कुछ शब्द बुने और वह संग्रह का बने हिस्सा कुछ मेरी कलम से के ....और वह शब्द लोगो के दिल पर दस्तक कुछ इस तरह से देते रहे की उनकी गूंज मुझ तक एक दुआ बन कर आ रही है ...हर शब्द मेरी आँखे नम कर देता है और मैं बस शुक्रिया ..तहे दिल से शुक्रिया ही कह पाती हूँ सिर्फ ...
अशोक जेरथ ...बहुत ही स्नेहिल व्यक्तित्व ..जब से इन्होने मेरे लिखे पर कहना शुरू किया वह मुझ तक ज़िन्दगी की गहरे समुन्द्र में एक लाईट हाउस की तरह रास्ता दिखा जाता है ...न जाने कौन से जन्म के कर्जे होते हैं जो हम यूँ एक दूसरे से मिलते भी नहीं पर अजनबी भी नहीं हो पाते ..और बेझिझक अपनी बात कह जाते हैं ..अशोक जी वही है आदरणीय ,पूजनीय है मेरे लिए ...उन्होंने कुछ मेरी कलम से ...संग्रह पर जो अपनी कलम से कहा ...वह सिलसिला है खुद ही एक दुआ का ..
बचपन में टोबे के किनारे बैठे बच्चे खामोश तालाब में पत्थर फैंका करते थे ... एक अकेली आवाज़ होती थी ... गुडुम ... बस उसी आवाज़ जैसी खुछ आपकी कवितायें सुनी ...
पुरानी ' गुडुम ' से नया परिचय हुआ ... धन्यवाद ...
रंजू ...
रात बाल्टी के ऊपर नल ज़रा सा खुला रह गया ... कविताओं की बूँदें गिरती रहीं ... अनवरत ... नाम मिल गया ... कुछ मेरी कलम ... हर दिल में से निकली इन कविताओं को एक कवियत्री का नाम मिला ... रंजू भाटिया ...
कुछ कवितायें घाटी की कोयल कीउस गूँज जैसी भी है जिनकी आवाज़ नहीं केवल गूँज सुनाई देती है ... मसलन ... ' तेरे ख्यालों में हम ' ... न सुने उसकी लौटती सी गडमड हुई गूँज सुने ... दूर से आती गूँज मात्र ... जो नक्षत्रों से टकरा कर उनको भी लिवा ला रही हो ... आपने क्या ऐसी ही लिखी थीं ये कवितायें ... रंजू ...
हमने कुछ ऐसी कहानिया इससे पहले भी पढ़ी है ... रेखा भुवन , या रायना मिशा के चले जाने के बाद केलेंडर के चित्र देर तक दीवारों पर लटके हवा में फडफडा कर अपने होने का एहसास कराते रहे ...
दूर जाता हुआ दरियाई जहाज़ जाते जाते दीवार की लटकी तस्वीर हो जाए ... और बस हुआ रहे ... हमने किसी को एक बार एक कदम उठाते देखा था ... पैर आज भी हवा में उठा नज़र आता है लौट कर ज़मीं पर नहीं आया ... आप ऐसी कवितायें लिखने में माहिर हैं ...
पकड़ ली न आपकी खूबी ... !
रंजू ...
एक गहरा सा ऊदा ऊदा सा एहसास हर बयान में से बाहर आ चहलकदमी करने लगता है ... क्या मन इसी रंग का है ... क्योंकि बात बनाई हुई नहीं लगती ... सुच्ची लगती है ... कुछ बातें खामोश होती हैं और कुछ खामोश करती रहती हैं और कुछ दूसरी खामोश कर जाती है ...
कभी कभी ऐसा भी लगता है जैसे ओझल हुआ जेट धुंए की लंबी सी ट्रेल छोड़ चला गया है ... क्या किसी कविता की लंबी सी पूंछ भी है ... जैसी धूमकेतु की होती है... क्या एक निश्चित अवधि के बाद कोई कविता फिरसे अपनी याद कराती लौट आएगी ...
पढ़ रहे हैं ... सोच रहे हैं ... नहीं ... महसूस कर रहे हैं ...अशोक जेरथ
इस के बाद कुछ खुद कहने को नहीं रह जाता ..आँखे डबडबा जाती हैं और सर नतमस्तक हो जाता है ...खुद बहुत ही अच्छा लिखते हैं अशोक जी ..उनका लिखा गहराई में डूबा हुआ होता है और जब उन्होंने कुछ मेरी कलम से के बारे में अपनी कलम से कहा तो ....बस अब कुछ बाकी रहा ही नहीं कहने को ..शुक्रिया शुक्रिया आपका आशोक जी तहे दिल से ...........:)
अशोक जेरथ ...बहुत ही स्नेहिल व्यक्तित्व ..जब से इन्होने मेरे लिखे पर कहना शुरू किया वह मुझ तक ज़िन्दगी की गहरे समुन्द्र में एक लाईट हाउस की तरह रास्ता दिखा जाता है ...न जाने कौन से जन्म के कर्जे होते हैं जो हम यूँ एक दूसरे से मिलते भी नहीं पर अजनबी भी नहीं हो पाते ..और बेझिझक अपनी बात कह जाते हैं ..अशोक जी वही है आदरणीय ,पूजनीय है मेरे लिए ...उन्होंने कुछ मेरी कलम से ...संग्रह पर जो अपनी कलम से कहा ...वह सिलसिला है खुद ही एक दुआ का ..
बचपन में टोबे के किनारे बैठे बच्चे खामोश तालाब में पत्थर फैंका करते थे ... एक अकेली आवाज़ होती थी ... गुडुम ... बस उसी आवाज़ जैसी खुछ आपकी कवितायें सुनी ...
पुरानी ' गुडुम ' से नया परिचय हुआ ... धन्यवाद ...
रंजू ...
रात बाल्टी के ऊपर नल ज़रा सा खुला रह गया ... कविताओं की बूँदें गिरती रहीं ... अनवरत ... नाम मिल गया ... कुछ मेरी कलम ... हर दिल में से निकली इन कविताओं को एक कवियत्री का नाम मिला ... रंजू भाटिया ...
कुछ कवितायें घाटी की कोयल कीउस गूँज जैसी भी है जिनकी आवाज़ नहीं केवल गूँज सुनाई देती है ... मसलन ... ' तेरे ख्यालों में हम ' ... न सुने उसकी लौटती सी गडमड हुई गूँज सुने ... दूर से आती गूँज मात्र ... जो नक्षत्रों से टकरा कर उनको भी लिवा ला रही हो ... आपने क्या ऐसी ही लिखी थीं ये कवितायें ... रंजू ...
हमने कुछ ऐसी कहानिया इससे पहले भी पढ़ी है ... रेखा भुवन , या रायना मिशा के चले जाने के बाद केलेंडर के चित्र देर तक दीवारों पर लटके हवा में फडफडा कर अपने होने का एहसास कराते रहे ...
दूर जाता हुआ दरियाई जहाज़ जाते जाते दीवार की लटकी तस्वीर हो जाए ... और बस हुआ रहे ... हमने किसी को एक बार एक कदम उठाते देखा था ... पैर आज भी हवा में उठा नज़र आता है लौट कर ज़मीं पर नहीं आया ... आप ऐसी कवितायें लिखने में माहिर हैं ...
पकड़ ली न आपकी खूबी ... !
रंजू ...
एक गहरा सा ऊदा ऊदा सा एहसास हर बयान में से बाहर आ चहलकदमी करने लगता है ... क्या मन इसी रंग का है ... क्योंकि बात बनाई हुई नहीं लगती ... सुच्ची लगती है ... कुछ बातें खामोश होती हैं और कुछ खामोश करती रहती हैं और कुछ दूसरी खामोश कर जाती है ...
कभी कभी ऐसा भी लगता है जैसे ओझल हुआ जेट धुंए की लंबी सी ट्रेल छोड़ चला गया है ... क्या किसी कविता की लंबी सी पूंछ भी है ... जैसी धूमकेतु की होती है... क्या एक निश्चित अवधि के बाद कोई कविता फिरसे अपनी याद कराती लौट आएगी ...
पढ़ रहे हैं ... सोच रहे हैं ... नहीं ... महसूस कर रहे हैं ...अशोक जेरथ
इस के बाद कुछ खुद कहने को नहीं रह जाता ..आँखे डबडबा जाती हैं और सर नतमस्तक हो जाता है ...खुद बहुत ही अच्छा लिखते हैं अशोक जी ..उनका लिखा गहराई में डूबा हुआ होता है और जब उन्होंने कुछ मेरी कलम से के बारे में अपनी कलम से कहा तो ....बस अब कुछ बाकी रहा ही नहीं कहने को ..शुक्रिया शुक्रिया आपका आशोक जी तहे दिल से ...........:)
8 comments:
वहाँ पगडंडी के मोड पर एक पुलिया है ... उस पर बैठना अच्छा लगता था ... जालंधर छोड़ा तो पुलिया भी छूट गयी ... आपकी पुस्तक को ले पल भर आँखें मूंदी तो वही पुलिया नज़र आई ... मुस्कुराने लगी ... हवा के झोंके ने धूल हटा दी ...
‘इसे भी यहीं बैठ कर पढ़ो ...’ हम वहीं बैठे और बैठे ही रह गए ... कई तस्वीरें उभरी जिनके हाथों में यादों की तस्वीरों के हाथ थे ... एक हलकी उदास शाम घिर आई ... उदास झुट्पुटे , उदास गर्मी के बादल , उदास रुआंसे जाडे ...
रंजू की कविताओं के अपने मौसम हैं ... एक अपना ही माहौल ... एक बार उस माहौल में पहुँच जाओ तो बाहर निकल आने पर भी वह माहौल बना रहता है ...साथ साथ चलता है ... चलता ही रहता है ... क्या ये किसी उदास प्यार की बातें हैं ... या फिर उदास बातों का प्यार है ...
रंजू से कुछ बातें भी हुईं ... उनके अमृतसर जाने की पुलक को नाचते हुए मेह्सूस किया ... उनकी लखनऊ की तस्वीरों में उनके स्कूल के समय को पकड़ा ... रंजू कहती हैं ... खूब कहती हैं ... बस कहती ही रहती है ... क्या ‘ कहती सरिता ‘ भी हो सकता है उनका नाम ... वे अमृता के खत कहती है ... पल्लू से बंधे कीमती मोती गांठें खोल खोल लुटाती हैं ... उन्हें रंजना नहीं केवल रंजू ही होना चाहिए ...
आप कहिये ... जी भर कहिये ... स्तब्ध समां सुन रहा है ...
रंजू तुम्हारे किताब की यह प्रति कहाँसे मिलेगी ...तुरंत बताओ ....अब और इंतज़ार नहीं होगा
बड़ी ही रोचक व सुन्दर समीक्षा..
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार26/2/13 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है
ऐसे दुआओं का खजाना आपके साथ हर समय रहे, बस यही दुआ है हमारी....
जितना अच्छा आपने लिखा है उतनी ही अच्छी समीक्षा है ...
जितना सुंदर काव्य उतनी ही सुंदर प्रतिक्रियाएं । आप ऐसी ही तारीपें पाती रहें । आपका हक बनता है ।
कलम का जादू बखूबी चल रहा है ... शुभकामनाएँ
सादर
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