Wednesday, October 31, 2012

अमृता की पुण्य तिथि पर ..मेरी कलम से

अमृता की पुण्य तिथि पर ..मेरी कलम से

अमृता इमरोज़ ...प्यार के दो नाम ..जिनके बारे में जब जाना तब मेरी उम्र सपने बुनने की शुरू हुई थी ,और प्यार का वह हल्का एहसास क्या है अभी जाना नहीं था | बहुत याद नहीं आता कि कब किताबें पढने की लत लगी पर जो धुंधला सा याद है कि घर में माँ को पढने का बहुत शौक था और उनकी "मिनी लाइब्रेरी "में दर्ज़नों उपन्यास भरे हुए थे ...माँ तो बहुत छोटी उम्र में छोड़ कर चली गयी और सौगात में जैसे वह अपनी पढने की आदत  मुझे दे गयी ...यूँ ही एक दिन हाथ में "अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट" हाथ में आई और उसको पढना शुरू कर दिया .
.उसका एक एक अक्षर दिल में एक मीठा सा एहसास बन कर धडकने लगा ,उनका लिखा हुआ उस में कि कोई साया उनको दिखता है जिस को उन्होंने "राजन "नाम दिया और अपने पिता से छिप कर वह उस से बाते करती मिलती है ,वही एहसास जैसे मेरे अन्दर भी जाग गया .. और वह साया अमृता की रसीदी टिकट से उतर कर मेरे ख्यालों में समां गया | जिस से  मैं भी अमृता की तरह ढेरों बातें करती और सपने बुनती ....पर साया तो साया ही होता है ,कभी कभी लगता है अमृता इमरोज़ के बारे में पढना मुझे बहुत अधिक स्वप्निल बना गया ....अमृता की तलाश साहिर से निकली तो इमरोज़ को पा कर खत्म कर गयी ..पर अमृता इमरोज़ तो एक ही हैं इस विरले जगत में ...न अमृता बनना आसान   है और न ही इमरोज़ को पाना ...जब भी इमरोज़ से मिली अमृता के लिए उनकी नजरों में बेपनाह मोहब्बत देखी ...सच कहूँ तो एक जलन सी हुई ...कि कोई इंसान इस समय में भी किसी से इतना प्यार कैसे कर सकता है ...
अमृता ही थी जिसने मुझे यह एहसास दिया कि चाँद में   अपने राजन से बाते करना और वही थी जिसने बताया कि पानी का परसना क्या होता है ...३६ चक उपन्यास में जहाँ अनीता नदी में नहा रही है और वह उसी धार की तरफ हो जाती है जो कुमार की तरफ से आ रही है ...प्रेम का इस से सुन्दर रूप और क्या हो सकता है ....यही सच था ...अमृता की ज़िन्दगी का ...जिसने मुझे भी प्रेम के इस सुन्दर एहसास से परिचित करवाया ....आधी रोटी पूरे चाँद का सही अर्थो में अर्थ समझाया ....

    एक बार किसी ने मुझसे पूछा आखिर आपको किन किताबों ने बिगाड़ा और मैंने बहुत गर्व से कहा अमृता के लिखे ने ...असलियत में कोई इमरोज़ नहीं मिलता क्यों कि इमरोज़ तो एक ही था ,जिसने न उम्र को देखा न ही अमृता के अतीत को ..बस अमृता के साथ रहा एक लोकगीत की तरह जिसका मीठा स्वर आज भी रूह को मीठा सा एहसास देता है अपने रंगों से प्रेम का सही उजाला दिखा देता है |
कभी कभी सोचती हूँ ..जिसने भी कभी दिल से प्यार किया होगा ,उसने एक बार इमरोज़ ,अमृता के से प्यार की कल्पना जरुर की होगी ...मेरे दिल की तरह उस दिल ने भी चाह होगा ..कि सामने वाला उसके कहने से पहले उसके दिल की बात समझ जाए और उस बात को पूरा कर दे ..जैसे इमरोज़ अमृता की हर बात उसके कहने से पहले समझ जाते हैं ....और न जाने कैसे घंटो पहरों घर में रह कर  ढेरों बातें किया करते थे जिस में लफ्ज़ भी होते ,रंग भी और गहरी ख़ामोशी भी ... और फिर आखिर तंग आ कर दुनिया पूछती आखिर तुम दोनों  घर में रह कर करते क्या हो ...और फटाक से जवाब आता ..बातें ..............उफ़ यह एहसास ही रोमांचित कर जाता है ....इमरोज़ की पेंटिंग और अमृता  की कविताओं में, किरदारों में एक ख़ास रिश्ता जुडा हुआ दिखायी देता है ..एक ऐसा प्यार का रिश्ता जिसे सामाजिक   मंजूरी की जरुरत नही पड़ती है ...और दिल को हर पल यही एहसास कराता है कि यदि अमृता इमरोज़ का रूहानी प्यार सच्चा है तो कहीं ज़िन्दगी में सच्चाई और भी बाकी होगी ...इस प्रेम की ..इन्तजार तो जारी है और जारी रहेगा ..

Saturday, October 27, 2012

सरगम

झरते रहे बदन से लफ्ज सांसो की सरगम पर  ..
रात यूँ तारों के साथ हौले  से ढलती रही .......

 बुनती रही सपनो की एक चाद्दर ,याद टूटी हुई 
कोई शमा जैसे पिघल के पल पल जलती रही 

हवा ने भी पलट लिया शायद रुख़ अपना 
कोई तस्वीर बन के फिर आईने  में ढलती रही 

देते कब तक नसीब को दोष अपने ए दोस्त 
हाथों   की लकीरें  थी ,बन के फिर मिटती रही 

कहा तो ना था हमने अपना फ़साना ज़माने को
फिर भी तेरे मेरे नाम की एक कहानी बनती रही !!

Sunday, October 21, 2012

"एक लड़की "

 
 
हर "स्त्री "में रहती है
"एक लड़की "
जो हर पल
जिंदा रहती है
"बाबुल" के घर में
हर पल चहकती यह "गुडिया "
पिया के घर में
अपने ही रचे संसार में
कहीं खो जाती है
पर जब वह अकेले में
करती है खुद से बातें
अपनी भूली हुई यादों से
यूं ही कुछ पढ़ते पढ़ते
मिलती है ...
कुछ लिखे हुए लफ्जों से
और तब वह जाग कर
वही "चंचल नदी "सी
बन जाती है...
हंसती है ,मुस्कराती है
अपनी की कही बातों पर
अपनी ही किसी
पुरानी यादों पर
हाँ सही है यह
हर स्त्री में होती है
एक "नन्ही बच्ची"
जो बीतते वक्त के साथ भी
कभी "बड़ी "नही हो पाती है !!..

रंजू .......डायरी के पन्नो से एक पन्ना

Friday, October 19, 2012

"वो लड़की जो शहर की दीवारों पे लिखती रहती है शहर भर में "

इक सुबह/मेरे आँगन में आ गया/इक बादल का टुकड़ा/छूने पर वो हाथ से फिसल रहा था/मैंने उसे बिछाना चाहा /ओढ़ना चाहा/पर/ जुगत नहींबैठी/फिरबादल को न जाने क्या सूझी/छा गया मुझ पर/मैं अडोल सी रह गई/और समा गई बादल के टुकड़े मे     और मैं मनविंदर का लिखा संग्रह पढ़ कर "अडोल" सी रह गयी ...मनविंदर भिंभर की लिखी यह पंक्तियाँ उनके संग्रह "अडोल" से है ..निरुपमा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह संग्रह बहुत सुन्दर आवरण में  लिपटा हुआ मेरे हाथ में आया तो कितनी बातें जहन में घूम गयीं | उन से हुई पहली बातचीत और भी बहुत कुछ | मनविंदर को मैं कैसे मिली ..या वो मुझे कैसे मिली ...यह जब याद करूँ तो याद आता है कि आज से तीन साल पहले मेरे पास एक मेल आया जो बहुत अपनेपन से बहुत प्यार से मेरी लिखी गयी कविताओं के बारे में था ..मैंने भी हमेशा की तरह  उस को उसका जवाब दे दिया .और .उसके बाद मेल का सिलसिला बढ़ता गया ..फ़ोन पर बात शुरू हुई ...और फिर उन्होंने "साया मेरे पहले संग्रह" के बारे में अपने अखबार में लिखा ,"मेरे ब्लॉग के बारे में" अपने विचार व्यक्त किये ...मेल से ही हम दोनों ने न जाने कितनी बातें शेयर की ,सपने डिस्कस किये ..पर कभी मुलाकात नहीं हो पायी ..फिर थोडा सा बातचीत में अंतराल आ गया ..पर जुड़े रहे एक दूजे से और यह इतना सहज था की मैं कभी उन्हें "मनविंदर जी" कह ही नहीं पायी ...उनके इस पहले संग्रह" अडोल" पर मैं उतनी ही खुश हूँ .जितनी वो मेरा पहला संग्रह "साया" पढ़ कर खुश हुई थी ...एक कड़ी और जो सामान है हम दोनों में वह है "अमृता प्रीतम" ....दोनों ही हम उसको सामान रूप से पसंद करती है और लिखती है उस पर ....

अडोल संग्रह पढ़ कर मुझे अमृता की ही याद आई ..दिल से लिखी यह नज्में बेहद खूबसूरत हैं सबसे बेहतरीन बात जो वाकई मेरे दिल को बहुत गहरे तक छु गयी ...उन्होंने इसका विमोचन अपनी माँ के हाथो करवाया ...सीधी सादी मनविंदर ने बहुत सरलता से इसका संग्रह को जीवन का प्रथम पाठ पढ़ाने वाली माँ के हाथो में सौंप पर यह कहा

 लीजिये ......मेरी "अडोल" के चेहरे से घूँघट  उठा दिया मेरी माँ ने ....  "अडोल" मेरी नज्मों का गुलदस्ता

 "बहुत ही अदभुत क्षण रहा होगा न यह मनविंदर ?"...मैं तो जान कर ही भावुक हो गयी |देश के माने हुए अखबार "हिन्दुस्तान" में" प्रमुख संवाददाता "पद की गरिमा बनाए हुए मनविंदर पेशे से पत्रकार हैं और इस खबर की दुनिया में ज़िन्दगी वाकई उनको रोज़ छु कर निकल जाती होगी अपनी घटनाओं से उन्ही की लिखी एक बात भी बहुत बेहतरीन लगी ...."बहुत बार ऐसा हुआ ,जो दिन में देखा ,उसने रात को सोने नहीं दिया |अन्दर से आवाज़ आती ,जी खबर लिख कर आई हो ,वो अधूरी है .सच लिखना अभी बाकी है |खबरों के सफ़र में मुझे ऐसे कई सच मिलते रहे जो खबर नहीं बन सके और वो ही सच नज्म बन गए "........जो इस संग्रह के रूप में हमारे सामने आये ..उनकी लिखी यह नज्म इस सच की गवाह है

 मन में आती है कई बातें ,कई बार
कुछ कहने को जो नहीं होता ,हर बार
एक डर का पहरा होता है कई बार
कोई सर्द सी शिकन दिखती है ,हर बार ..


 एक सच जो खबर में कहीं छिपा हुआ पर लिखने वाले के दिल में आक्रोश पैदा कर देता है ..वह विवशता इन लिखी पंक्तियों में उभर कर आई है |मनविंदर की कवितायें अक्षरों के काफिले के साथ चलती अपनी पहचान छिपाए ख़ामोशी से चलती एक औरत द्वारा अभिव्यक्त के कुछ जिंदा रास्तों की तलाश की कवितायेँ हैं यह कहना है मृणाल पांडे का जिन्होंने इस में प्रकथन लिखा है और साथ ही यह .......की इन कविताओं को तमाम उन लोगों को पढना चाहिए जो सचमुच जानना चाहते हैं की सामजिक मुखोटों के परे ,तमाम वर्जनाओं के बीच जी रही औरत के मन की अँधेरी ,बाहर निकलने की कलपती दुनिया का सच कैसा है ?

 काले घेरों में लिपटी
उसकी बेजान आँखे
पता नहीं
इन आँखों ने कभी
कोई ख्वाब देखा
या नहीं
कोई नहीं जानता
रिश्तों के हाशिये पर खड़ी
वो लड़की
बस चलती रही

............... पढ़ कर बस एक चुप्पी सी लग जाती है
..आँखों के काले घेरे पढने वाले के मन को घेरने लगते हैं ..अजनबी नज्म में की यह पंक्तियाँ कुछ और कह जाती है

कह दो इन पगडंडियों से
फिर से बन जाएँ अजनबी
और फिर हम चलें
इन पगडंडियों पर
अपनी अपनी तन्हाइयों के साथ
अपनी अपनी परछाइयों के साथ .........

 

वाकई यह तलब दिल की कैसे इन लफ़्ज़ों में उतर कर आई है ..की पढ़ते ही दिल से एक आह निकल जाती है ..और एक दूसरी नज्म की पंक्ति गीली हैं तो आँखे -हलचल है तो ख्यालों में ...कितने सवाल कितने जवाब एक अजीब सी रहस्य सी हैं मनविंदर की लिखी यह नज्मे जो कभी सूफी रब्बी मसला भी महसूस करवा देतीं है|
सवाल बहुत है
पर दिल डरता है जवाबों से
कहीं जवाब "यह "न हो
कहीं जवाब "वो "न हो
इसी "ये और वो" में तो
ज़िन्दगी बसर हुए जाती है


      उनकी लिखी इन नज्मों को यूँ ही आप सरसरी तौर पर नहीं पढ़ सकते हैं ..उनको समझना है तो उनकी तह तह जाना होगा डूबना होगा उन लिखे लफ़्ज़ों में ...जो अडोल को एक यादगार संग्रह बना गए हैं उन्होंने इस में जो अपनी बात कही है वह भी बहुत ही बेहतरीन है ...की उनका यह नज्म लेखन गुरु ग्रन्थ साहिब जी की वाक् की तरह है वाकई यह बहुत सुन्दर लफ़्ज़ों से सजा है ..मैं तो डूब कर रह गयी इस में ...
मुद्दत बाद
उम्रें ठहर गयीं
उनकी नजरें मिली
एक दूसरे  को
देखा
जैसे तपती धूप में
ठन्डे पानी के घूंट भर लिए हो ...

और यह सच जो उनके लिखे लफ़्ज़ों का सच ब्यान कर गया जो उन्हें अक्षरों की माला के रूप में कोई जोगी दे गया और वह उस नूर को यूँ लफ़्ज़ों में कह गयी
मंत्रों के नूर से उजली हुई
वो माला मेरे सामने थी
मैं अडोल-सी खड़ी रह गई
और सोचने लगी
कैसे लूँ माला को

यह वही अक्षर हैं जो सोच से से भी आगे हैं कभी कलम को  छुते  हैं कभी कागज पर बैठते हैं और कभी गीत बन जाते हैं ..और अंतर्मन  में उतर जाते हैं असल नज्म की लिखी इन पंक्तियों के माध्यम से ..
तेरे कमरे में
सब कुछ बिखरा है
कहानियों के अधूरे ड्राफ्ट
तकिये पर रखी डायरी
डायरी के पन्नो में रखा पेन
हर दिन पन्नो पर धरे जाने वाले
उदास ,हंसाते बिसूरते ,चिढाते
अक्षर ...........

सही में एक लिखने वाले मन का परिचय जो इसी नज्म में लिखी पंक्ति की सोच को और भी मुखरता से कह जाता है" कि कई बार सोचा समेट दूँ तुम्हारा बिखरापन लेकिन तुम तो बेतरतीब हो कैसे जानोगे असल" .........मुझे तो इनके संग्रह में संजोयी हर नज्म ही बहुत बहुत अपने दिल के करीब लगी ..वह सच जो इन अक्षरों में अपनी बात कहता हुआ दिल में बस गया उनकी लिखी इस सहेलियाँ नज्म सा ..
दो सहेलियाँ
एक ही देह में रहती हैं
साथ साथ
दुःख कुरेद्तीं है

गहरे तक यह उतरे अक्षर अन्दर के तूफ़ान को ब्यान कर जाते हैं जो बहुत कहना भी चाहते हैं और बंधे हुए भी हैं ..
एक लड़की
मैं जानती हूँ उसे
बहुत नजदीक से
बातें करती हूँ उस से
वो चाहती है
तितली के रंग ओढना
पेड़ों की छांव में बैठना
फूलों की खुशबु में जीना
...यह वही एहसास हैं जो मनविंदर के मन के साथ साथ मेरे मन ने भी पढ़ लिए सोयी जागी आँखों से ...और दिल उस शक्ति से फ़रियाद करने लगा ..मुझे बचा लो /रस्मों से /कानूनों से/दावों से /और पहना दो मुझे /अपने रहम की ओढ़नी ....उनके लिखे हो को पढ़ते हुए मेरा दिल तो हर नज्म की पंक्ति यहाँ लिखने का हो उठा है ..हर लिखा हुआ अक्षर एक पुकार है वाकई अंतर्मन की जो चुपचाप बैठ से अपने से ही बात करते हुए पढ़ी जा सकती है
या रब्बा
बादल चीखे या चिल्लाएँ
गरजे या पगलाएं
इधर उधर मंडराएं
पर जब मेरा मौसम आये
मेरे मन की धरती पर
बिन पूछे छा जाएँ

कौन नहीं चाहता यह मौसम ..हर दिल की पुकार छिपी है इन पंक्तियों में ...अपने में सम्पूर्ण यह नज्मे बहुत रहस्यवादी है बहुत गहरी हैं .कोई कमी मुझे इन में दिखी नहीं ..अमृता प्रीतम के साथ जुड़े होने का एक एहसास सा हुआ इनकी लिखी कई नज्मों में ...हर नज्म के बारे में लिखूं तो भी कई बातें अनकही रह जाएँगी ...दिल से लिखे इस संग्रह को अवश्य पढ़े तभी दिल की बात समझ पाएंगे ..फिर भी मैं कुछ और नज्मों का ज़िक्र नहीं करुँगी तो यह समीक्षा कुछ अधूरी सी लगेगी ...अरसे बाद दराज़ खोला /आँखों में वो अक्षर तैर आये जिन पर लकीरें फेरी गयीं थी ...दराज़ नज्म से ..तेरा इश्क बैठा था हर अक्षर की ओट में/डायरी तो हाथ में थी लेकिन /अक्षर बहुत ऊँचे स्थान पर खड़े थे ..डायरी नज्म से ....सूरज को भीतर उतार लूँ /और रौशनी को हो मेरी तलाश /सेक से यह ली गयी पंक्तियाँ रोशन कर देती है पढने वाले को और एक खूबसूरत एहसास में रंग देती है ..मनविंदर की इन नज्मो के कई बिम्ब बहुत ही सुन्दर है नए हैं ..लफ्ज़ पंजाबी रंग लिए हुए हैं जो बहुत ही सहजता से अपनी बात कहते हैं जैसे "बुक्कल "शब्द का बहुत बढ़िया प्रयोग उनकी एक नज्म में लगा मैं तन्हाई और बुक्कल
देर तक तन्हाई /मेरी बुक्कल में बैठी रहती है ..और ख़ास बात की हर रिश्ते की गहराई को पढने वाला इस संग्रह में पढ़ सकता है ..माँ .पिता और बेटी पर लिखी हर पंक्ति अपनी सी लगती है ..सबका ज़िक्र करना यहाँ बहुत मुश्किल है .....
खुद मनविंदर के शब्दों में अडोल "..उन हादसों और मुलाकातों का जिक्र भर है जो मुझे कभी ख़बरों के सफर में मिले और जुदा हो गए लेकिन उनका असर रह गया  मैंने उन्हें नज्म की शकल देने का एक पर्यास भर किया है
"वो लड़की जो शहर की दीवारों पे लिखती रहती है शहर भर में "






Thursday, October 18, 2012

कोरे ख़त

दिए तेरी बातो ने कई  दर्द मुझे यूं बहलाने  से
लगते हैं अब तेरे कर्मों  इनायत भी बेगाने से

तलाश करते रहे ना जाने क्या  हम  तेरी आँखो में
दिल टूटा जब वहाँ दिखे अक्स अपने ही अनजाने से

बदल गये तुम बदलती हुई फ़िज़ा की तरह फिर से
हम अब भी खड़े हैं उसी मोड़ पर खोए हुए वीराने से


लिख के भेजे हर पल कई कोरे ख़त तुझको हमने
तेरी चुप्पी के जवाब कर गये हमे और भी दीवाने से

बैठे  रहे महफ़िल में बस चुपचाप  देखते  हुए तुझे
कि बना न ले लोग कहीं किस्से यूं ही मुस्कराने  से !!

Tuesday, October 16, 2012

दिल का दर्पण .

दिल का दर्पण



काव्य संग्रह
मूल्य- रु 150
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046) 







दिल का दर्पण ...दिल का आईना जो अपने में समेटे हुए है हर अक्स को ........ दिल के आईने के बारे में लिखते हुए कभी लिखा था कि
झांक के कभी न देखते
 उसकी आँखों में
हम यूँ डूब कर
अगर पता होता
कि वो आईना है ...यही हाल हुआ मोहेंदर जी के इस संग्रह को पढ़ते हुए | अपने साथ बीते हर लम्हे का अक्स दिखा उनके लिखे इस दिल के दर्पण में | मैं उनके लिखे से बहुत समय पहले से परिचित हूँ और लिखे हुए से प्रभावित भी ..इस लिए उन रचनाओं को जिन्हें ब्लॉग में पढ़ा था हाथ में पुस्तक के रूप में देख कर बहुत ही ख़ुशी हुई और अच्छा लगा | दिल के रंग में सजी लाल संतरी रंग की आभा लिए यह किताब आपको अपने अक्स में मोहित कर लेती है ...खुद मोहिन्दर  जी के लफ़्ज़ों में कहे तो ..कविता हो या कहानी रचनाकार की आँखों में समाज ,आस पास की घटनाओं ,अपने व्यक्तित्व अनुभवों तथा कल्पनाओं का प्रतिबिम्ब होती हैं| चूँकि अनुभूतियाँ ,अनुभव व कल्पनाएँ अलग रंगों से रंगी होती हैं ,कविता व कहानियाँ भी बहुरंगी लिबास से सजी होती है| कभी चटक शोख व कभी धुंधलके में लिपटी हुईं ...सही बिलकुल मोहिन्दर जी तभी तो वह  दिल का आईना कहलाती है |
  दिल का दर्पण अपनी एक ख़ास विशेषता लिए हुए है .शुरू से आखिर तक ...सबसे पहले इसके अनुक्रम में ही देखे तो इस दिल के अक्स का अलग अलग एक टुकड़ा है जो अपने में हर विषय को समेटे हुए है जैसे सामाजिक सरोकार .जीवन दर्शन .अंतर मंथन ,श्रृंगार प्रणय मिलन विरह .प्रतीक्षा ,अनुनय ,नवीन प्रयोग ,गीत ,क्षणिकाएँ,हाइकु ...पढने वाला पाठक अपने मूड के हिसाब से अपनी पसंद से जो पढना चाहे पढ़ ले ...यह बहुत ही बेहतरीन प्रयोग लगा मुझे इस संग्रह में ..
 सामाजिक सरोकार में ..उनकी उलेखनीय रचनाओं में कोमल बेल या मोढ़ा....बेटी के कन्यादान से जुडी प्रथा पर गहरा प्रहार करती है |बेटी का विवाह हमारे समाज में आज भी एक बोझ है ...जो इन लफ़्ज़ों में ब्यान हुआ है .
बेटी ब्याही ,तो समझो गंगा नहाये
सुन कर लगा था कभी
जैसे कोई पाप पानी में बहा आये .....आज भी यह कितना कड़वा सच है ..जो जाने अनजाने हमारे कथन में शामिल है ...बेटी के विवाह के बाद यह एक लोक विश्वास है कि गंगा नहाने जाना  चाहिए यानी की एक बहुत बड़े काम से मुक्ति मिली..और इसी के अंत में एक सवाल ...
देखे आज का दूल्हा कल क्या कहता है
मुक्त रहता है ,या गंगा नहाता है ??
समाज के सरोकार से जुडी एक और रचना आदमी सड़क और आसमान ...एक बहुत बड़े सच से रूबरू करवाती है .कहने को दुनिया इतनी बड़ी और उस में रहने वाला ननकू ..जिसको मिला सिर्फ एक वह टुकड़ा रहने को जहाँ वह बेबस एक गाडी के अपने पैर के ऊपर से गुजर  जाने की वजह से गालियों पर जी रहा है एक बड़े से पुल के नीचे ..तरपाल के उस टुकड़े के साए तले..
जो कहने को तो एक छत है
किन्तु स्वयं में बेबस है
आंधी तूफ़ान बारिश
रोक नहीं पाता है
ननकू रात में लेटे लेटे
अक्सर सोचता है
काश वो गाडी उसके
पांव के ऊपर से नहीं उसके
पांव के ऊपर से नहीं
उसके सिर के ऊपर से गुजरी होती
शायद फिर उसे
न इस सडक ,न इस आसमान
और न किसी आदमी से कोई शिकायत होती !!
अब यह पंक्तियाँ ही पूरी कविता का मर्म समझा रही है ..मैं अपने लिखे शब्दों में क्या कह सकती हूँ .कितनी बेबसी है इन में ..और यह बेबसी और भी उभर जाती है जब उनकी लिखी एक और रचना आज़ादी से क्या बदला है की यह पंक्तियाँ पढ़ते हैं ..
केवल अंग्रेज कर गए कूच यहाँ से
और इस देश में क्या बदला है ?
झूठ का है अब तक बोलबाला
सच अब भी यहाँ लंगड़ा है ...हमारे देश के आज के सच पर प्रहार करती एक सच्ची रचना है यह ........और फिर यह हालत देख कर सिर्फ आक्रोश ही पैदा होगा दिल में और वह चीत्कार उठेगा
सोने की चिड़िया का ,पहले
विदेशी गिद्धों ने सुनहरे पंख थे नोचे
देसी कौए अब ,देह से मांस कचोट रहे हैं ..दोषी कौन ..है इसका ..इसका विश्लेष्ण तो खुद का आत्म निरीक्षण कर के ही पाया जा सकता है ..
मोहिन्दर जी की यह रचनाएँ समाज की जागरूक चेतना से जुडी हुई है है ,वह यूँ ही बिना पंखों के कल्पना के आकाश में नहीं उडी हैं .
अंतर अगम है बीच का स्वर्ग रसातल
जीवन अपना सत्य का ठोस धरातल
हास्य की पूंजी पास नहीं है
है मन का मर्म उपहास नहीं हैं |
 इनके संग्रह का दूसरा भाग जीवन दर्शन के सच से जुड़ा हुआ है ...जो मोहिन्दर  जी के लिखे लफ़्ज़ों से हमें खुद से बातचीत करने का मौका देता है ...मिथ्याबोध , जीवन का गणित जय पराजय , और एक नदिया इस में बहुत ही अच्छी रचनाएं कही जा सकती है ....
जीवन का कोई गणित नहीं है
न ही मनुष्य कोई आकृति
यहाँ समीकरण स्थापित सूत्रों से नहीं ,अपितु
समय की मांग के अनुसार सुलझाये जाते हैं ....सच से परिचय करवाती यह पंक्तियाँ जय पराजय से स्वतः  ही जुड़ जाती है ..
सौरमंडल में मात्र बिंदु भर यह धरा
प्रत्येक अंश किसी महाअंश से बौना है
सिंह भी धूल चाटते हैं जीवन द्वंद में
जय परिभाषित हो सकती एक छंद में
पराजय का कण कण से नाता है ......
               आत्म मंथन की श्रृंखला में भी रचनाएँ बहुत मुखर हो कर अपनी बात कह रही है ...आत्म चिन्तन ..जब व्यक्ति निरंतर सोचता रहता है तब उसका चिंतन उसके आकुल .व्याकुल मन का प्रतिबिम्ब होता है ,किन्तु जब वह अपने अस्तित्व की पूर्ण प्राप्ति कर लेता है तो तब वह अपने मनोमंथन की सभी अवस्थाओं को पार कर जाता है और कवि की लिखी यह रचनाएं इसी तरह का बोध करवाती है ...नव जीवन का उदगम समय सब कुछ बदल देता है
पर मिटती पहचान निरंतर परिवर्तन
ही किंचित
नवजीवन का उदगम है .......और जब इस बात को मनुष्य पहचान ले तो अंतर्मन के द्वार खोलने की कोशिश में लगा या कह उठता है
किस तरह उतराऊं इस अंधकूप में
किस तरह बहार आऊं धूप में
या चीत्कार करूँ भीतर बाहर
क्या कोई सुन पायेगा  ?
पर एकांत मन की भाषा को सहज ही समझ जाता है और खुद से कह उठता है
मैं चाहता हूँ
एक नितान्त एकांत
कोई न हो जहाँ ..इस भाग में आने वाला समय से भी शिकायत है बिंधे हुए पंखो से उड़ न पाने की और मृगतृष्णा में उलझे हुए प्रश्न की भी कौन हूँ मैं ?यह सवाल हर पढने वाला पाठक ही खुद से करेगा इस रचना को पढने के बाद ..
काल चक्र के गूढ़ मंथन से
जो भी उपजा पाया है
वो अमृत है या तीव्र हाला
इसका निर्णय कौन करे
भीतर अपनी उपजी कुंठाओं का
अब तक विश्लेषण न हो पाया
कौन सा परिचय दूँ मैं अपना ?
अब बात करते हैं उनके लिखे हुए श्रृंगार रस पर लिखे प्रेम पर लिखी रचनाओं की ..बात ढाई आखर की है ,चाहे उसको प्रेम कहें ,या इश्क .इसी में मिलन है इसी में विरह का ताप भी है जो छलका है अपनी लिखी इन रचनाओं से कर्णफूल सा मैं ..रूमानी एहसास की भाव पूर्ण अभिव्यक्ति है
कर्णफूल सा
मैं संग तुम्हारे
दर्पण में ही
होता प्रतिबिम्ब
और अभिव्यक्त होता मन के उदगारों से जिन्हें पढ़ लेती तुम  और कहती जो बीत गया उसको बिसरा कर समेट लो खुशियाँ आँचल में ...क्यों की प्यार का रंग बदला नहीं करता है
किस तरह अलग हो
प्यार बिना जीवन बंजर
बिना धार ज्यों हो खंजर
मान्यताओं के मौसम बदले हैं
मगर प्यार का रंग न बदला ...........प्यार की परिभाषा और प्यार के मौसम एक अनुभूति से संग रहते हैं ..
प्रेम एक अनुभूति जो कभी शांत और कभी प्रज्वलित हो कर दिल को भिगो जाती है ...तब कामनाओं का अमलतास खिल उठता है पर यह तो स्वप्न से है तभी कवि विरह में डूबा कह उठता है ....
मृगतृष्णा के आभास से
निद्रा से जब नयन खुले
अश्रुओं से भीगी थी पलकें
होंठ सूखे हुए थे प्यास से
झाँक कर देखा जो खिड़की से बाहर
धरा सुनहरी फूलों से अटी पड़ी थी
धीरे धीरे दल झर रहे थे
मेरी कामना के खिलते हुए
अमलतास से !
पर दिल तो दिल है ...प्यार की रंग में पगा हुआ भरा हुआ ..बसंत सा ..मौसम है यह मन का ...
मौसम चाहे कोई भी हो
सीधा रिश्ता दिल से है
मन के बारूदी फ़ितनों को बना पटाखा
अपनी रात दिवाली कर लेना
एक और रचना कंगन लिए फिरता हूँ ..बहुत ही रोचक लगती है जब यह पंक्तियाँ पढने में आती है
सब ढूढ़ते फिरते हैं
चेहरों में तबस्सुम
मैं दिलों में बसी सफाई तलाशता हूँ
कंगन लिए फिरता हूँ
कलाई तलाशता हूँ
प्यास लिए होंठो पर
सुराही तलाशता हूँ .......
तलाश खत्म हुई तो सवाल कई उभरे जो रुकने का समझने का और अपनी बात कहने का यूँ ढंग तलाश कर लेते हैं
अभी अभी मिले हो मुझसे
नाम केवल मेरा जाना है
हाथो से बस हाथ मिले हैं
मुझे अभी तक कहाँ पहचाना है ...और यह पहचान फिर दिल के उन रिश्तों में ढलने लगती है जो अनाम होते हैं ..
कुछ रिश्ते अनाम होते हैं
होंठो तक आ गए जो
वो "बोल "तो आम होते हैं  |
नवीन प्रयोग में इनकी रचनाओं में बाबुल बिटको ..बहुत ही सुन्दर रचना है ...
बाबुल देहरी ,लाँघी आई
हाथों मेहँदी ,पावों अलताई
अंगूठी बिछुए ,पैजन छनकाई
मायका सूना,ससुराल बधाई
बाबुल बिटको हुई पराई ...........बेटियाँ बाबुल के घर कब रह पायीं ....बहुत ही दिल को एक कसक में डुबो देने वालीं रचना है |यह दर्द वही महसूस कर सकता है ..जो बेटियों के घर में होने से रौनक समझता है ...
शब्दों का सब खेल है ,परछाई ,हम तुम चाँद अकेला इस संग्रह की उम्दा रचनाएँ कही जा सकती है
एक बार मुड कर देख ले में प्यार भरी मनुहार बहुत ही मीठी है
इक बार मुड कर देख ले
ख़्वाबों को पलकों में लिए
टिमटिमा रहे हैं कुछ दिए
बेकाबू हुई दिल की धड़कने
बसा के आरजू बेशुमार ये
इक बार मुड के देख ले
क्षणिकाओं में जो बेहतरीन कही जा सकती है ..वह हैं ,,,
उम्र भर संभाले कांच से रिश्ते
बस और किया क्या है
सुलझाते रहे बेतरतीब उलझने
जीने को जीया क्या है ?
रिश्तों का एहसास इस से अधिक कम पंक्तियों में और क्या होगा ?
टूटे नग कौन गहनों में बिठाता है
अब कोई ख्वाब नहीं
आँखे सूनी है ......आँखे और नग बिम्ब जीवन के एक सच को ब्यान कर देते हैं ...........यह बहुत कम है इस संग्रह में ..
हाइकु में अपनी बात है ..सहज ही अपनी बात यह कम लफ़्ज़ों में कहे जाने वाले इस संग्रह में संख्या में भी बहुत कम है ..पर जोरदार है
नम नयन
होंठो पर कंपन
कथित मौन
कविता मन को बांधती है  और मन को खोलती भी है वह यूँ इन कम लफ़्ज़ों में भी अपनी बात कह जाती है
छुआ उसने
न जाने क्या सोच
पुलकित मैं !
कविता संग्रह में रचनाये हीरे की कनी की तरह अलग अलग कोणों से अलग अलग किरणें बिखेरती नजर आती है वही बात मोहिन्दर  जी की रचनाओं में देखने को मिलती है |कविता हृदय की गहरी अनुभूतियों की झंकृति होती है .कवि मन की भावों की गूंज होती है और कविता लिखना हर एक के बस की बात नहीं है पर हर संवदनशील व्यक्ति का दिल कवि होता है और एक कवि के लेखन में वह भाव होना चहिये जो पढने वाला भी महसूस कर सके ..मोहिन्दर  जी का लेखन इस बात पर बहुत हद तक सही रहा है ..कहीं कहीं भटकाव की हालत लगी है ..पर फिर भी लिए गए विषयों में उन्होंने अपने लेखन से न्याय किया है | पर पढ़ते हुए कुछ विचार भी आये इस संग्रह को शायद वो या तो मेरे पहले पढ़े हुए से प्रभावित हो सकते हैं ..जैसा कि मैंने पहले कहा की बहुत समय से मैं मोहिन्दर जी का लिखा हुआ पढ़ रही हूँ .मुझे उस में उस जादू की थोड़ी सी कमी लगी जो बाँध लेती है ..गजल वो बहुत बढ़िया लिखते हैं ..उसकी कमी इस संग्रह में अखरी| और कहीं कहीं ऐसा लगा की जैसे लिखने वाले का मन कहीं बंधा हुआ है ..खुलापन  स्पष्टरूप से किसी किसी रचना में बहुत ही कंजूसी से लिखा हुआ महसूस हुआ |प्रेम विषय भी इस से अछूते नहीं रहे ...पर जहाँ मुखरित हुए हैं वहां अपनी बात कह गए हैं विरह का रंग बखूबी उकेरा है उन्होंने अपनी कलम से ..शायर मखमूर के लिखे शब्द याद आते हैं इस तरह की रचनाएँ पढ़ कर ...मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मखसूस होते हैं ,यह वह नगमा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता | मोहिन्दर जी के लिखे में भी प्रेम को खोने पाने का सुन्दर चित्र उभर का आया है |हर विषय को खुद में समेटे हुए यह संग्रह पढने लायक है और संजोने लायक है .मोहिन्दर जी का लिखा बहुत बेहतरीन है और हो भी क्यों न क्यों कि कृतित्व हमेशा लिखने वाले का दर्पण ही तो है ......मोहिन्दर  जी के लिखे की यह संग्रह के रूप में अभी प्रथम सीढ़ी है .आगे उनसे और भी बेहतर संग्रह का इन्तजार हर पढने वाले को रहेगा .उन्ही के लिखे शब्दों की परिभाषा में ..
शब्दों का सब खेल है
शब्द प्राण है
शब्द बाण है
कुछ सहलाते
कुछ गहरे गड जाते
शब्दों का सब खेल है .....
यह शब्द दिल के दर्पण में जब झांकते हैं तो एक झंझाहट पैदा कर देते हैं आपको अपने अक्स से मिलवा देते हैं |

Friday, October 12, 2012

मृगतृष्णा

मृगतृष्णा (कविता-संग्रह)

संपादक : सत्यम शिवम्
१० कवियों की तृष्णाएँ कविताएँ
मूल्य- रु १९५
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिप्कार्ट इन्फिबीम पर खरीदने का लिनक्स
मृगतृष्णा क्या है ?जल या जल की लहरों की वह मिथ्या प्रतीति जो कभी कभी ऊपर मैदानों में भी कड़ी धूप पड़ने के समय होती है । मृगमरीचिका । गरमी के दिनों जब वायु तहों का धनत्व उष्णता के कारण असमान होता है, तब पृथ्वी के निकट की वायु अधिक उष्ण होकर ऊपर को उठना चाहती है, परंतु ऊपर की तहें उठने नहीं देती, इससे उस वायु की लहरें पृथ्वी के समानांतर बहने लगती है । यही लहरें दूर से देखने में जल को धारा सी दिखाई देती हैं । मृग इससे प्रायः धोखा खाते हैं, इससे इसे मृगतृष्णा, मृगजल आदि कहते हैं ।समान्यता हम यही मृगतृष्णा की परिभाषा समझते हैं जानते हैं। मृगतृष्णा काव्य संग्रह ...संपादक सत्यम शिवम् और उनके लिखे शुरूआती लफ़्ज़ों में मृगतृष्णा एक ऐसा बिम्ब है जो हमें जीवन के आध्यात्मिक वास्तविक स्वरूप की झलक देता है ।रेगिस्तान में इधर उधर भटकते मृग जब प्यास बुझाने के लिए पानी की कामना करते हैं तो कुदरत अपना झूठा स्वांग रच कर पानी की झलक दिखा जाती है ..और प्यास वहीँ रह जाती है ...इसी तरह हमारा जीवन है हम झूठी लालसाओं में घिरे भागते रहते हैं और असली वास्तु से दूर होते जाते हैं ..झूठ को सच मान लेना और वही सच समझना इस "मन की मृगतृष्णा "है ख्वाइशें हैं मन के भीतर रेत में भी एक नदी की
स्वांग के आकाश में याथार्थ की तलाश है
जिस समन्दर के लिए हम दर -ब -दर ताउम्र भटके
पाके उसको भी कैसी यह प्यास है ....
वाकई यह प्यास जो न  चैन से रहने दे वह मृगतृष्णा सी ही प्यास है ....इस में दस कवि तृष्णाएँ कविता कर्म की उस इच्छा को समर्पित  हैं  जो हमेशा अतृप्त रहती हैं और इनको हम जानेंगे इनके इस संग्रह में लिखे के माध्यम से ...हर लिखने वाला कवि या कवियत्री के पास प्रेम विरह ,आस पास घटने वाली हर बात असर डालती है और वही मरीचिका बन कर उनके लफ़्ज़ों में ढल जाती है ...इस में भी लिखने वाली हर रचियता का माध्यम यही विषय रहे हैं ..अधिकतर लिखने वाले ब्लॉग जगत से ही जुड़े हैं ..कुछ पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं कुछ की कवितायें पहले भी पब्लिश हो चुकी हैं इस लिए कहीं कहीं यह मरिचिका बहुत चमकीली है और कहीं कहीं धुंधली हो गयी है .पर मरीचिका तो मरीचिका है दिल को पानी तरफ खींचेगी ही ....नीरज विजय की रचना ..
यही तो दर्शाती है
कुछ पाने की चाहत में
करते मन को घायल ये
पर क्या यही असली है कमाई
या ये मृगतृष्णा की है गहराई !!!
इनकी लिखी रचनाएं इनके सपनों को साकार करती हुई कहतीं है हर उम्मीद की किरण होंसलें की  लो जलाती है और इनकी रचनाओं में कुछ बहुत ही बेहतर हैं और कुछ अभी मासूम है जिन्हें पकने में थोडा वक़्त लगेगा ।
अभिषेक सिन्हा की रचनाओं में अभिनय करते मेरे शब्द हैं रचना बहुत ही बढ़िया है ..
ये शब्द एक दर्पण है
जो निज से सबको मिलाता है
उनके अस्तित्व का
ये दर्शन उन्हें कराता है
इनकी बेहतर रचनाओं में तू हमेशा पास रहती है और कांच के टुकड़े हैं
इस संग्रह की एक चमकीली मरीचिका के नाम में अर्चना नायडू का नाम महवपूर्ण है ..इनकी रचना आ अर्जुन ! अब गांडीव उठा ..झंझोर देती है ...निखरता है सोना ,अग्नि में तप कर
रंग लाती है मेहँदी ,पत्थरों में पीस कर
जीवन नाम है युद्ध का ,तू संघर्ष कर ..बहुत जीवन के सही अर्थों को समझाती है ....बरगद की छांव रचना रिश्तों के ताने बने पर बुनी एक सुन्दर रचना है जिस की छांव में माँ है पिता है और वह गांव प्यार का गांव है ।नारी व्यथा को दर्शाती एक सच्चाई रचना  की कुछ पंक्तियाँ
नहीं चाहती थी मैं
दहलीज की लक्ष्मण रेखाएं
वचनों की वर्जनाएं
फिर भी तुमने दी मुझे
सिर्फ सीमाएं ..यह रचना बहुत आएगी पढने वालों को ..साफ़ साफ़ शब्दों में नारी मन की बात इनकी कलम से बहुत सुन्दर ढंग से उतरी है कहीं मौन में ढल कर और कहीं स्वयं सिद्धा बन कर ..
रूह के  रिश्ते भी
जिस्मों से गुजर कर पूरे होते हैं ....यह  कहना है कुदरत प्रेमी डॉ प्रियंका जैन का ..इनकी लिखी रचनाये पढना बहुत ही रोचक लगा ..आज के वक़्त को यह बखूबी ब्यान कर रही है दिवाली की सफाई में बेच दिया इन्होने
थोड़ी सी मासूम हाथापाई
पुराने सिक्के
कुछ जूते के तस्में
कुछ यारों के टशन ..क्यों की मार्केटिंग वाले सब एक्सेप्ट करते हैं इस फेस्टिव सीजन में .....इनकी रचनाओं में शब्द आज की उस भाषा के इस्तेमाल हुए हैं जो हम अधिकतर बोलते हैं सुनते हैं ...जिस से हर रचना बहुत अपनी सी बात कहती लगती है ..इनको रचनाओं के कोई शीर्षक नहीं है ..नम्बर्स है सिर्फ जो और भी अधिक पढने वालों को रोचक लगते  हैं नंबर 13 की रचना पर हम पाते हैं कुछ और नम्बर 
यूँ ही दफअतन
दूसरे पहर उठती कभी
पुरवाई की तपिश से
पाती ढेरों मिस्स्ड कॉल्स
लिपटे थे उन 55 .60 .75 .80 .95 .99 कॉल्स  में
बेशुमार चाहत के नम एहसास ..
रजनी नैय्यर मल्होत्रा का नाम पढने वालों के लिए नया नहीं है ..इनके लिखे से बहुत से लोग परिचित हैं ...इनकी गजलो के अलफ़ाज़ दिल की जमीन से सीधे आपको खुद से रुबरु करवा देते हैं ..और कहते हैं पसंद आये तो दाद दे देना /यही है मेरे अशआर का इनाम
और आज का सच .. किताबों से उठ कर नेट पर आ गया /मीर हो या ग़ालिब का कलाम ...
एक सच और ...
जिनको चाह किये दोस्तों की तरह
वो बदलते रहे मौसमों की तरह

बाकी रचनाओं में इनकी रचना बेटियाँ कहाँ पीछे हैं बेटों से ..यह कहते हुए की जन्म नहीं कर्म भाग्य बनाता है /बेटों का भी और बेटियों का भी ...डॉ रागिनी मिश्र की रचनाओं में तुम प्रथम .आओ खेले भ्रष्ट -भ्रष्ट और हमारा आनलाइन प्रेम ...बहुत ही चमकीली रचनाएं है ....मेरी मृगतृष्णा में आखरी पंक्तियाँ बहुत जोरदार है ..
जीवन के बढ़ते क्रम में
मेरी प्रेमाग्नि भड़कती जाती है
होगी पूर्णाहुति इसमें ,तुम्हारी
या मेरी मृगतृष्णा बन जायेगी ?सवाल वाजिब है ..और बहुत गहरा  भी ..
रोशी अग्रवाल की रचनाएँ लिखी तो अच्छी है ..पर कहीं कही कहीं बहुत सपाट सी हैं .पढने में कुछ अलग हैं और प्रस्तुत करने का ढंग एक कहानी सा लगा ....कविता कम और बाते कहती सी अधिक लगी इन की रचनाएं .
विश्वजीत सपन ..इस संग्रह में बहुत सी विवधिता लिए से बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बातें सुनाते हुए लगे ..इनकी क्षणिकाएँ .हाइकु .मुक्तक बहुत ही बेहतरीन हैं इस संग्रह में ...
तुम तो जालिम हो
सामने आ कर गुजर जाती हो
कभी सोचा है तुमने
उस दिल का क्या होगा
जिसपे चल कर गुजर जाती हो

या यह ..करवट ले /नींदे तोड़ जाती हैं /यादें मुझको ....और एक हाइकु ..बहुत ही बढ़िया बात ...चुभन देता /अत्तित का दामन /छोड़ता नहीं !
सुमन मिश्रा ..की रचनाओं में मरीचिका पर लिखे हाइकु बहुत बढ़िया लगे ..बिलकुल मृगतृष्णा संग्रह को शब्द देते हुए ..
जल तलाश
तलाव कहीं पर हो
जीवन वहीँ !
सही कहा ..यही तो है सच ..इनकी बाकी रचनाएं अच्छी है ..कुछ तो बहुत ही गहरे भाव में उतरी हैं ..कहीं मन पंख सा उडता ,कहीं पत्थर सा भारी है ..में लिखी यह पंक्तियाँ
ये इश्क भी अजब बात है ,जब दूर है तब पास है
रिश्तों की अहमियत ही क्या किस किस को कहे ख़ास है
हेमंत कुमार दुबे की रचनाओं में प्रमुख रचना उनकी मृगतृष्णा ,तुम्हारे ख़त बहुत बेहतरीन लगी ..देश भक्ति पर लिखी इनकी रचनाएं जोश से दिल को भर देती हैं .सामजिक विषयों में नारी और जीवन संगिनी ने भी प्रभवित किया है
हर सुख दुःख की साथी
मेरी अन्तरंग सखी हो तुम
मन प्राण का आधार हो
जीवन संगिनी हो तुम ....सही परिभाषा है हमसफर की ...
जब इतने सारे लिखने वाले एक संग्रह से जुड़ते हैं तो विविधता हर रचना में आ जाती है ..इतने विचार अलग भाव और अलग लिखने के अंदाज़ ..जो कहीं कहीं बहुत बेहतरीन लगते हैं और कहीं कहीं खटक जाते हैं ....एक साथ संग्रह लाने में बहुत से वो लफ्ज़ .वो नाम और वो व्यक्तित्व भी पढने को मिल जाते हैं जो अनजान थे अब तक लेखन की दुनिया से ...यह अच्छा भी है और हिंदी भाषा के लिए बेहतरीन भी ..और मुझे लगता है कि  इस में हर लिखने वाला खुद ही अपने लिखे को आँक सकता है कि  वह कहाँ पर बेहतर है कहाँ कम है ....इन लिखी रचनाओं में आधुनिक जीवन की भागदौड़ के बिम्ब मौजूद है ...काव्य -कला चूँकि एक कुदरत का वरदान है और कोई नहीं जानता कि कब और किसके अंतर्मन रूपी कलश में "वो "कृपा उड़ेल दे और वो हमें इसी तरह संग्रह में पढने को मिलता रहे इस के लिए सम्पादक को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने नए लिखने वालों को मन और ह्रदय में विचार ,भाव ,सम्वेंदना और अनुभूति के भाव इस संग्रह में पिरोये हैं  वह जीवन के सच से परिचय करवाते हैं ठीक इसी संग्रह से ली गयी इन्ही पक्तियों सा सच ......

मन दौड़ता जाता है
वासनाओं के संग
गर्म रेतीले संसार में
जल के भ्रम में
जो मिलता नहीं
खो जाता है ....खो के फिर फिर मिलना ही जीवन कहलाता है और
पथिक मन
दूरियाँ तय कर
मरीचिका थी ..!!सुन्दर साज सज्जा से सजी साहित्य प्रेमी संघ के दस रचनाकारों की यह तृष्णा अपने कवर पेज पर दौड़ते हुए मृगों के साथ तलाशती मरीचिका आपके दिल को जरुर मोह लेगी |






Monday, October 08, 2012

मन के शब्द

यूँ ही बैठे बैठे
रेत पर उकेरते  -लिखते
कुछ शब्द
देख कर न जाने क्यों
दिल कांपने सा लगता है
 कि कहीं यह
थरथराती  उंगलियाँ
कहने न लगे
वो मन के शब्द
जो दिल की अंतस
गहराइयों में छिपे हैं
गहरे भीतर दूर कहीं
और मन है कि
मंडराता रहता है
उन्ही शब्दों के आस पास
उन्हीं से टकराते हुए
मन के भंवर
उन्ही शब्दों के अर्थ से
कतराते हैं ............
तब उन,
अर्थों की मौन भाषा
हम कहाँ ,कब समझ पाते हैं
जानते हैं कि देना पड़ता है
कुछ पाने से पहले
प्यार को शर्तों से तौल कर
सच की .......
अस्तित्वहीनता को ठुकराते हैं
पर जब जान ही लेते हैं
कि ज़िन्दगी
कभी चलती नहीं समानांतर
रेत पर फिर -फिर अनकहे निशाँ
बनाते हैं .................

Thursday, October 04, 2012

तस्वीर

हर सुन्दर तस्वीर
जो समेटे हुए हो
अपने में
कई रंग ...
कई एहसास
और एक
"मोनालिजा सी मुस्कान "
वह सच नहीं होती ....!!
तस्वीर के पीछे
छिपे दर्द को
पहचानने के लिए
दिल की
अंतस गहराई में
उतर कर .........
उसके अंदर के
ज्वालामुखी में
साथ ही जलना होगा
हर दहक,हर रोशनी
तक पहुँचने के लिए
तय शुदा रास्तों से
हट कर ही
सफर तय करना होगा ||

Tuesday, October 02, 2012

अकेला और बेबस


अपने मैं होने का
दंभ क्यों
कैसे
जहन पर
छा जाता है

सोते जागते
हँसते गाते
हर वक़्त बस
मैं ,मैं
का राग
यह दिल
अलापता है

किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक  हम बना
पाता है....

जैसे रात का
अस्तित्व भी
चाँद,तारों
जुगनू से
जगमगाता है

पर शायद
 चाँद भी
समझता है
ख़ुद को अहम
अपनी ही धुन में
खोया सा
घुलते घुलते
बस सिर्फ़ एक
लकीर सा
रह जाता है

और ........
तब चाँद
कितना अकेला
और बेबस सा
हो जाता है !!