Monday, January 07, 2013

सर्द ठंडी रातों में

सर्द ठंडी रातों में
 नग्न अँधेरा
एक भिखारी सा
यूं ही इधर उधर डोलता है
 तलाशता है
एक गर्माहट
 कभी बुझते दिए की रौशनी में
कभी कांपते पेडों के पत्तों में
 कभी खोजता है
 कोई सहारा टूटे हुए खंडहरों में ,
या फ़िर टूटे दिलों में
 कुछ सुगबुगा के
 अपनी ज़िंदगी गुजार देता है
यह अँधेरा कितना बेबस सा
यूं थरथराते ठंड के साए में
बन के याचक सा वस्त्रों से हीन राते काट लेता है !!

#रंजू

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

तन की गर्मी से जूझ रहा है शीत लहर को।

सदा said...

बिल्‍कुल सच कहा आपने ... बेहतरीन

आशा बिष्ट said...

achhe shbd

ANULATA RAJ NAIR said...

सिहर गए पढ़ कर...

सस्नेह
अनु

सूर्यकान्त गुप्ता said...

मेरी समझ में एक गरीब इंसान की मजबूरियों को "अँधेरे" के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है शायद ...बहुत सुन्दर रचना।

Maheshwari kaneri said...

बहुत सुन्दर..

सु-मन (Suman Kapoor) said...

उफ़ ...बेहद सुंदर