Monday, November 11, 2013

कवितायें कभी लिखी नहीं जाती

कवितायें कभी लिखी नहीं जाती
वह तो जन्म लेतीं हैं
उस भूख से
जो मन के किसी
कोने में दबी हुई
कोई अतृप्त 
इच्छा है
या यह कोई
ऐसी भूख है जो
कहीं पनप रही है
आहिस्ता आहिस्ता
और उनको शांत  करने का
कोई माध्यम
 कहीं कोई
  नजर नहीं आता
वह फिर कलम से
बहती है आतुरता से
और  कहती अपनी बात
उन अनकही 
इच्छाओं से जो
अपनी बात कहने का
स्खलित होने का माध्यम        
तलाश कर लेती हैं
अपने ही किसी मन के द्वार से
पर रह जाती हैं
फिर भी अतृप्त  सी
और फिर उसको
कोई  शैतान  कोई खुराफात
कोई प्रेम आदि आदि
के लफ़्ज़ों में ढाल कर
अपनी बात कह देते हैं
 और..........
वही लिखा  हुआ
फिर कविता कहलाता है

7 comments:

Udan Tashtari said...

क्या बात है!!

दिगम्बर नासवा said...

कविता की उत्पत्ति तो तभी होती है ... जब मन में कोई संवेदना होती है ... प्रेम होता है ... सोचने की शक्ति होती है ...
सजीव कविता कह दि आपने ..

Misra Raahul said...

रंजू मैम काफी सही कहा आपने....और उसी चार आठ बारह पंक्तियों के सनयोजनों को लोग .... ग़ज़ल....मुक्तक...छंद....हाइकु....त्रिवेणी और जाने क्या क्या से नवाजते रहते खैर....इसी बीमारी के शिकार हम भी कुछ पंक्तियों से कभी अपने अतीत को झकझोरते तो कभी वर्तमान को टटोलते....चंद खामोश पंक्तियाँ आपका हमारे ब्लॉग पर इंतज़ार कर रही....
ब्लॉग:खामोशियाँ
www.khamosiyan.blogspot.in

Anju (Anu) Chaudhary said...

सही कहा आपने ...

Arvind Mishra said...

आह से उपजता गान

tanahi.vivek said...

शब्द कि इस मर्म को .... मैं यूँ समझ कर आ गया …
अल्फाज पढ़ के यूँ लगा .... खुद से ही मिल के आ गया ....

बहुत खूब ....

बहुत सालों से ऐसा नहीं पढ़ा। ।

प्रतुल वशिष्ठ said...

कवितायें कभी लिखी नहीं जाती
वह तो जन्म लेतीं हैं। …

@ तो टिप्पणियाँ जन्म नहीं लेतीं
वह तो अवतार लेती हैं
जब भी उसे दिखती है
कोई ऎसी अभिव्यक्ति
जो अशांत चित्त से निकली हो
लिपि, स्वर, रंग, हाव के आवरण में
मुक्त भाव से घूमती
आँखें नाक कान दिमाग
उसे फाँसने का रचते हैं षड़यंत्र
इस षड़यंत्र का ही साहित्यिक नाम 'टिप्पणी' कहाता है।