Saturday, June 10, 2017

ज़िन्दगी की परिभाषा

पत्थर पत्थर है ..वो ग़लत हाथो में आ जाए तो किसी का जख्म बन जाता है ..किसी माइकल एंजलो के हाथ में आ जाए तो हुनर का शाहकार बन जाता है ..किसी का चिंतन उसको छू ले तो वह शिलालेख बन जाता है ..वो किसी गौतम को छू ले तो व्रजासन बन जाता है .और किसी की आत्मा उसके कण कण को सुन ले तो वह गारेहिरा बन जाता है ..
इसी तरह अक्षर अक्षर है ..
उस को किसी की नफरत छू ले तो वह एक गाली बन जाता है ..वो किसी आदि बिन्दु के कम्पन को छू ले तो कास्मिक धवनी बन जाता है..वो किसी की आत्मा को छू ले तो वेद की ऋचा बन जाता है ,गीता का श्लोक बन जाता है ,कुरान की आयत बन जाता है ,गुरु ग्रन्थ साहिब की गुरु वाणी बन जाता है ..
और इसी तरह मजहब एक बहुत बड़ी संभावना का नाम है | वह संभावना किसी के संग हो ले तो एक राह बन जाती है .कास्मिक चेतना की बहती हुई धारा तक पहुँचने की ...और हर मजहब की जो भी राहो रस्म है -वो एक तैयारी  है  जड़  में से चेतना को जगाने की ..चेतना की पहचान "मैं "के माध्यम से होती है और मजहब उस "मैं "को एक जमीन देता है ....खडे होने की ..वह उसको अपने नाम की पनाह देता है ...लेकिन यहाँ एक बहुत बड़ी संभावना होते होते रह जाती है .मजहब में कोई कमी नही आती है ,कमी आती है इंसान में .और मजहब लफ्ज़ की तशरीह करने वालों में ..जब बहती हो धारा को रोक लिया जाता है ,थाम लिया जाता है तो वो पानी एक जोर पकड़ता है .उस वक्त इंसान को एक ताकत का एहसास होता है .लेकिन यह ताकत चेतना की नहीं......अहंकार की होती है ..कुदरत पर भी फतह पाने की जिद बढ जाती है ..तब यह अहंकार  की ताकत नफरत .और कत्लो खून में बदल जाती है ..

दुनिया के इतिहास का हर मजहब के  नाम पर खून कत्लो आम हुआ है ..और हम इल्जाम देते हैं मजहब को ..इसलिए कि कोई इल्जाम हम अपने पर लेना नही चाहते हैं .हम जो मजहब को अपन अन्तर में उतार नही पाते हैं | मजहब को अन्तर की क्रान्ति है स्थूल से सूक्ष्म हो जाने की ..और हम इसको सिर्फ़ बाहर से पहनते हैं ..सिर्फ़ पहनते हो नहीं बलिक दूसरों को भी जबरदस्ती पहनाने की कोशिश करते हैं ...

हमारी दुनिया में वक्त -वक्त पर कुछ ऐसे लोग जन्म लेते हैं -जिन्हें हम देवता ,महात्मा ,गुरु और पीर पैगम्बर कहते हैं | वह उसी जागृत चेतना की सूरत होते है ,जो इंसान से खो चुकी है | और हमारे पीर पैगम्बर इस थके हुए ,हारे हुए इंसान की अंतर्चेतना को जगाने का यत्न करते हैं ..लेकिन उनके बाद उनके नाम से जब उनके यत्न  को संस्थाई रूप दे दिया जाता है .तो वक्त पा वह यात्रा बाहर की यात्रा हो जाती है वह हमारे अन्तर की यात्रा नही बन पाती है ..

आज हमारे देश के जो हालात है वह हमारे अपने होंठों से निकली हुई एक एक भयानक चीख हैं ..और हम जो टूटते चले गए थे .हमने इस चीख को भी टुकडों में बाँट लिया .हिंदू चीख ...सिख चीख .मुस्लिम चीख .कह कर इस चीख का नामाकरण हुआ .....इसी से जातीकरण हुआ और पंजाब .असाम .गुजरात कह कर इस चीख का प्रांतीय करण हुआ ..

पश्चिम में एक सांइस दान हुए हैं लेथ ब्रेज | उन्होंने पेंडुलम की मदद से .जमीनदोज शक्तियों की खोज की ,और अलग अलग शक्तियों की पहचान के दर नियत किए ...  उन्होंने पाया कि

१० इंच की दूरी से  जिन शक्तियों का संकेत मिलता है ,वह सूरज अगनी .लाल रंग सच्चाई और पूर्व दिशा है ..

२० इंच की दूरी से ..धरती .ज़िन्दगी गरिमा .सफ़ेद रंग और दक्षिण दिशा का संकेत मिलता है ..

३० इंच की दूरी से .आवाज़ .ध्वनि .चाँद .पानी हरा रंग और पश्चिम दिशा का संकेत मिलता है

और ४० इंच की दूरी से जिन शक्तियों का संकेत मिलता है .वह मौत की .नींद की .झूठ की ,काले रंग की और उत्तर दिशा की शक्तियां  है|
यही लेथ ब्रेज थे जिन्होंने उन पत्थरों का मुआइना किया जो कभी किसी प्राचीन ज़ंग में इस्तेमाल  हुए थे   और उन्होंने पाया की उन पत्थरों  पर नफरत और लड़ाई   झगडे के आसार इस कदर उन पर अंकित हो चुके थे कि  उनका  पेंडुलम ,वही दर नियत कर रहा था ----जो उसके मौत का किया था ..

हमारे प्रचीन इतिहास में एक नाम मीरदाद का आता है ..वक्त का यह सवाल तब भी बहुत बड़ा होगा कि ज़िन्दगी से थके हुए , हारे हुए कुछ  लोग मीरदाद के पास गए तो मीरदाद ने कहा --हम जिस हवा में साँस लेते हैं ,क्या आप उस हवा को अदालत में तलब कर सकते हैं ? हम लोग इतने उदास क्यूँ हैं ? इसकी गवाही तो उस हवा से लेनी होगी ,जिस हवा में हम साँस लेते हैं और जो हवा हमारे ख्यालों के जहर में भरी हुई है ..

लेथ ब्रेज ने आज साइंस की मदद से हमारे सामने रखा  है कि ..हमारे ही ख्यालों में भरी हुई नफरत ,हमारे ही हाथो हो रहा कत्लोआम  ,और हमारे ही होंठों से निकला हुआ जहर ,उस हवा में मिला हुआ है ,जिस हवा में हम साँस लेते हैं .और वही सब कुछ हमारे घर के आँगन में ,हमारी गलियों में ,और हमारे माहौल की दरो दिवार पर अंकित हो गया है ..
और आज हम महाचेतना के वारिस नहीं ,आज हम चीखों के वारिस है .आज हम जख्मों के वारिस हैं ..आज हम इस सड़कों पर बहते हुए खून के वारिस हैं .....

ज़िन्दगी की असली इबारत क्या थी ?
वह रेशम ख्यालों सी
खुशख़त होती थी
पर लहू की तपती हुई
और सपनों की स्याही से
गीली इबारत को
जिस सोख्ते ने सोख लिया था
वह सोख्ता मैं भी हूँ --आप भी .
धरती और समाज भी
मजहब और सियासत भी ..

यह सिरों पर लटकते हुए दिन
यह छाती में टूटती हुई रातें
और हर पीढी को
विरासत में मिलती हुई
जख्मों की बातें ,
और यह जो जवानियों के बंजर
और रेतीला सहरा है
और इनमें नित्य बहते हुए
लहू के दरिया है
यह ठंडी और उल्टी लकीरें हैं
और सोख्ते जो लकीरों से काले हैं
बस यही --
अब असली इबारत के हवाले हैं
वह असली  इबारत
तो कब की खो चुकी हैं ...

प्रस्तुती .रंजना ( रंजू ) भाटिया

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