अमृता और इमरोज़ की आपसी बात चीत उनका एक दूसरे में में कहना सुनना बहुत दिल को अच्छा लगता है
एक दिन अमृता इमरोज़ से कहने लगी की तुम्ही मेरे इकलौते दोस्त हो !"
इमरोज़ ने जवाब दिया की क्या तुम मुझे अपना विश्वासपात्र समझती हो?"
तुम्ही ने तो कहा था की मेरी मेरी किताब डॉ देव के डॉ देव हो !! हालांकि यह नावल मैंने तुमसे मिलने से पहले लिखा था लेकिन इतने दोगले लोगों की भीड़ में से मैंने तुम्हे ही क्यों चुना .क्या यह सबूत कम है ?""
अमृता ने फैज़ अहमद का एक शेर पढ़ा
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रकम
गिला है जो भी किसी से, तेरे सबब से हैं !
ऐसा कहते हुए वह हा बुराई का जिम्मेवार इमरोज़ को ठहरा देतीं थी फ़िर चाहे वह अखबार की खबर क्यों न हो या किसी ड्राइवर ने किसी महिला से अभद्र व्यवहार क्यों न किया हो या फ़िर वह चीन की चालाकी हो या रूस की धोखे बाजी बस इमरोज़ पर बरस पड़ती थी .उधर इमरोज़ कहते की अमृता शुरू से ही आदर्शवादी थी गुस्से में या चिढ कर वह कुछ भी कह दे 'लेकिन लोगों के अविश्श्नीय व्यवहार के बावजूद अमृता का इंसान की अच्छाई से विश्वास कभी नही उठा !"
ऊपर से चाहे वह जितनी आग बबूला हो जाए पर भीतर से वह बेहद शांत और शीतल थी !अपने जीवन के इतने कड़वे अनुभवों के बाद भी वह इंसानियत पर फ़िर से यकीन जमा लेती थी आमतौर पर वह ऐसे मौकों पर एक दो शोक गीत लिख कर शांत हो जाती थी इमरोज़ बताते हैं हैं समकालीन साहित्यकारों के प्रति अमृता के दिल में बहुत प्यार था यदि उन्हें किसी दूसरे का लिखा कविता या शेर पसंद आ जाए तो दिन भर उसको गुनगुनाती रहती थी और दूसरों को भी सुनाती ऐसा करते हुए वह ख़ुद सूरज सी चमकती जबकि उनके समकालीन उनके प्रति बहुत सख्त और सकीर्ण सोच के थे !
इमरोज़ के अनुसार अमृता कभी किसी पर आर्थिक निर्भर होना पसन्द नही करती थी लाहौर में जब अमृता रेडियो स्टेशन पर काम करने जाती तो एक दिन घर के एक बुजर्ग ने पूछा उन्हें काम पर कितने पैसे मिलते हैं ?
अमृता ने जवाब दिया १० रुपए !"
तो बुजर्ग बोले की तुम मुझसे २० रुपए ले लो पर यह रेडियो पर काम करना छोड़ दो ! अमृता नही मानी क्यूंकि पैसे से जायदा उन्हें अपनी आजादी पसंद थी अपना आत्मनिर्भर होना पसन्द था !
एक बात पर इमरोज़ और अमृता दोनों एक दम से सहमत थे वह मानते हैं की धर्म और माँ बाप दोनों ही बच्चो को दबा कर डराकर अपने अधिकार में रखना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं की डरा हुआ बच्चा डरा हुआ समाज बनाता है और ऐसे समाज में सम्बन्ध स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित नही होते अच्छा सम्बन्ध तभी बनता है जब वह सहज और सामान्य और स्वभाविक हो !!
कलम ने आज गीतो का काफिया तोड़ दिया
मेरा इश्कुए यह आज किस मुकाम पर आ गया है
देख नज़र वाले , तेरे सामने बैठी हूँ ,
मेरे हाथ से हिज़रे का काँटा निकल दे
जिसने अंधेरे के अलावा कभी कुछ नही बुना,
वह मोहब्बत आज किरने बुनकर दे गयी .....
उठो!!!!!अपने घरे से पानी का एक कोटरा दो,
राह के हादसे में इस पानी से धो लूँगी.............
अमृता प्रीतम
उमा त्रिलोक की पुस्तक पर आधारित
एक दिन अमृता इमरोज़ से कहने लगी की तुम्ही मेरे इकलौते दोस्त हो !"
इमरोज़ ने जवाब दिया की क्या तुम मुझे अपना विश्वासपात्र समझती हो?"
तुम्ही ने तो कहा था की मेरी मेरी किताब डॉ देव के डॉ देव हो !! हालांकि यह नावल मैंने तुमसे मिलने से पहले लिखा था लेकिन इतने दोगले लोगों की भीड़ में से मैंने तुम्हे ही क्यों चुना .क्या यह सबूत कम है ?""
अमृता ने फैज़ अहमद का एक शेर पढ़ा
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रकम
गिला है जो भी किसी से, तेरे सबब से हैं !
ऐसा कहते हुए वह हा बुराई का जिम्मेवार इमरोज़ को ठहरा देतीं थी फ़िर चाहे वह अखबार की खबर क्यों न हो या किसी ड्राइवर ने किसी महिला से अभद्र व्यवहार क्यों न किया हो या फ़िर वह चीन की चालाकी हो या रूस की धोखे बाजी बस इमरोज़ पर बरस पड़ती थी .उधर इमरोज़ कहते की अमृता शुरू से ही आदर्शवादी थी गुस्से में या चिढ कर वह कुछ भी कह दे 'लेकिन लोगों के अविश्श्नीय व्यवहार के बावजूद अमृता का इंसान की अच्छाई से विश्वास कभी नही उठा !"
ऊपर से चाहे वह जितनी आग बबूला हो जाए पर भीतर से वह बेहद शांत और शीतल थी !अपने जीवन के इतने कड़वे अनुभवों के बाद भी वह इंसानियत पर फ़िर से यकीन जमा लेती थी आमतौर पर वह ऐसे मौकों पर एक दो शोक गीत लिख कर शांत हो जाती थी इमरोज़ बताते हैं हैं समकालीन साहित्यकारों के प्रति अमृता के दिल में बहुत प्यार था यदि उन्हें किसी दूसरे का लिखा कविता या शेर पसंद आ जाए तो दिन भर उसको गुनगुनाती रहती थी और दूसरों को भी सुनाती ऐसा करते हुए वह ख़ुद सूरज सी चमकती जबकि उनके समकालीन उनके प्रति बहुत सख्त और सकीर्ण सोच के थे !
इमरोज़ के अनुसार अमृता कभी किसी पर आर्थिक निर्भर होना पसन्द नही करती थी लाहौर में जब अमृता रेडियो स्टेशन पर काम करने जाती तो एक दिन घर के एक बुजर्ग ने पूछा उन्हें काम पर कितने पैसे मिलते हैं ?
अमृता ने जवाब दिया १० रुपए !"
तो बुजर्ग बोले की तुम मुझसे २० रुपए ले लो पर यह रेडियो पर काम करना छोड़ दो ! अमृता नही मानी क्यूंकि पैसे से जायदा उन्हें अपनी आजादी पसंद थी अपना आत्मनिर्भर होना पसन्द था !
एक बात पर इमरोज़ और अमृता दोनों एक दम से सहमत थे वह मानते हैं की धर्म और माँ बाप दोनों ही बच्चो को दबा कर डराकर अपने अधिकार में रखना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं की डरा हुआ बच्चा डरा हुआ समाज बनाता है और ऐसे समाज में सम्बन्ध स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित नही होते अच्छा सम्बन्ध तभी बनता है जब वह सहज और सामान्य और स्वभाविक हो !!
कलम ने आज गीतो का काफिया तोड़ दिया
मेरा इश्कुए यह आज किस मुकाम पर आ गया है
देख नज़र वाले , तेरे सामने बैठी हूँ ,
मेरे हाथ से हिज़रे का काँटा निकल दे
जिसने अंधेरे के अलावा कभी कुछ नही बुना,
वह मोहब्बत आज किरने बुनकर दे गयी .....
उठो!!!!!अपने घरे से पानी का एक कोटरा दो,
राह के हादसे में इस पानी से धो लूँगी.............
अमृता प्रीतम
उमा त्रिलोक की पुस्तक पर आधारित
5 comments:
बहुत खूब। आपका यह प्रयास काफी सराहनीय है। इसी बहाने एक स्तरीय रचना पढने को मिल रही है।
bahut subdar,apke lekh ki vajah se amrutaji ko jyada kareeb se jaanne lage hai.
बहुत अच्छा लेख हे,
aapki post ka shukriyaa ranju di....
उम्दा प्रस्तुति/ आभार.
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