन्नाटा


फैली है खामोशी
सब तरफ़ छाया है
एक गहरा सन्नाटा ....
हवा भी जैसे ...
भूल गयी है लहराना
कुदरत पर ठहरा हुआ
है वक्त का कोई साया ..

मेरे सब लफ्ज़
तेरे हर चित्र भी ,
आज जैसे ...
खामोश हो कर
गुम हो गये हैं
दिल के पुराने पन्नो में ..

टूट गयी है कलम
सूख गये हैं रंग
पर ...
दिल में
थरथराता
यह सन्नाटा
कह रहा है कि
कल यह ....
ज़रूर आग बन कर
काग़ज़ पर बहेगा .............

Friday, March 27, 2009

उम्र.....


उम्र.....
कुछ यूँ बही
जैसे नदी का
तेज बहाव

उम्र.....
न जाने
कहाँ हुआ गुम
तेरा -मेरा
मैं और तुम


उम्र.....
तन्हा रास्ता
तन्हा ही है
दुनिया का मेला
जाए हर कोई अकेला ॥

रंजना ( रंजू ) भाटिया

Tuesday, March 24, 2009

तुम ही तो हो ..


जीवन के हर पल में
बारिश की रिमझिम में ,
चहचहाते परिंदों के सुर में ,
सर्दी की गुनगुनी धूप में ,
हवाओं की मीठी गंध में
तुम ही तुम हो ....


दिल में बसी आकृति में
फूलों की सुगन्ध में ....
दीपक की टिम -टिम करती लौ में
मेरे इस फैले सपनो के आकाश में
बस तुम ही तुम हो .....

पर.....
नहीं दिखा पाती हूँ
तुम्हे वह रूप मैं तुम्हारा
जैसे संगम पर दिखती नहीं
सरस्वती की बहती धारा॥

सच तो यह है ....
ज़िंदगी की उलझनों में
मेरे दिल की हर तह में
बन के मंद बयार से
तुम यूं धीरे धीरे बहते हो
मिलते ही नजर से नजर
शब्दों के यह मौन स्वर
तुम ही तो हो जो ......
मेरी कविता में कहते हो !!

रंजना ( रंजू ) भाटिया

Monday, March 16, 2009

कहा -अनकहा




खिले पुष्प सी
गंध की तरह ..
शंख ध्वनि की
गूंज सी ..
पहुँच रही हूँ
मैं ...
तुम
तक
अपने ही...
कुछ कहते हुए
लफ्जों में
या.....
अन्तराल की
बहती खामोशी में ....!


******************


चलो
इसी पल
सिर्फ़ इसी क्षण

हम उतार दे
हर मुखौटे
और हर
बीते हुए
समय को

और
वर्तमान बन जाए
इसी पल
सिर्फ़ इसी पल .....



रंजना
(रंजू ) भाटिया (छोटी कविताएं)

Thursday, March 12, 2009

झूठा सच ....


चाहता है ..
कौन किसको कितना ..
कौन ,दिन -रात
बेकरार रहता है
बसती हैं आंखों में
छवि किसकी ..
और किसकी ...
एक हाँ सुनने को
यह दिल ...
हर लम्हा तडपता है

मन ही तो है..
जो है बावरा..
पा लेना चाहता है
सब कुछ ...

जैसे ही बंद करता है
एक "हाँ "मुट्ठी में..
वह बात ...
पलक झपकते ही
बन के हवा..
कहीं उड़ जाती है....
और दिल के आईने में
बनी एक आकृति
एक साया सा
बन के रह जाती है

तब ....
दिल नही चाहता मेरा
कि .....
मेरे लिखे लफ्जों में
कोई तुम्हे तलाश करे
साकार करे ...
उस झूठे सपने को
और उस "हाँ "को
कोई मेरे अतिरिक्त पढे !!

Wednesday, December 03, 2008

इबारत

बच्चों सा मन और बच्चों सी इबारत
लिखना सरल नहीं होता
कितनी आसानी से वह
लिखते हैं और .......
फ़िर उसको मिटा देते हैं

पर बड़े होने पर हम
सही ग़लत के गणित में उलझे
अपनी ही लिखी ....
इबारतों को नही मिटा पाते ..
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं ....

रंजना [रंजू ] भाटिया