Showing posts with label अमृता इमरोज़ .. Show all posts
Showing posts with label अमृता इमरोज़ .. Show all posts

Friday, June 10, 2022

उठो वारिस शाह कब्रों से ...

 बहुत पहले की एक घटना याद आती, जब मां थी, और जब कभी मां के साथ उनके गांव में जाना होता, स्टेशनों पर आवाज़ें आती थीं-हिंदू पानी, मुसलमान पानी, और मैं मां से पूछती थी-क्या पानी भी हिन्दू मुसलमान होता है ?-तो मां इतना ही कह पाती-यहां होता है, पता नहीं क्या क्या होता है...

फिर जब लाहौर में, रात को दूर -पास के घरों में आग की लपटें निकलती हुई दिखाई देने लगीं, और वह चीखें सुनाई देतीं जो दिन के समय लंबे कर्फ्यू में दब जाती थीं...पर अखबारों में से सुनाई देती थीं-तब लाहौर छोड़ना पड़ा था...

थोड़े दिन के लिए देहरादून में पनाह ली थी-जहां अखबारों की सुर्खियों से भी जाने कहां-कहां से उठी हुई चीखें सुनाई देतीं...रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली जाना हुआ-तो देखा-बेघर लोग वीरान से चेहरे लिए-उस ज़मीन की ओर देख रहे होते, जहां उन्हें पनाहगीर कहा जाने लगा था... अपने वतन में-बेवतन हुए लोग....

चलती हुई गाड़ी से भी बाहर के अंधेरे में मिट्टी के टीले इस तरह दिखाई देते-जैसे अंधेरे का विलाप हो ! उस समय वारिस शाह का कलाम मेरे सामने आया, जिसने हीर की लंबी दास्तान लिखी थी-जो लोग घर-घर में गाते थे। मैं वारिस शाह से ही मुखातिब हुई...

https://youtu.be/uIzPv4ng6cg


उठो वारिस शाह-

कहीं कब्र में से बोलो

और इश्क की कहानी का-

कोई नया वरक खोलो....


पंजाब की एक बेटी रोई थी

तूने लंबी दास्तान लिखी

आज जो लाखों बेटियां रोती हैं

तुम्हें-वारिस शाह से-कहती हैं...

सभी कैदों में नज़र आते हैं

हुस्न और इश्क को चुराने वाले

और वारिस कहां से लाएं

हीर की दास्तान गाने वाले...


तुम्हीं से कहती हूं-वारिस !

उठो ! कब्र में से बोलो

और इश्क की कहानी का

कोई नया वरक खोलो...

तब अजीब वक्त सामने आया-यह नज़्म जगह-जगह गाई जाने लगी। लोग रोते और गाते। पर साथ ही कुछ लोग थे, जो अखबारों में मेरे लिए गालियां बरसाने लगे, कि मैंने एक मुसलमान वारिस शाह से मुखातिब होकर यह सब क्यों लिखा ? सिक्ख तबके के लोग कहते कि गुरु नानक से मुखातिब होना चाहिए था। और कम्युनिस्ट लोग कहते कि गुरु नानक से नहीं-लेनिन से मुखातिब होना होना चाहिए था...

उन दिनों जनरल शाह नवाज़ अगवा हुई लड़कियों को तलाश रहे थे, उनके लोग, जगह-जगह से टूटी बिलखती लड़कियों को ला रहे थे-और पूरा-पूरा दिन-ये रिपोर्ट उन्हें मिलती रहतीं। मैंने कुछ एक बार उनके पास बैठ कर बहुत सी वारदातें सुनीं। ज़ाहिर है कि कई लड़कियां गर्भवती हालात में होती थीं...उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है-जिसके दिल की जवानी को ज़बर से मां बना दिया जाता है....एक नज़्म लिखी थी-मज़दूर ! उस बच्चे की ओर से-जिसके जन्म पर किसी भी आंख में उसके लिए ममता नहीं होती, रोती हुई मां और गुमशुदा बाप उसे विरासत में मिलते हैं...

यहां अमृता की इस फेमस नज़्म को सुनिए..

https://youtu.be/uIzPv4ng6cg




Wednesday, March 05, 2008

कलम ने आज गीतो का काफिया तोड़ दिया

अमृता और इमरोज़ की आपसी बात चीत उनका एक दूसरे में में कहना सुनना बहुत दिल को अच्छा लगता है

एक दिन अमृता इमरोज़ से कहने लगी की तुम्ही मेरे इकलौते दोस्त हो !"
इमरोज़ ने जवाब दिया की क्या तुम मुझे अपना विश्वासपात्र समझती हो?"

तुम्ही ने तो कहा था की मेरी मेरी किताब डॉ देव के डॉ देव हो !! हालांकि यह नावल मैंने तुमसे मिलने से पहले लिखा था लेकिन इतने दोगले लोगों की भीड़ में से मैंने तुम्हे ही क्यों चुना .क्या यह सबूत कम है ?""

अमृता ने फैज़ अहमद का एक शेर पढ़ा

किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रकम
गिला है जो भी किसी से, तेरे सबब से हैं !

ऐसा कहते हुए वह हा बुराई का जिम्मेवार इमरोज़ को ठहरा देतीं थी फ़िर चाहे वह अखबार की खबर क्यों न हो या किसी ड्राइवर ने किसी महिला से अभद्र व्यवहार क्यों न किया हो या फ़िर वह चीन की चालाकी हो या रूस की धोखे बाजी बस इमरोज़ पर बरस पड़ती थी .उधर इमरोज़ कहते की अमृता शुरू से ही आदर्शवादी थी गुस्से में या चिढ कर वह कुछ भी कह दे 'लेकिन लोगों के अविश्श्नीय व्यवहार के बावजूद अमृता का इंसान की अच्छाई से विश्वास कभी नही उठा !"

ऊपर से चाहे वह जितनी आग बबूला हो जाए पर भीतर से वह बेहद शांत और शीतल थी !अपने जीवन के इतने कड़वे अनुभवों के बाद भी वह इंसानियत पर फ़िर से यकीन जमा लेती थी आमतौर पर वह ऐसे मौकों पर एक दो शोक गीत लिख कर शांत हो जाती थी इमरोज़ बताते हैं हैं समकालीन साहित्यकारों के प्रति अमृता के दिल में बहुत प्यार था यदि उन्हें किसी दूसरे का लिखा कविता या शेर पसंद आ जाए तो दिन भर उसको गुनगुनाती रहती थी और दूसरों को भी सुनाती ऐसा करते हुए वह ख़ुद सूरज सी चमकती जबकि उनके समकालीन उनके प्रति बहुत सख्त और सकीर्ण सोच के थे !

इमरोज़ के अनुसार अमृता कभी किसी पर आर्थिक निर्भर होना पसन्द नही करती थी लाहौर में जब अमृता रेडियो स्टेशन पर काम करने जाती तो एक दिन घर के एक बुजर्ग ने पूछा उन्हें काम पर कितने पैसे मिलते हैं ?

अमृता ने जवाब दिया १० रुपए !"

तो बुजर्ग बोले की तुम मुझसे २० रुपए ले लो पर यह रेडियो पर काम करना छोड़ दो ! अमृता नही मानी क्यूंकि पैसे से जायदा उन्हें अपनी आजादी पसंद थी अपना आत्मनिर्भर होना पसन्द था !

एक बात पर इमरोज़ और अमृता दोनों एक दम से सहमत थे वह मानते हैं की धर्म और माँ बाप दोनों ही बच्चो को दबा कर डराकर अपने अधिकार में रखना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं की डरा हुआ बच्चा डरा हुआ समाज बनाता है और ऐसे समाज में सम्बन्ध स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित नही होते अच्छा सम्बन्ध तभी बनता है जब वह सहज और सामान्य और स्वभाविक हो !!



कलम ने आज गीतो का काफिया तोड़ दिया
मेरा इश्कुए यह आज किस मुकाम पर आ गया है

देख नज़र वाले , तेरे सामने बैठी हूँ ,
मेरे हाथ से हिज़रे का काँटा निकल दे

जिसने अंधेरे के अलावा कभी कुछ नही बुना,
वह मोहब्बत आज किरने बुनकर दे गयी .....

उठो!!!!!अपने घरे से पानी का एक कोटरा दो,
राह के हादसे में इस पानी से धो लूँगी.............

अमृता प्रीतम

उमा त्रिलोक की पुस्तक पर आधारित

Monday, February 25, 2008

सच तू -सुपना भी तू अमृता इमरोज़ .

गतांक से आगे ....

एक बार इमरोज़ ने बताया कि जब वह लाहौल के आर्ट स्कूल में पढ़ते थे तो गर्मी की छुट्टियों में गांव चला जाता था ,वहाँ गाय भैंस चराने ले जाता और वह चरती रहती मैं आराम से एक और बैठा स्केच बनाता रहता ..

तब अमृता ने हंस कर पूछा कि क्या तुम रांझे की तरह बंजाली बजाते रहते थे और गाय भैंस आपे चरती रहती थी !"

इमरोज़ भी हंस पड़े और बोले हां... लेकिन वहाँ कोई हीर नही थी जो मुझे चूरी खिलाती !"

लेकिन क्या आर्ट स्कूल में तुम्हे कोई लड़की पसंद नही थी ? अमृता ने पूछा ..

कुछ लडकियां हाबी की तरह पेंटिंग्स सीखने आती थी लेकिन कभी कभी ..और उन में से मुझे एक लड़की पसंद थी उसका नाम मंजीत था ..उस को मैं कभी कभी दूर से देख लेता लेकिन पास कभी नही गया ..फ़िर कुछ सोच में डूब कर बोले ..मुझे पता चल गया था कि वह एक अमीर बाप की बेटी है इस लिए मेरा उस से बात करने का सवाल ही नही पैदा होता था मैं बस उसको दूर से देख लेता लेकिन उसके नाम का पहले अक्षर को मैंने अपने नाम के आगे लगा लिया था अब मैं एम् -इंदरजीत था !""

कितनी बदकिस्मत लड़की थी ! के उसको पता नही था की कोई फरिश्ता उसकी तरफ़ देख रहा था .अमृता ने पूछा !

अब उसके पास तुम्हारे जैसी नजर जो नही थी !" इमरोज़ ने हंस कर कहा

एम् -इंदरजीत कब इमरोज़ बना इसकी एक लम्बी कहानी है .उन्होंने बताया की स्कूल में तीन इंदरजीत थे ,,,टीचर इंदर जीत एक इंदर जीत दो और इंदर जीत तीन कह कर रोल काल लेती .हम तीनो को भी मुश्किल और टीचर को भी मुश्किल !!

मैं सोचता कि मेरा नाम इंदरजीत क्यों हैं ? शायद तब मेरे माँ बाप को और नाम सुझा नही होगा !!!

इमरोज़ एक फारसी का शब्द है जिसका अर्थ है आज ..यह नाम इमरोज़ को इसलिए भी पसंद था क्यूंकि इस के नाम के साथ कोई एतहासिक या कोई पुराणिक नाम नही जुडा था और यह किसी अन्य घटना से भी जुडा नही था सीधा साधा अर्थ था इसका आज ......अब

इमरोज़ वैसे भी आज में विश्वास रखते हैं वे आज में जीते हैं और आज के लिए जीते हैं
१९६६ में वह इंदरजीत से इमरोज़ हो गए !
वह जिस चीज को छुते हैं वह एक कलाकृति बन जाती है वहाँ एक लेम्प शेड देखा जिनके ऊपर उन्होंने कई शायर के कलाम लिखे .फैज़ ,फिराख, अमृता .शिव बटालवीऔर ऐसे ही कई दूसरे शायरों के..और इन में लाल रंग भर दिया है जब वह लैंप जलता है तो लाल रंग कमरे की खिड़की से दरवाज़े पर बिखर जाता है सारा कमरा तब लाल दिखायी देने लगता है ...कभी कभी अमृता उनसे पूछती कि इमरोज़ तुम मुझे कैसे मिल गए ..तब इमरोज़ शांत और छोटा सा जवाब देते जैसे तुम मुझे मिल गई !""

एक जगह अमृता जी द्वारा बताया हुआ लिखा है कि ..पहले कोई इमरोज़ से मिलना चाहता था तो मुझे फ़ोन करता था .पूछता यह अमृता जी का घर है ..मेरे हाँ कहने पर वह फ़िर पूछता कि क्या इमरोज़ जी घर पर हैं ..मैं हाँ कह कर इमरोज़ को छू के कहती ..देखा आज कल लोग तुम्हे मेरे पते पर तलाश कर लेते हैं !!

वाह सजन
सच तू -सुपना भी तू
गैर तू -अपन भी तू
वाह सजन ..वाह सजन

खुदा का इक अंदाज तू
औ फज्र की नमाज़ तू
जग का इनकार तू
औ अजल का इकरार तू
वाह सजन ..वाह सजन !

फानी हुस्न का नाज़ तू
रूह की इक आवाज़ तू
जोग की इक राह भी तू
इश्क की दरगाह भी तू
वाह सजन ..वाह सजन !

आशिक की इक सदा भी तू
अल्लाह की इक रज़ा भी तू
यह सारी कायनात तू
खुदा की मुलाकात तू
वाह सजन ...वाह सजन !!

अमृता प्रीतम .
.शेष अगले अंक में



Tuesday, February 19, 2008

अगर वह न होतीअमृता इमरोज़ भाग 6

इमरोज़ अमृता को कई नामों से बुलाते थे उस में एक नाम था "बरकते "बरकते यानी बरकत वाली अच्छी किस्मत वाली सम्पन्न भरपूर.... वह कहते हैं कि बरकत तो उसके हाथ में थी, उसके लेखन में थी ....उसके होने में थी ,उसके पूरे वजूद में थी ....

अमृता तो हीर है
और फकीर भी
तख्त हजारे उसका धर्म है
और प्यार
उसकी ज़िंदगी
जाति से वह भिक्षु है
और मिजाज़ से
एक अमीर
वह एक हाथ से कमाती है
तो
दूसरे हाथ से बांटती है

इमरोज़ और अमृता के मिजाज़ और पसन्द मिलती जुलती भी थी और अलग भी थी ! वह दोनों अलग कमरे में रहते थे .अमृता बहुत सवेरे काम करती थी जब इमरोज़ सोये हुए होते थे और इमरोज़ उस वक्त काम करते थे जब अमृता सोयी होती थी .दोनों के जीवन कर्म अलग अलग थे लेकिन स्वभाव एक से थे !न वह पार्टी में जाते थे न घर में इस प्रकार का कोई आयोजन होता था दोनों अपने साथ ही वक्त गुजारना पसंद करते थे, अलग अलग अकेले अपने साथ अमृता अपने लेखन में ,इमरोज़ अपनी पेंटिंग्स में ....दोनों के कमरे के दरवाज़े खुले रहते ताकि एक दूसरे की खुशबु आती रहे लेकिन एक दूसरे के काम में कोई दखल अंदाजी नही ....जब अमृता लिख रही होती तो इमरोज़ चुपचाप उसके कमरे में जा के उनकी मेज पर चाय का कप रख आते !पर जब अमृता के बच्चे कुछ मांगते तो अपना लिखना बीच में छोड़ के वह उनका कहा पूरा करती !


अमृता कवितायें बनाती नही थी वह केवल अपने जज्बात से कविता कागज पर उतार देती एक बार लिखने के बाद न तो उन्हें काटती न कुछ उस में बदलती थी जो जहन में आता वह उसको वैसा ही लिख देती !!
एक बार की बात इमरोज़ जी ने मुझे बताई की वह किसी काम से मुम्बई गए थे ....ख़त आदि का सिलसिला उनके और अमृता के बीच में चलता रहा ..ऐसे ही एक ख़त में अमृता ने उन्हें लिखा
जीती !!

तुम जितनी सब्जी दे के गए थे ,वह ख़त्म हो गई है !जितने फल लेकर दे गए थे वह भी ख़त्म हो गए हैं फिरज खाली पड़ा है ..मेरी ज़िंदगी भी खाली होती हुई सी लग रही है - तुम जितनी साँसे छोड़ गए थे ,वह खत्म हो रहीं है ....

दस्तावेज ;अमृता प्रीतम के ख़त ]

इमरोज़ अमृता से कई साल छोटे थे पर कभी उम्र उनके प्यार में नही आई ,दोनों अलग शख्सियत थे पर एक दूजे को दिल से चाहा !! क्या इस लिए कहते हैं कि विपरीत परस्पर एक दुसरे को आकर्षित करते हैं ? क्या प्यार इन्ही दो उलट लोगो के बीच की कशिश होती है !!

वह

हर कोई कह रहा है
कि वह नही रही
मैं कहता हूँ
वह है
कोई सबूत?
मैं हूँ
अगर वह न होती
तो मैं भी न होता ....

इमरोज़

Wednesday, February 13, 2008

फूल मुरझा गया पर अमृता भाग ५

जब मैं अमृता के घर गई थी तो वहाँ की हवा में जो खुशबू थी वह महक प्यार की एक एक चीज में दिखती थी इमरोज़ की खूबसूरत पेंटिंग्स ,और उस पर लिखी अमृता की कविता की पंक्तियाँ ..देख के ही लगता है जैसे सारा माहोल वहाँ का प्यार के पावन एहसास में डूबा है ..और दिल ख़ुद बा ख़ुद जैसे रूमानी सा हो उठता है ...इमरोज़ ने साहिर के नाम को भी बहुत खूबसूरती से केलीगार्फी में ढाल कर अपने कमरे की दिवार पर सजा रखा है ..उमा जी ने अपनी किताब में लिखा है की ..जब एक बार उन्होंने इमरोज़ से इसके बारे में पूछा तो इमरोज़ जी ने कहा कि जब अमृता कागज़ पर नही लिख रही होती थी तो भी उसके दाए हाथ कीपहली उंगली कुछ लिख रही होती थी कोई शब्द कोई नाम कुछ भी चाहे किसी का भी हो भले ही अपना ही नाम क्यों न हो वह चाँद की परछाई में में भी शब्द ढूँढ़ लेती थी बचपन से उनकी उंगली उन चाँद की परछाई में भी कोई न कोई लफ्ज़ तलाश कर लेती थी ..इमरोज़ बताते हैं की हमारी जान पहचान के सालों में वह उस को स्कूटर में बिठा कर रेडियो स्टेशन ले जाया करते थे ,तब अमृता पीछे बैठी मेरी पीठ पर उंगली से साहिर का नाम लिखती रही थी ,मुझे तभी पता चला था की वह साहिर से कितना प्यार करती थी ..और जिसे अमृता इतना प्यार करती थी उसकी हमारे घर में हमारे दिल में एक ख़ास जगह है इस लिए साहिर का नाम यूं दिख रहा है ..साहिर के साथ अमृता का रिश्ता खमोश रिश्ता था मन के स्तर का ,उनके बीच शारीरिक कुछ नही था जो दोनों को बाँध सकता वह अमृता के लिए एक ऐसा इंसान था जिस के होने के एहसास भर से अमृता को खुसी और जज्बाती सकून मिलता रहा !!

चोदाहा साल तक अमृता उसकी साए में जीती रही . दोनों के बीच एक मूक संवाद था ,वह आता अमृता को अपनी नज्म पकड़ा के चला जाता कई बार अमृता की गली में पान की दूकान तक आता पान खाता और अमृता की खिड़की की तरफ़ देख के चला जाता और अमृता के लिए वह एक हमेशा चमकने वाला सितारा लेकिन पहुँच से बहुत दूर ..अमृता ने ख़ुद भी कई जगह कहा है की साहिर घर आता कुर्सी पर बैठता ,एक के बाद एक सिगरेट पीता और बचे टुकड़े एशट्रे में डाल कर चला जाता .उसके जाने के बाद वह एक एक टुकडा उठाती और उसको पीने लगती ऐसा करते करते उन्हें सिगरेट की आदत लग गई थी !!


अमृता प्यार के एक ऐसे पहलु में यकीन रखती थी जिस में प्रेमी एक दूजे में लीन होने की बात नही करते वह कहती थी की कोई किसी में लीन नही होता है दोनों ही अलग अलग इंसान है एक दूजे से अलग रह कर ही वह एक दूजे को पहचान सकेंगे अगर लीन हो जाए तो फ़िर प्यार कैसे करोगे ?

इमरोज़ जी के लफ्जों में अमृता के लिए कुछ शब्द ..

कैसी है इसकी खुशबु
फूल मुरझा गया ,
पर महक नही मुरझाई
कल होंठो से आई थी
आज आंसुओं से आई है
का यादो से आएगी
सारी धरती हुई वैरागी
कैसी है ये महक जो इसकी
फूल मुरझा गया पर महक नही मुरझाई !!
--

Tuesday, February 05, 2008

मैं तुझे फ़िर मिलूंगी ...अमृता प्रीतम ...भाग 4

बहुत हैरानी होती है मुझे जब हिन्दी साहित्य को पढने वाले यह कहते हैं कि वह अमृता के बारे में नही जानते .इमरोज़ कौन है? नही पहचानते ...? और कुछ मेरे जैसे अमृता को पढने वाले मुझे अमृता की दीवानी कहते हैं .दिल को छू जाता है उनका यह कहना ..खैर इस बारे में क्या कह सकते हैं . .सबकी अपनी पसंद हैं और अपने पसंद का ही पढ़ते हैं .:) हम अमृता के पढने वाले चलिए आज उनकी ज़िंदगी का एक पन्ना और पढ़ते हैं ...

अमृता के लिए इमरोज़ ने लिखा है ..

ओ कविता ज्युंदी है
ते ज़िंदगी लिखदी है
ते नदी वांग चुपचाप वसदी
सारे पासियां नूं जरखेजी वंडदी
जा रही है सागर वल
सागर होण

[हिन्दी में ]

वह कविता जीती
और ज़िंदगी लिखती
और नदी सी चुपचाप बहती
जारखेजी बाँटती
जा रही है सागर की ओर
सागर बनने !!


अमृता जी अपने आखरी दिनों में बहुत बीमार थी ,जब इमरोज़ जी से पूछा जाता की आपको जुदाई की हुक नही उठती ? वह आपकी ज़िंदगी है ,आप उनके बिना क्या करोगे ? वह मुस्करा के बोले जुदाई की हुक ? कौन सी जुदाई? कहाँ जायेगी अमृता ? इसे यहीं रहना है मेरे पास ,मेरे इर्द गिर्द ..हमेशा !!हम चालीस साल से एक साथ हैं हमे कौन जुदा कर सकता है ? मौत भी नही !मेरे पास पिछले चालीस सालों की यादे हैं .शायद पिछले जन्म की भी ,जो मुझे याद नहीं ,इसे मुझ से कौन छीन सकता है ...

और यह बात सिर्फ़ किताबों पढी नही है जब मैं इमरोज़ जी से मिलने उनके घर गई थी तब भी यह बात शिद्दत से महसूस की थी कि वह अमृता से कहीं जुदा नही है ...वह आज भी उनके साथ हर पल है ..उस घर में वैसे ही रची बसी ..उनके साथ बतयाती और कविता लिखती ...क्यूंकि इमरोज़ जी के लफ्जों में मुझसे बात करते हुए एक बार भी अमृता थी नही आया .अमृता है यहीं अभी भी आया ...एक बार उनसे किसी ने पूछा की मर्द और औरत् के बीच का रिश्ता इतना उलझा हुआ क्यों है ? तब उन्होंने जवाब दिया क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही !"" इमरोज़ पंजाब के गांव में पले बढे थे वह कहते हैं कि प्यार महबूबा की जमीन में जड़ पकड़ने का नाम है और वहीं फलने फूलने का नाम है !""जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारा अहम् मर जाता है ,फ़िर वह हमारे और हमारे प्यार के बीच में नही आ सकता ...उन्होंने कहा कि जिस दिन से मैं अमृता से मिला हूँ हूँ मेरे भीतर का गुस्सा एक दम से शान्त हो गया है मैं नही जानता यह कैसे हुआ .शायद प्यार कि प्रबल भावना इतनी होती है कि वह हमे भीतर तक इतना भर देती है कि हम गुस्सा नफरत आदि सब भूल जाते हैं .हम तब किसी के साथ बुरा व्यवहार नही कर पाते क्यूंकि बुराई ख़ुद हमारे अन्दर बचती ही नही ...


महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता ,और न ही भगवान श्री कृष्ण के आगे सिर झुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता ! केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं ! हमे अपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरत .शैतानियत कहाँ रह जाती है ?""

यह था प्यार को जीने वाले का एक और अंदाज़ ...जो ख़ुद में लाजवाब है ..

अमृता के लफ्जों में कहे तो

मैं तुझे फ़िर मिलूंगी
कहाँ. किस तरह ,पता नही
शायद तेरे ख्यालों कि चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरुंगी

या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
या फ़िर सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगों में घुलुंगी
या रंगों की बाहों में बैठकर
तेरे केनवास को वलुंगी
पता नही ,कहाँ किस तरह
पर तुझे जरुर मिलूंगी !!


उमा त्रिलोक की लिखी किताब पर आधारित जानकारी !!



Friday, February 01, 2008

बात कुफ्र की ..अमृता प्रीतम और इमरोज़ भाग ३

अमृता प्रीतम और इमरोज़ भाग ३

-अमृता प्रीतम और इमरोज़ ...इनके बारे में जानना और लिखना सच में एक अदभुत एक सकून सा देता है दिल को ..एक लेखिका के रूप में अमृता जी को बहुत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा ,उनका बहुत विरोध भी हुआ ,उनके स्पष्ट ,सरल और निष्कपट लेखन के कारण और उनके रहने सहने के ढंग के कारण भी ..लेकिन उन्होंने कभी भी अपने विरोधियों और निन्दकों की परवाह नही की !उन्होंने अपने पति से अलग होने से पहले उन्हें सच्चाई का सामना करने और यह मान लेने के लिए प्रेरित किया की समाज का तिरिस्कार और निंदा की परवाह किए बिना उन्हें अलग अलग चले जाना चाहिए ,उनका मानना था की सच्चाई का सामना करने के लिए इंसान को सहास और मानसिक बल की जरुरत होती है

एक बार एक हिन्दी लेखक ने अमृता जी से पूछा था की अगर तुम्हारी किताबों की सभी नायिकाएं सच्चाई की खोज में निकल पड़ी तो क्या सामजिक अनर्थ न हो जायेगा ?

अमृता जी ने बहुत शांत भाव से जवाब दिया था कि यदि झूठे सामजिक मूल्यों के कारण कुछ घर टूटते हैं तो सच्चाई की वेदी पर कुछ घरों का बलिदान भी हो जाने देना चाहिए !!

अमृता और इमरोज़ दोनों मानते थे कि उन्हें कभी समाज की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी !आम लोगो की नज़र में उन्होंने धर्म विरोधी काम ही नही किया था बलिक उससे भी बड़ा अपराध किया था ,एक शादीशुदा औरत् होते हुए भी सामजिक स्वीकृति के बिना वह किसी अन्य मर्द के साथ रहीं जिस से वह प्यार करती थी और जो उनसे प्यार करता था !

एक दिन अमृता ने इमरोज़ से कहा था कि इमरोज़ तुम अभी जवान हो .तुम कहीं जा कर बस जाओ .तुम अपने रास्ते जाओ ,मेरा क्या पता मैं कितने दिन रहूँ या न रहूँ !"

तुम्हारे बिना जीना मरने के बराबर है और मैं मरना नही चाहता " इमरोज़ ने जवाब दिया था !

एक दिन फ़िर किसी उदास घड़ी में उन्होंने इमरोज़ से कहा था कि तुम पहले दुनिया क्यों नही देख आते ? और अगर तुम लौटो और मेरे साथ जीना चाहा तो फ़िर में वही करुँगी जो तुम चाहोगे !"
इमरोज़ उठे और उन्होंने उनके कमरे के तीन चक्कर लगा कर कहा "लो मैं दुनिया देख आया ! अब क्या कहती हो ?"

अब ऐसे दीवाने प्यार को क्या कहे ?

अमृता जी के लफ्जों में कहे तो ..

आज मैंने एक दुनिया बेची
एक दीन विहाज ले आई
बात कुफ्र की थी
सपने का एक थान उठाया
गज कपडा बस फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली ...

शेष अगले अंक में ....

अमृता जी पर लिखी एक किताब पर आधारित है यह जानकारी !!

Tuesday, January 29, 2008

अमृता की ज़िंदगी के कुछ पन्ने ..भाग २

अमृता की ज़िंदगी के कुछ पन्ने ..भाग २

अमृता जी के बारे में जितना लिखा जाए मेरे ख्याल से उतना कम है , जैसा की मैंने अपने पहले लेख में लिखा था की मैंने इनके लिखे को जितनी बार पढ़ा है उतनी बार ही उसको नए अंदाज़ और नए तेवर में पाया है .उनके बारे में जहाँ भी लिखा गया मैंने वह तलाश करके पढ़ा है ...उनकी ज़िंदगी की कुछ और बातें उन पर ही लिखी के किताब से ..एक बार किसी ने इमरोज़ से पूछा की आप जानते थे की अमृता जी साहिर से दिली लगाव रखती हैं और फ़िर साजिद पर भी स्नेह रखती है आपको यह कैसा लगता है ?
इस पर इमरोज़ जोर से हँसे और बोले की एक बार अमृता ने मुझसे कहा था की अगर वह साहिर को पा लेतीं तो मैं उसको नही मिलता .तो मैंने उसको जवाब दिया था की तुम तो मुझे जरुर मिलती चाहे मुझे तुम्हे साहिर के घर से निकाल के लाना पड़ता "" जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते कि मुश्किल को नही गिनते मुझे मालूम था कि अमृता साहिर को कितना चाहती थी लेकिन मुझे यह भी बखूबी मालूम था कि मैं अमृता को कितना चाहता था !""

साहिर के साथ अमृता का रिश्ता मिथ्या व मायावी था जबकि मेरे साथ उसका रिश्ता सच्चा और हकीकी.वह अमृता को बेचैन छोड़ गया और मेरे साथ संतुष्ट रही .

उन्होंने एक किस्से का बयान किया है कि जब गुरुदत्त ने मुझे नौकरी के लिए मुम्बई बुलाया तो मैं अमृता को बताने आया ! अमृता कुछ देर तक तो खामोश रही फ़िर उसने मुझे एक कहानी सुनाई .यह कहानी दो दोस्तों की थी इसमें से एक बहुत खूबसूरत था दूसरा कुछ ख़ास नही था .एक बहुत खूबसूरत लड़की खूबसूरत दोस्त की तरफ़ आकर्षित हो जाती है वह लड़का अपने दोस्त की मदद से उस लड़की का दिल जीतने की कोशिश करता है उस लड़के का दोस्त भी उस लड़की को बहुत प्यार करता है पर अपनी सूरत कि वजह से कभी उसक कुछ कह नही पाता है आखिरकार उस खूबसूरत लड़की और उस खूबसूरत लड़के की शादी हो जाती है इतने में ज़ंग छिड जाती है और दोनों दोस्त लड़ाई के मैदान में भेज दिए जातें हैं

लड़की का पति उसको नियमित रूप से ख़त लिखता है लेकिन वह सारे ख़त अपने दोस्त से लिखवाता है कुछ दिन बाद लड़ाई के मैदान में उसकी मौत हो जाती है और उसके दोस्त को ज़ख्मी हालत में वापस लाया जाता है लड़की अपने पति के दोस्त से मिलने जाती है और अपने पति के ख़त उसको दिखाती है दोनों खतों को पढने लगते हैं तभी बिजली चली जाती है पर उसके पति का दोस्त उन खतों को अंधेरे में भी पढता रहता है क्यूंकि वो लिखे तो उसी ने थे और उसको जबानी याद थे ,लड़की सब समझ जाती है ,पर उस दोस्त कीतबीयत भी बिगड़ जाती है और वह भी दम तोड़ देता है ..लड़की कहती है की मैंने एक आदमी से प्यार किया लेकिन उसको दो बार खो दिया !

एक गहरी साँस ले कर इमरोज़ ने यही कहा कि अमृता ने सोचा था कि मुझे कहानी का मर्म समझ मैं नही आया पर मैं समझ गया था कि वह कहना चाहती थी कि पहले साहिर मुझे छोड़ के चला गया अब तुम मुझे छोड़ के जा रहे हो और जो चले जाते हैं वह आसानी से वापस कहाँ आते हैं ..जब इमरोज़ मुम्बई पहुंचे तो तीसरे दिन ही अमृता को कहत लिख दिया कि मैं वापस आ रहा हूँ उन्होंने कहा कि मैं जानता था कि अगर में वापस नही लौटा तो हमेशा के लिए अमृता को खो दूंगा
इमरोज़ ने बताया कि अमृता ने कभी भी अपने प्यार का खुले शब्दों में इजहार नही किया और न मैंने उसको कभी कहा अमृता जी ने अपनी एक कविता में लिखा था कि .

आज पवन मेरे शहर की बह रही
दिल की हर चिनगारी सुलगा रही है
तेरा शहर शायद छू के आई है
होंठो के हर साँस पर बेचैनी छाई है
मोहब्बत जिस राह से गुजर कर आई है
उसी राह से शायद यह भी आई है

इमरोज़ जी अपने घर की छत पर खड़े उस गाड़ी का इंतज़ार करते रहते थे जिस में अमृता रेडियो स्टेशन से लौटती थीं .गाड़ी के गुजर जाने के बाद भी वह वहीं खड़े रहते और अवाक शून्य में देखते रहते वे यहाँ इंतज़ार करते और वह वहाँ कविता में कुछ लिखती रहती

जिंद तो हमारी
कोयल सुनाती
जबान पर हमारे
वर्जित छाला
और दर्दों का रिश्ता हमारा


अमृता जी की जीवनी पर आधारित एक किताब से यह प्रसंग लिया गया है जिसकी लेखिका हैं उमा त्रिलोक जी ..बाकी अगले अंक में ..अभी अमृता जी की लिखी एक रचना के साथ यही पर विराम लेती हूँ

यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वोही सिगरेट है
जो तूने कभी सुलगाई थी

चिंगारी तूने दे थी
यह दिल सदा जलता रहा
वक़्त कलम पकड़ कर
कोई हिसाब लिखता रहा

चौदह मिनिट हुए हैं
इसका ख़ाता देखो
चौदह साल ही हैं
इस कलम से पूछो

मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा

उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में
कुछ हवा में मिल गयी,

देखो यह आखरी टुकड़ा है
उन्गलियों में से छोड़ दो
कही मेरे इश्कुए की आँच
तुम्हारी उंगली ना छू ले

ज़िंदगी का अब गम नही
इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ
अब और सिगरेट जला ले !!

Monday, January 21, 2008

अमृता प्रीतम जो नाम है ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का


पिछले कुछ दिनों से मैं अमृता जी की लिखी हुई कई नज्म और कहानी लेख पढ़ रही थी ..यूं तो इनको मैं अपना गुरु मानती हूँ .पर हर बार इनके लिखे को पढ़ना एक नया अनुभव दे जाता है ..और एक नई सोच ..वह एक ऐसी शख्सियत थी जिन्होंने ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जी ..एक किताब में उनके बारे में लिखा है की हीर के समय से या उस से पहले भी वेदों उपनिषदों के समय से गार्गी से लेकर अब तक कई औरतों ने अपनी मरजी से जीने और ढंग से जीने की जरुरत तो की पर कभी उनकी जरुरत को परवान नही चढ़ने दिया गया और अंत दुखदायी ही हुआ ! आज की औरत का सपना जो अपने ढंग से जीने का है वह उसको अमृता इमरोज़ के सपने सा देखती है ..ऐसा नही है की अमृता अपनी परम्पराओं से जुड़ी नही थी ..वह भी कभी कभी विद्रोह से घबरा कर हाथो की लकीरों और जन्म के लेखो जोखों में रिश्ते तलाशने लगती थी ,और जिस समय उनका इमरोज़ से मिलना हुआ उस वक्त समाज ऐसी बातों को बहुत सख्ती से भी लेता था ..पर अमृता ने उसको जी के दिखाया ..

वह ख़ुद में ही एक बहुत बड़ी लीजेंड हैं और बंटवारे के बाद आधी सदी की नुमाइन्दा शायरा और इमरोज़ जो पहले इन्द्रजीत के नाम से जाने जाते थे, उनका और अमृता का रिश्ता नज्म और इमेज का रिश्ता था अमृता की नज़मे पेंटिंग्स की तरह खुशनुमा हैं फ़िर चाहे वह दर्द में लिखी हों या खुशी और प्रेम में वह और इमरोज़ की पेंटिंग्स मिल ही जाती है एक दूजे से !!


मुझे उनकी लिखी इस पर एक कविता याद आई ..

तुम्हे ख़ुद से जब लिया लपेट
बदन हो गए ख्यालों की भेंट
लिपट गए थे अंग वह ऐसे
माला के वो फूल हों जैसे
रूह की वेदी पर थे अर्पित
तुम और मैं अग्नि को समर्पित
यूं होंठो पर फिसले नाम
घटा एक फ़िर धर्मानुषठान
बन गए हम पवित्र स्रोत
था वह तेरा मेरा नाम
धर्म विधि तो आई बाद !!

अमृता जी ने समाज और दुनिया की परवाह किए बिना अपनी ज़िंदगी जी उनमें इतनी शक्ति थी की वह अकेली अपनी राह चल सकें .उन्होंने अपनी धार दार लेखनी से अपन समय की सामजिक धाराओं को एक नई दिशा दी थी !!बहुत कुछ है उनके बारे में लिखने को .पर बाकी अगले लेख में ...

अभी उन्ही की लिखी एक सुंदर कविता से इस लेख को विराम देती हूँ ..

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के उपर उभर आयीं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें



अमृता जी पर लिखी एक जानकरी के आधार पर लेख

Sunday, April 22, 2007

अमृता प्रीतम के इमरोज़ के साथ बीते मेरे कुछ यादगार हसीन पल..20.4.2007

एक ज़माने से
तेरी ज़िंदगी का पेड़
कविता कविता
फूलता फलता और फैलता
तुम्हारे साथ मिल कर
देखा है

और जब तेरी ज़िंदगी के पेड़ ने
बीज बनाना शुरू किया
मेरे अंदर जैसे कविता की
पत्तियाँ फूटने लगी हैं .

[.इमरोज़....]

एक सपना जो सच हुआ.....

सुबह उठी तब कहाँ जानती थी कि  इन पंक्ति को लिखने वाले से ख़ुद रुबरू बात होगी
और मेरा ज़िंदगी का एक सपना यूँ सच होगा ...मिलना होगा एक ऐसी  शख़्सियत से जिसको अभी तक सिर्फ़
उनके बनाए चित्रो से देखा है या अमृता की नज़मो के मध्याम से जाना है ...जाना होगा उस अमृता के घर जिसको मैने 14 साल की उमर से पढ़ना शुरू किया और उसको अपना गुरु मान लिया .....सूबह फ़ोन आया कि  आज इमरोज़ से मिलने का वक़्त तय हुआ है 2 बजे से पहले ..यदि साथ चलना चाहो तो चल सकती हो ...नेकी  और पूछ पूछ...ऐसी  ड्रीम डेट को भला कौन छोड़ना चाहेगा ...जाने में अभी दो घंटे बाक़ी थे और वो 2 घंटे कई सवाल और कई उत्सुकता लिए कैसे बीते मैं ही जानती हूँ ...

अमृता इमरोज़ के प्यार का ताजमहल उनका ख़ूबसूरत घर.......

उनका घर बिल्कुल ही साधारण ..हरियाली  से सज़ा हुआ और अमृता इमरोज़ से जुड़े उनके वजूद का अनोखा संगम लगा ....एक ख़ुश्बू सी वहाँ थी या मेरे ज़ेहन में जिस को मैने बचपन से पढ़ा था आज मैं उसके घर पर थी ....हाय ओ रब्बा यह सच था या सपना .....उनके घर की जब डोर बेल्ल बजाई तो दिल एक अजब से अंदाज़ से धड़क रहा था ...उनको देखने की जहाँ उत्सुकता थी वहाँ दिमाग़ में अमृता की लिखी कई नज़मे घूम रही थी ...दरवाज़ा खुला ..समाने अमृता के बड़े बेटे थे कहा कि  इमरोज़ अभी बाज़ार तक गये हैं आप लोग अंदर आ जाओ . इमरोज़.अभी आ जाएँगे ... ...ड्राइंग रूम में अंदर आते ही ...कई छोटी छोटी पेंटिंग्स थी एक बड़ा सा ड्राइंग रूम ..ठीक मेरे बाए हाथ की तरफ़ एक दिलीप कुमार की हाथ से बनाई पेंटिंग लगी थी ...उनके ख़ामोश लब और बोलती आँखे जैसे अपनी ही कोई बात कर रहे थे हमसे ...
थोड़ी देर हम उन्ही पेटिंग्स में गुम थे कि  पता चला की इमरोज़ आ गये हैं ...और उनसे मिलने फर्स्ट  फ्लोर पर जाना होगा ....रास्ते में सीढ़ियों पर पेंटिग्स ..एक सुंदर सी छोटी सी मटकी पेंट की हुई और अंदर दरवाज़े पर अमृता की किसी पंजाबी नज़्म की कुछ पंक्तियाँ  लाल रंग से लिखी हुई थी बहुत ही साधारण सा घर जहाँ अंदर आते ही दो महान हस्तियाँ अपनी अपनी तरह से अपने होने का एहसास करवा रही थी...सामने की दीवार पर इमरोज़ के रंगो में सजी अमृता की पंटिंग्स और साथ में लिखी हुई उनकी नज़मे .एक रोमांच सा दिल में पेदा कर रहे थे ....एक छोटी सी मेज़ जहाँ अब अक्सर इमरोज़ कविता  या नज़्म लिखते हैं ...उसके ठीक पीछे कुछ मुस्कराते से पौधे  ... सामने की तरफ़ रसोईघर ....जहाँ कभी अमृता अपना खाना ख़ुद बनाती थी और इमरोज़ साथ रह कर वही पर उनकी मदद करते थे..उनके लिए चाय बना देते थे ....यहाँ सब सामान शीशे का यानी पारदर्शी जार में है कभी कोई समान ख़त्म होने पर ..इमरोज़ उस ख्त्म हुए समान को फिर से ला कर भर दे ....और अमृता को कोई किसी चिज़ की कमी या कोई परेशानी ना हो ....यही बताते हुए इमरोज़ ने एक बहुत ही सुंदर बात कही की काश इंसान भी पारदर्शी शीशी की तरह होते ..जिस के अंदर झाँक के हम देख सकते ....कितनी सजहता से इमरोज़ कितनी गहरी बात कह गये

एक असाधारण व्यक्तिव इमरोज़ ..

वापस वही रसोई घर के सामने रखी मेज़ पर आ कर और उस इंसान को देख रही थी जिसका ज़िक्र अमृता की नज़मो में होता है ...एक सपना वो अक्सर देखा करती थी की एक लंबा सा आदमी सफ़ेद कुर्ते पायजामे में ..केनवास  और रंगो से कुछ पेंट कर रहा है ..यह सपना वह कई साल देखती रही ..इमरोज़ ने बताया कि  मुझसे मिलने के बाद वह सपना आना काम हो गया ...सच में इतना प्यार कोई करे और उसके जाने के बाद भी अपनी बातो से अपने एहसासो से उस औरत को ज़िंदा रखे किसी औरत के लिए इस से ज़्यादा ख़ुशनसीबी क्या होगी ......हमारे लिए वो अपने हाथो से कोक ले के आए ..बहुत शर्म सी महसूस हुई की इतनी बड़ा शक्श  पर कोई भी अहंकार नही कितना साधारण..दिल को छू गया उनका यह प्यारा सा मुस्कराना .और बहुत प्यार से बाते करना मैने पूछा कि  आप को अमृता की याद नही आती ...नही वो मेरे साथ ही है उसकी याद कैसे आएगी ..इसके बाद जितनी भी बात हुई उन्होने उसके लिए एक बार भी थी लफ़ज़ का इस्तेमाल नही किया ..मैने पूछा भी था उनसे की आपने हर बात में है कहा अमृता को ..थी नही ..

प्यार का एक नाम इमरोज़ ....

मैने कहा मैं अमृता जी से मिलना चाहती थी ..तो बोले की मिली क्यूँ  नही ..वह सबसे मिलती थी यह दरवाज़ा हमेशा खुला ही रहता था ..कोई भी उस से आ कर मिल सकता था ..तुमने बहुत देर कर दी आने में .....सच में बहुत अफ़सोस हुआ ...कि  काश उनके जीते जी उनसे मिलने आ पाती ... सामने जो मेरे शख्श  था वो आज भी पूरी तरह से अमृता के प्यार में डूबा हुआ ,,वहाँ की हवा में रंग था नज़्म थी और प्यार ही प्यार था ....कोई किसी को इतना प्यार कैसे कर सकता है ....पर एक सच सामने था ....एक अत्यंत साधारण सा आदमी ...भूरे रंग के कुर्ते में सफ़ेद पाजामे में ..आँखो में चमक ...और चहरे पर एक नूर ..शायद अमृता के प्यार का...सब एक समोहन..सा जादू सा बिखेर रहे थे .मैने जब उनसे पूछा ..... क्या मैं अमृता का रूम देख सकती हूँ ..जहाँ वह लिखा करती थी ..तो उन्होने मुझे पूरा घर दिखा दिया ..यह पहले ड्राइंग रूम हुआ करता था ..अब वहाँ इमरोज़ की पंटिंग्स और अमृता की नज़मो का संगम बिखरा हुआ था एक शीशे की मेज़ जिस पर एक टहनी थी जिसकी परछाई अपना ही जादू बिखेर रही थी इस से बेहतर ..कोई ड्राइंग रूम और क्या हो सकता है ....अमृता का कमरा वैसे ही है जैसा उनके होते हुए था .और बिस्तर पर पड़ी सलवटे जैसे कह रही हो की अभी यही है अमृता ..बस उठ कर शायद रसोईघर तक गयी हो ..फिर से वापस आ के कोई नज़म लिखेगी ..... इमरोज़ का कमरा रंगो में घिरा था ...और हर क़मरे की आईने में कोई न कोई नज्म  पंजाबी में लाल रंग से लिखी हुई थी ...एक और कमरे में बड़े बड़े बूक शेल्फ़ .जिस में कई किताबे ..सजी थी ...अमृता की और कई अन्य देश विदेश के लेखको की ....बस सब कुछ जो देखा वो समेट लिया अपने दिल में और वहाँ फैली हवा में उन तमाम  चीज़ो के वजूद को महसूस किया ..जो साथ साथ अपना एहसास करवा रहे थे ...

.प्यार के लिए लफ़्ज़ो की ज़रूरत नही..

उन्होने बताया कि  चालीस साल में कभी भी अमृता और मैने एक दूसरे को I LOVE U नही कहा ..क्यूकी कभी हमे इस लफ्ज़ की ज़रूरत ही नही पड़ी  ..वैसे भी प्यार तो महसूस करने की चीज  है उसको लफ़्ज़ो में ढाला भी कैसे जा सकता है ......बस हम दोनो ने एक दूसरे की ज़रूरत को समझा ....वो रात को 2 बजे उठ कर लिखती थी उस वक़्त उस को चाय चाहिए होती थी ...हमारे कमरे अलग अलग थे क्यूँकी उसको रात को लिखने की आदत थी और मुझे अपने तरीक़े से पेंटिंग करनी होती थी .हमने कभी एक दूसरे के काम में डिस्टर्ब  नही किया ...बस उठता था उसकी चाय बना के चुप चाप  उसके पास रख आता था ..वह मेरी तरफ़ देखती भी नही पर उसको एहसास है कि  मैं चाय रख गया हूँ और उसको वक़्त पर उसकी जो जरुरत  थी वोह पूरी हो गयी है ..सच कितना प्यारा सा रिश्ता है दोनो के बीच ....उसको सिगरेट की आदत है मैं नही पीता पर उसको ख़ुद ला के देता ..मैने पूछा की क्या आपने कभी उनको बदलने की कोशिश नही की ....उन्होने कहा नही की वो ख़ुद जानती थी की इसको पीने में क्या बुराई है तो मैं उसको क्या समझा सकता हूँबहुत अच्छा लगा .यही तो प्रेम की प्रकाष्ठा है ..इस से उपर प्रेम और हो भी क्या सकता है ...एक एक लफ्ज़ में प्यार था उनका अमृता के लिए

अमृता इमरोज़ का मिलना ......

मैने पूछा की आप मिले कैसे थे ..अमृता को अपनी किताब के लिए कवर पेज बनवाना था ...और इमरोज़ से उसी सिलसिले में मुलाक़ात हुई .....फिर कब यह ख़ूबसूरत रिश्ते में ढल गयी .पता ही नही चला ...अमृता इमरोज़ से 7 साल बढ़ी थी ..तब उस वक़्त बिना किसी समाज की परवाह किए बिना ..उन्होने साथ रहना शुरू किया ...इमरोज़ ने बताया की तब कई लोगो ने कहा की यह तो बूढ़ी हो जाएगी ..तुम अभी जवान हो या अमृता को भी बहुत कुछ कहा गया ..पर कुछ नही सुना ..मैने उस वक़्त जब वो 40 साल की भी नही थी उसकी पेंटिंग बनाई की 80 साल की हो के वो कैसी लगेगी .उसके बाल सफ़ेद किए ..चहरे पर झुरियाँ बनाई ..और जब उसके 80 साल के होने पर मैने उसको उसको पंटिंग से मिलाया तो वो उस पैंटिंग से ज्यादा  ख़ूबसूरत थी .....भला नक़ली रंग असली सुंदरता से कैसे मुक़ाबला कर पाते ...यह प्यार कितना प्यारा था जो करे वही समझे

कुछ यादे कुछ बातें.....

कुछ बाते आज की राजनीति पर हुई .कुछ आज कल के बच्चो जो बुढ़ापा आते ही अपने मा बाप को ओल्ड एज होम छोड़ आते हैं ...पर उनकी हर बात का अंत सिर्फ़ अमृता पर हुआ ...उनकी लिखी कविताओ में उन्होने कहा कि कोई दुख का साया या कुछ खोने का डर नही दिखेगा ...क्यूंकि  मेरे पास तो खोने के लिए कुछ है ही नही जो ज़्यादातर कविता या नज़मो में होता है क्यूँकी मेरा जो भी कुछ है वो मेरे पास ही दिखता है ...सच हो तो कहा उन्होने अमृता जी वहाँ हर रंग में हर भाव में इमरोज़ के रंगो में ढली हुई थी उन्ही के लफ़्ज़ो में

लोग कह रहे हैं उसके जाने के बाद
तू उदास और अकेला रह गया होगा

मुझे कभी वक़्त ही नही मिला
ना उदास होने का ना अकेले होने का ..

. वह अब भी मिलती है सुबह बन कर शाम बन कर
और अक्सर नज़मे बन कर
हम कितनी देर एक दूजे को देखते रहे हैं
और मिलकर अपनी अपनी नज़मे ज़िंदगी को सुनाते रहे हैं[इमरोज़]

कभी नही भूलेंगे मुझे यह ख़ूबसूरत पल ..

.यह छोटी सी मुलाक़ात मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल यादगार पलो में से एक है ...उनके कहे अनुसार जल्दी ही उनसे मिलूंगी ..क्यूँकी उनके कहे लफ्ज़ तो अभी मेरे साथ हैं की जैसे अमृता को मिलने में देर कर दी .,.मुझे दुबारा मिलने में देर मत करना ..क्यूँकी मैं भी बूढ़ा हो चुका हूँ ..क्या पता कब चल दूं ... नही इमरोज़ जी आप अभी जीयें और स्वस्थ रहे यही मेरी दिल से दुआ है .....


रंजना [रंजू]