Wednesday, November 28, 2012

क़ब्रों में बंद आवाज़े

क़ब्रों में बंद आवाज़े
यदि बोल सकती तो
पूछती उनसे
क्या वाकई
मिलता है दिली सकून
यहाँ भीतर
बिना किसी आहट
के एहसास में जीना
और खुद से ही घंटों बाते करना
सवाल भी खुद और
जवाब भी खुद ही बनना
और क्या यह वाकई
अलग से उस एहसास से
जो मैं यहाँ चलते फिरते
हुए महसूस किए करती हूँ ?

Wednesday, November 21, 2012

आज नन्हा मोशा फिर से याद आया

नन्हे मोशे के साथ आज २६ /११ के मासूम लोगों को भी न्याय मिला होगा इसी उम्मीद के साथ ..........आज कसाब को मिली फांसी के बाद  ,मुझे अपनी यह २६ /११ ..पर   लिखी कविता याद आई

हम गुनाहगार है तुम्हारे
नन्हे मोशे ...
तुम कितने विश्वास के साथ
मेहमान बन कर आए थे
भारत की जमीं पर ...
नन्ही किलकारी ने
अभी देश ,भाषा के भेद को नही समझा था
अभी तो नन्हे मोशे
तुम जानते थे सिर्फ़
माँ के आँचल में छिपना
पिता का असीमित दुलार

नही जाना था अभी तो तुमने
ठीक से बोलना और चलना
डगमग क़दमों से
अभी दुनिया की झलक को
सिर्फ़ माँ पिता के रूप में देखा था
अभी तो तुम समझ भी न पाए होगे
बन्दूक से निकलती गोलियों का मतलब
न ही तुम्हे याद रहेगा
अपनी माँ के चेहरे का वह सहमा पन
पिता की हर हालत में तुम्हे बचा लेने की कोशिश
और न ही याद रहेगा तुम्हे उनका तुम्हे बचाते हुए
चुपचाप कभी न उठने के लिए सो जाना

शायद तुमने रो रो कर अपनी माँ को उठाया होगा
दी होगी पिता को आवाज़ भी कुछ खाने के लिए
पर सिर्फ़ शून्य हाथ आया होगा
कैसे तुमने
उन बदूंक के साए में गुजारे होंगे
वह पल अकेले
कैसे ख़ुद को उस
नफरत  की आग से बचाया होगा

तुम्हारा मासूम चेहरा
तुम्हारे बहते आंसू
तुम्हारी वो तोतली बोली
माँ बाबा को पुकारने की आवाज़
उन वहशी दरिंदो को ना ही  सुनाई दी
और न ही सहमा पायी

पर .....
हम कभी  नही भूलेंगे कि
" अतिथि देवो  भव "
कहे जानी वाली  धरती पर
   तुमने अपने जीवन के सबसे
अनमोल तोहफे और
भविष्य  के आने वाले
 सब अनमोल पल खो दिए

हम गुनाहगार है तुम्हारे
नन्हे मोशे ............पर आज जहाँ कहीं भी तुम हो ..तुम्हारे साथ हम सब के लिए भी आज का दिन बहुत ख़ास है .........

Monday, November 19, 2012

प्रीत की रीत

प्रीत की रीत (शब्दों की चाक पर  का विषय )

जब तुम्हारे दिल में मेरे लिए प्यार उमड़ आये,
और वो तुम्हारी आँखो से छलक सा जाए.......
मुझसे अपनी दिल के बातें सुनने को
यह दिल तुम्हारा मचल सा जाए..........
तब एक आवाज़ दे कर मुझको बुलाना
दिया है जो प्यार का वचन सजन,
तुम अपनी इस प्रीत की रीत को निभाना ............

तन्हा रातों में जब सनम
नींद तुम्हारी उड़ सी जाये.......
सुबह की लाली में भी मेरे सजन,
तुमको बस अक़्स मेरा ही नज़र आये......
चलती ठंडी हवा के झोंके ....
जब मेरी ख़ुश्बू तुम तक पहुंचाए .
तब तुम अपना यह रूप सलोना ....
आ के मुझे एक बार दिखा जाना
दिया है जो प्यार का वचन साजन
तुम अपनी इस प्रीत की रीत को निभा जाना

बागों में जब कोयल कुके.....
और सावन की घटा छा जाये.......
उलझे से मेरे बालों की गिरहा में.....
दिल तुम्हारा उलझ सा जाये .....
आ के अपनी उंगलियो से....
उस गिरह को सुलझा जाना
जो हो तुम्हारे दिल में भी कुछ ऐसा.....
तब तुम मेरे पास आ जाना

पहले मिलन की वो मुलाक़ात सुहानी.....
याद है अभी भी मुझको
तुम्हारी वो भोली नादानी.
मेरे हाथो में अपने हाथो को लेकर ........
गया था तुमने जब प्यार का गीत सुहाना
हो जब तुम्हारे दिल में भी ऐसी  यादो का बसेरा....
तब तुम अपनी प्रीत का वचन निभाना

जो हो तुम्हारे दिल में कुछ ऐसा
तब तुम मुझ तक साजन आ जाना ..

Friday, November 16, 2012

कैसा होमोसेपियंस?


कैसा होमोसेपियंस ?(कविता-संग्रह)

मूल्य- रु 150
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046) इन्फीबीम पर खरीदने का लिंक

मेरे अन्दर सीलन ....थी भी?
मुझे याद नहीं
जब से देखा है...खुद को
ऐसा ही पाया है
चेहरा नम होता है
और आंखें खाली... बदन गीला रहता है
और जेहन खाली न जाने कब..
किस हादसे में...?
क्या बह गया है....
कमबख्त....आंखों से लहू के सिवा
कुछ उतरता ही नहीं !

अभिषेक पाटनी की लिखी यह पंक्तियाँ उनके परिचय के साथ जब पढ़ी थी तो ही वह विशेष लगी थी और जब उनका संग्रह कैसा होमोसेपियंस पढ़ा तो उत्सुक हुई यह जानने के लिए कि आखिर इसका नाम इस तरह का क्यों रखा गया ? हिंदी कविता का संग्रह और नाम वैज्ञानिक ?जो विज्ञान में रूचि रखते हैं उनके लिए यह नाम नया नहीं हो सकता है पर हिंदी कविता संग्रह के लिए यह नाम जरुर कुछ अनोखा लगता है ..इस का जवाब भी अभिषेक पाटनी ने अपने संग्रह में लिखे दो शब्दों में बहुत खूबसूरती से लिखा है की ...यकीन मानिए ,मैंने बहुत कोशिश की लेकिन दिन ब दिन बदलती इस दुनिया को जिस तरह से मैंने समझा और झेला ,उसके बाद मुझसे इस से सामान्य कोई शीर्षक सूझा  ही नहीं ?" इस संग्रह में जितनी कवितायें हैं सबके विषय वस्तु में आज का इंसान है यानी आधुनिक इंसान और साथ में हैं उस इंसान की बनायी तमाम सरंचना ,फिर चाहे वह रिश्ते हों या समाज |
विज्ञान की नजर में इंसान भी बाकी दूसरे जानवरों की तरह महज एक जीव मात्र है ..होमोसेपियंस .फिर भी भौतिकता और विकास का हवाला दे कर इसको बाकी जानवरों से अलग दिखाने की बताने की कोशिश की जाती है एक ही इंसान में अच्छे बुरे तमाम दोनों तरह के लक्ष्ण  नजर आते हैं और इस में लिखी हर कविता इसी बात को बताती है ..
हाँ, यही बताई थी
उसने अपनी जाति
तिस पर,
नेताजी ने चेहरे पर
बिना भाव बदले
उसे लताड़ा था --
’अरे तू कैसे हो गया होमो सेपियंस ?
फिर हम क्या हैं ?
कुछ पता भी है
समाज के प्रबुद्ध लोग कहलाते हैं—
होमो सेपियंस !’

अभिषेक पाटनी के लिखे इस संग्रह में उन्होंने हर कविता इस तरह से लिखी है जो आज के समाज पर करारा व्यंग करती है और उसकी सच्चाई को बखूबी ब्यान करती है इनकी लिखी कविताओं में संवेदना बहुत ही सूक्ष्म रूप से ब्यान हुई है उन्हें यह हुनर आता है कि इस संवेंदना को कैसे कलम से उतरना है
अलग अलग तरीके से
सब मरते हैं
कई कई बार
बड़ा हो या छोटा
सब जीते हैं

मरने के साथ ..उनकी लिखी यह पंक्तियाँ हमारे आस पास की सच्चाई है जो ब्यान हुई है आज की ज़िन्दगी में कैसे हम जीते हैं ...अभिषेक जी के बारे में ही उनके इस संग्रह में पढ़ा कि  वह बचपन में हकलाते थे दूसरे लोग मजाक बनाते फिर अपने भी हंसने लगे |यह बात उन्हें और उनकी माँ को बहुत तकलीफ पहुंचाती थी  लेकिन माँ ने उन्हें इस रास्ते से उबरने का रास्ता तलाशने को कहा और वह अपनी  बात लिख के कहने लगे और इस से उन्हें कई बार नुकसान  भी हुआ अधिक चुप रहने के कारण पर फायदा अधिक  हुआ कम से कम वह अपनी बात अब लिख कर कह सकते  थे और वही उनकी पहचान भी है
मेरी आवाज़ में गहराई है
सदियों की ख़ामोशी
टूटती है इनसे
मैं हकलाता भी हूँ
टोकने से पहले
मुझे दबाया जाता है
अब इन दो विलक्षणताओं से सधी
मेरी आवाज़
कैसी भी है
मेरी पहचान है !!
और यह पहचान मुझे बहुत पंसद आई इनकी .बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो इस तरह से अपनी बात को यह अंदाज़ दे पाते हैं और अपने मन की आवाज़ को बुलन्द करते हैं अपने लिखे से ..
अभिषेक 'पत्रकारिता व जन्सम्प्रेषण' में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से  स्नात्कोत्तर हैं |इन्हें २००७ में राँची स्थित स्पेनिन संस्था द्बारा 'स्पेनिन सृजन सम्मान से सम्मानित किया गया है और तमाम हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ व निबंध प्रकाशित हो चुके हैं|जो बात वह जुबान से न कह सके वह उनकी कविता में उनकी ताकत बन कर उतरी और लोगों ने उनको पढना पसंद करना शुरू किया |
देखे थे सपने एक कस्बे ने
की वो शहर हो गया
दोड़ता रहा वो सालों
उस सपनों के पीछे
आखिर रंग लायी उसकी उर्जा
रोशन हुआ वह कस्बा
और शहर हो गया !
सपने सबकी आँखों में सजते हैं और वह रंग भी लाते हैं पर इन सपनों को लाने के लिए पूरा करने के लिए कुर्बानी भी देनी पढ़ती है और दर्द भी सहना पड़ता है तब कलम लिखने लगती है
  ऐसी ज़िन्दगी दे डालो
कि हर कोई खुद को पैदा करे
खुद को जीए
अपने ही रिश्ते के लबादे में पलता रहे
और अंत खो जाए बचा लो चाहते हो
गर खुदाई की खुदाई सलामत
हर कुछ ,हर शय,या खुदा
बसा बदल डालो !!

पर बदला जाना क्या इतना आसान है न जाने इस में कितने दर्द कितनी सिसकियाँ छिपी हुई हैं ..
खुद को सुलझाने की आस में
और उलझ जाने की
बेबसी
हालत से
हारते रहने का खौफ

पता नहीं और क्या क्या ..?यह दर्द छिपाया जाता है सिसिकयों में ...उनकी  लिखी रचना सिसकियाँ बहुत बेहतर तरीके से इस बात को दर्शाती है और तब एक मुखोटा ओढ़ लेते हैं  जिसको व्यवस्था नाम दे देते हैं खुद से ही
एक मुखोटा
महज ओढ़ लिया गया है
एक ढोंग की तरह
एक दिखावे की तरह
नहीं तो कुछ भी नहीं ऐसा
जो हो रहा है कहीं भी
न जाने फिर भी कैसे
हर कुछ नजर आता है
एक व्यवस्था के तहत !!

इनकी इन्ही रचनाओं में वेश्या कविता की पंक्तियाँ दिल में एक अजीब सी सनसनाहट पैदा कर देती हैं
जिस दिन उसे
कोई ग्राहक नहीं मिलता
वह सोती है
अपने पति के साथ
अपने पति की
प्यास बुझाने में
हर बार उसे
अलग से एहसास होते
कई बार बेगार का मलाल
कई बार कल की चिंता
कई बार पैसे की कमी ..
और भी न जाने क्या क्या ..
पर प्यार
शायद कभी ..
शायद कभी नहीं !और
यही उसकी ज़िन्दगी जीने का जरिया है .जिस का कोई उसको मलाल नहीं ..ज़िन्दगी उसको इसी तरह से नए रूप में रोज़ ढाल कर अपने सामने खड़ा कर देती है ..बहुत कड़वा सच है इन पंक्तियों में |जो यूँ अपनी कलम से उतारना हर किसी एक लिए शायद सहज न हो | उनका यह संग्रह तीन भाग में बंटा है
यह रचनाये थी इनके कैसा होमोसेपियंस के उस भाग से जहाँ अभिषेक दुनिया को अपनी नजर से देख रहे हैं और बहुत सुन्दर ढंग से अपनी बात कह भी गए हैं इनके संग्रह के दूसरे भाग में वहम ..में हैं मैं और मेरी बातें जो बहुत ही बेहतरीन हैं
घर
गांव का अच्छा था
भली थी मिटटी की दीवारें
करके सुराख
कहीं से हो सकती थी
किसी से बात ...स
च कितना सही लिखा है ..वह घर वाकई घर कहलाता होगा आज के वक़्त में जब घर में रहने वाले ही बात नहीं करते हैं
एक पल तुम्हारी छावं में
बैठने की आस में
न जाने कब तक बैठा रहा
तुम आये भी
तुमने दामन फैलाया भी
लेकिन वह छाँव कहीं नहीं थी .
उनके लिखे इस भाग में आसमाँ कैसे कैसे ?अम्मा के सपने और परवरिश न भूलने वाली रचनाएं हैं
कुछ चीजे शायद कभी न हो
अम्मा के चेहरे पर हँसी
हमारा लहलहाता खेत
और अम्मा के पूरे सपने
.. ..बहुत असलियत से भरे हुए हैं यह शब्द ...और परवरिश रचना में ब्यान है दर्द उन परम्पराओं का जो अब हम सब कहीं पीछे छोड़ते आ रहे हैं ...
माँ बुलाया करती थी
हर "छठ" में घर ............विश्वास हो या न हो माँ से मिलने का यह बहाना था जिस में घर जाने का मौका मिल जाता था ..पर आज का वक़्त कितना बदल गया है ...
हमारा बेटा विदेश में रहता है
और पिछले सात सालों से
एक बार भी नहीं आया
कभी कभार
फोन से बातें कर लेता है
वह भी अंग्रेजी में  

कई बार बोलता हूँ आने को
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का
........यह आज के वक़्त की वह सच्चाई है जो हम सब जानते हैं ..भागम भाग लगी है .सब कुछ कहीं पीछे छुटा जा रहा है
कितने आंसू का अर्ध्य
कितने सिसकियों का तर्पण
कितने भावों की हवी
कितने संबंद्दों की बलि चाहती है --समृद्धि ..?


तीसरा भाग है इस संग्रह में गिलहरियाँ ..कुछ यहाँ कुछ वहाँ की ..चंद पंक्तियों में कही गयी यह रचनाएं बेहद प्रभाव पूर्ण तरीके से अपनी बात कहती है वाकई कुछ यहाँ से हैं कुछ वहां से ..कुछ कच्ची सी भी है और कुछ गहरी भी ...फिर भी प्रभावित करती हैं ...
माँ ने ख़्वाबों का
बगीचा बना रखा है
वहीँ से हर रोज़
तोड़ लाती है
होंसलों के फल .........
.......इस से अधिक बेहतरीन ढंग से इस बात को और कैसे व्यक्त किया जा सकता है ..
दरवाज़े पर दस्तक होगी और बेटा
अपने जूते उतारता हुआ बोलेगा -
"आज बहुत थक गया हूँ "
वृद्धाश्रम की हर वृद्धा हर वक़्त इसी आस में
एक ही और देखती है ..............

हमारे आस पास सब कुछ बहुत तेजी से बदल रहा है और हम सब तेजी से बस भागे चले जा रहे हैं अभिषेक जी की लिखी रचनाएं वही बदलाव को ले कर लिखी गयीं है |उनकी लिखी रचनाओं में अपन आस पास को ले कर लिखा गया है जो हम सबसे जुड़ा हुआ है शहर गांव .माँ बहन समाज सब का दर्द है इन रचनाओं में |यह आज के युवा आक्रोश है ,इस में एक तड़प भी दिखती है और एक आग भी ..बदलने की चाह भी है तो सहम जाने का ठहराव भी ..जो कहीं कही जोश में भर कर कहा गया हुंकारा भी है जो उड़ान तो भरता है पर कहीं ठहर भी जाता है फिर भी वह  अपनी बात कह गया है ..बदलाव आयेगा यदि यही सोच रही आने वाली युवा पीढ़ी की  तो बदलेगा ज़िन्दगी को समझने का ढंग भी |   ..इस संग्रह में समाज, परिवार से जुडी तो कई बातें है पर प्रेम प्रसंग के लिए कहीं कोई जगह नहीं है .और इतने युवा कवि के संग्रह में यह बात कुछ अनोखी सी लगती है ..इसी तर्ज़ पर शायद और भी गम है ग़ालिब जमाने में मोहब्बत के सिवा :).या शायद पहले संग्रह में अभी आक्रोश को जगह मिली है और बाद में प्रेम को जगह मिले ,जैसे किसी बरसात के बाद हुई  शान्ति ....इनके यदि अगले आने वाले अंक में हम इस के बाद उमड़ने वाले प्रेम को भी पढ़ पाए तो बहुत बेहतर होगा| क्यों की मन तो छलिया है और कलम उसको कह देने का माध्यम
कभी लिखा करता था
अपनी संतुष्टि के लिए
आज कल लिख रहा हूँ
खुद को छलने के लिए!!!

Wednesday, November 14, 2012

तुम तो हो उस पार सजन

तुम तो हो उस पार साजन
मैं कैसे तुम तक आऊं
बीच में यह दुनिया सागर सी
तिल तिल  जलती जाऊं

चातक सी तृष्णा लिए मन में

बदरा की आस लगाऊं
कैसे नापूं सीमा विरह की
कैसे प्यार मैं पाऊं
दिल में अथाह सागर आंसूं का
पर सूखे पीड़ा में भरे लोचन
कैसे बेडा पार लगाऊं
मंज़िल पल पल मुझे पुकारे
 मिलन की नित्य मैं आस लगाऊं

अल्हड मन अनहद गीत स्वर
दर्द का नया गीत बुन जाऊं
करवटों में बीती रतियां
तुम में मैं खो जाऊं

थक गए हैं मन के पखेरू
बोझिल सी हो गई है साँसे
गीत गुजरिया  बना बंजारिन
 मदहोशी  सह  न  पाऊं
कैसे अपना नीड़ बसाऊं
कैसे मैं तुझ तक आऊं
तुम तो हो उस पार सजन
विरह की अग्न से जल जल जाऊं.........

Monday, November 12, 2012

जगमगाते दीप

यादे हैं
लहराते
काले दुप्पटे पर
इठलाती
सितारों सी झिलमिलाती
या
आँगन में खिलखिलाते

जगमगाते दीप !!.









 दीप जैसे
नभ के तारे
आज घर के
गले  में डाले

.#..शुभ दीपावली :)

Saturday, November 10, 2012

खुद की तलाश

खुद की तलाश  (कविता-संग्रह)
कवियत्री रश्मि प्रभा
मूल्य- रु 150

प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)

"मैं "के बंधन से मुक्ति ही खुद की तलाश है ...ऐसा परिभाषित करती और मुक्तसर शब्दों में बात कहती यह पंक्तियाँ है रश्मि प्रभा जी के संग्रह खुद की तलाश में लिखे अपने व्यक्तव की खुद रश्मि प्रभा जी के ही शब्दों में ...खुद की तलाश हर किसी को होती है |बचपन में हम झांकते हैं कुएँ में ,जोर से बोलते हैं ,पानी से झांकता चेहरा बोली की प्रतिध्वनी पर मुस्कराना खुद को पाने जैसा प्रयास और सकून हैं ...रश्मि जी के लिखे यह शब्द अपने लिखे का परिचय और खुद उनका परिचय देते हैं |उनके संग्रह के बारे में कुछ लिखने से पहले रश्मिजी के बारे में जान लेना जरुरी है ..
यह तलाश क्या है ,क्यों है
और इसकी अवधि क्या है
क्या इसका आंरम्भ स्रष्टि के आरम्भ से है
या सिर्फ यह वर्तमान है
या आगत के स्रोत इस से जुड़े हैं .....
...ऐसे ही कितने प्रश्न है जो हम खुद से ही कितनी बार करते हैं और अपनी खोज में लगे रहते हैं [और तलाश नहीं पाते खुद को खुद में ही ..खुद से लगातार बाते करना ही इस खोज को कुछ सरल जरुर कर देता है और यही कोशिश  रश्मि जी के लिखे इस संग्रह में दिखी है ...उनके ब्लॉग पर लिखे शब्द भी उनकी इसी तलाश का परिचय देते हैं

शब्दों की यात्रा में, शब्दों के अनगिनत यात्री मिलते हैं, शब्दों के आदान प्रदान से भावनाओं का अनजाना रिश्ता बनता है - गर शब्दों के असली मोती भावनाओं की आँच से तपे हैं तो यकीनन गुलमर्ग यहीं है...सिहरते मन को शब्दों से तुम सजाओ, हम भी सजाएँ, यात्रा को सार्थक करें....कवि पन्त के दिए नाम रश्मि से मैं भावों की प्रकृति से जुड़ी . बड़ी सहजता से कवि पन्त ने मुझे सूर्य से जोड़ दिया और अपने आशीर्वचनों की पाण्डुलिपि मुझे दी - जिसके हर पृष्ठ मेरे लिए द्वार खोलते गए . रश्मि - यानि सूर्य की किरणें एक जगह नहीं होतीं और निःसंदेह उसकी प्रखरता तब जानी जाती है , जब वह धरती से जुड़ती है . मैंने धरती से ऊपर अपने पाँव कभी नहीं किये ..... और प्रकृति के हर कणों से दोस्ती की . मेरे शब्द भावों ने मुझे रक्त से परे कई रिश्ते दिए , और यह मेरी कलम का सम्मान ही नहीं , मेरी माँ , मेरे पापा .... मेरे बच्चों का भी सम्मान है और मेरा सौभाग्य कि मैं यह सम्मान दे सकी . नाम लिखने लगूँ तो ........ फिर शब्द भावों के लिए कुछ शेष नहीं रह जायेगा .." यह तलाश के उस पडाव राह है जहाँ रश्मि जी के लिखे से पहले पहल मुलाक़ात हुई और फिर उनके साथ उनके लिखे के साथ खुद की तलाश और इस के बाद उनके लिखे के बारे में जान पहचान के बाद उनके लिखे को और गहरे में पढने की उत्सुकता जाग जाती है ..
खुद की तलाश हिन्द युग्म द्वारा प्रकाशित हैं और उनका यह  काव्य संग्रह पंद्रह तलाश पत्री में लिखा हुआ है हर भाग अपनी तलाश में खुद पढने वाले को भी तलाश की राह दिखाता जाता  है |और अपना सफ़र तय करता जाता है पढने वाले को संग लिए हुए |एक लड़की की ज़िन्दगी अधिकतर चिड़िया सी होती है इस बात को कवियत्री ने बहुत सुन्दर शब्दों में कहा है
चिड़िया देखती है अपने चिडों को
उत्साह से भरती है  .ख्वाब सजाती है चहचहाती हैं
कुछ उड़ानें और भरनी है
यह कुछ अपना बल है
फिर तो
हम जाल ले कर उड़ ही जायेंगे ...यह उड़ान सिर्फ शब्दों की ही नहीं ,कवियत्री मन की भी है ,जो उड़ना चाहती है सुदूर नीले गगन में ..बिना किसी रुकावट के .
....इसी खंड में उनकी एक और रचना
जब मासूम ज़िन्दगी अपने हाथो में
अपनी ही शक्ल में मुस्कारती है

तो जीवन के मायने बदल जाते हैं ...सीख देना ,बड़ी बातें कहना बहुत आसान लगता है ,जब तक हम खुद उस मुश्किल हालत से नहीं गुजरते और जब ज़िन्दगी अपनी गोद से उतर कर चलना सीखती है तो ज़िन्दगी को एक नए नजरिये से देखने लगती है
यही तलाश फिर दूसरे भाग में रिश्तों की तलाश में शामिल हो जाती है |जिस में सबसे प्रमुख है माँ का रिश्ता जो पास न हो कर भी हर वक़्त पास होती है ...,
मैंने तुम्हारी आँखों से
उन हर सपनों को देखा है
जिसके आगे ,मेरी दुआओं से कहीं आगे
तुम्हारी इच्छा शक्ति खड़ी रही ...
..माँ ऐसी ही तो होती है ..वह जो विश्वास दिल में भरती है उस से चूकना सहज है ही कहाँ ?हर रिश्ता कोई न कोई अर्थ लिए होता है और जो बीत गया वह भूल नहीं पाता दिल ..आज की ख़ुशी में भी बीते वक़्त की परछाई मौजूद रहती है ...
बातें खत्म नहीं होती
खुदाई यादों की चलती ही रहती है ..सच है यह ज़िन्दगी का ...साथ साथ चलते लम्हे आज़ाद नहीं है बीते हुए वक़्त की क़ैद से ..इस संग्रह में लिखा हर खंड अपनी बात अपनी तरह से कहता है ...ज़िन्दगी के सवाल जवाब जो रहस्यमयी भी है ,उतर भी देते हैं वही अनुत्तरित भी हैं ..ज़िन्दगी में क्या खोया क्या पाया यह हिसाब किताब साथ साथ चलते रहते हैं ..कर्ण से हम प्रभवित जरुर होते हैं पर लक्ष्य अर्जुन का होता है ..और जब नीति की बातें होती है वही जीवन की मूलमंत्र कहलाती है
नीति की बातें
संस्कार की बातें
जीवन का मूलमंत्र होती है
पर यदि वह फांसी का फंदा बन जाए
तो उस से बाहर निकलना
समय की मांग होती है ....
सच है ...वक़्त के साथ साथ चलना ही समझदारी है | रश्मि जी के खुद की तलाश में कई पडाव हैं ज़िन्दगी के ..रिश्ते ,माता पिता से जुड़े हुए ..ईश्वर पर विश्वास ,ख्याल आदि बहुत खूबसूरती से जुड़े हैं और बंधे हैं लफ़्ज़ों में ..
मैं ख्यालों की एक बूंद
सूरज की बाहों में क़ैद
आकाश तक जाती हूँ
ईश्वर का मन्त्र बन जाती हूँ ,मैं ख्यालों की एक बूंद हूँ ....
..और इन्ही पंक्तियों के साथ वह आसानी से कह भी देतीं है की मैं जानती हूँ की तुम मुझे कुछ कदम चल कर भूल जाओगे ..ख्यालों की एक बूंद ही तो है मिटटी में मिल जायेगी या सूरज फिर तेज गर्मी से उसको वापस ले लेगा ..और वह फिर से बरसेगी इस लिए जब भी याद आऊं तो मुझे तलाशना .
शाम की लालिमा को चेहरे पर ओढ़ लो
रात रानी की खुशबु अपने भीतर भर लो
पतवार को पानी में चलाओ
बढती नाव में ज़िन्दगी देखो
पाल की दिशा देखो
जो उत्तर मिले मैं वो हूँ ............
.खुद की तलाश में लिखने वाला मन ..सिर्फ अपने को कैनवस पर नहीं उतारता वह उस में जीता भी है और पढने वाला मन भी वही सकून पाता है जहाँ वह खुद को उस लिखे में पाता है ..
सत्य झूठ के कपड़ों से न ढंका हो
तो उस से बढ़ कर कुरूप कुछ नहीं
आवरण हटते न संस्कार
न अध्यात्म न मोह
सब कुछ प्रयोजनयुक्त .....
सब कुछ एक दूजे से जुड़ा है बंधा है | रश्मि जी के लिखे में उतरने के लिए गहरे तक उतरना पढता है पढने के लिए सरसरी तौर पर उनकी लिखी रचनाओं को नहीं समझा जा सकता है ...खुद की तलाश ज़िन्दगी के हर पहलु में डूब कर ही लफ़्ज़ों में ढली है इस तलाश में मौन भी है जीवन का सत्य का सच भी जो माँ के गर्भ से ले कर मृत्यु के साथ तक चलता है | हर खंड में लिखी रचना के साथ बहुत ही गहराई से अपनी बात कहती पंक्तियाँ है जो स्वयम से बात चीत करवाती है ..जैसे मौन के विषय में रश्मि जी का कहना है क्षितिज एक रहस्य है और रहस्य मौन होता है तो यदि तुमने मौन से दोस्ती कर ली तो रहस्य से परदे स्वतः ही हट जायेंगे ...इन लिखी पंक्तियों से कविता को समझना और खुद में उतरना सरल हो जाता है | संग्रह जैसे खुद में ही गीता के रहस्य समेटे हुए है ..पर वह रहस्य तभी समझे जा सकते हैं जब इन लिखी रचनाओं में डूब कर पढ़ के समझा जाए इन्हें ..और इस विषय में सबकी रूचि हो यह संभव नहीं है ..कहीं कही बोझिल लग सकता है यह अपनी बात कहता हुआ .विषय एक ही है पर बहुत अधिक बात कहना अपनी राह से भटका देता है ..एक अवरोध सा बन जाता है की क्या समझ पा रहे हैं आखिर हम इन इन्ही लिखी पंक्तियों से ...खुद में तलाश है या किसी और से जुडी कोई बात है इन रचनाओं में लिखी ... .पर जो इस विषय में रूचि रखते हैं ..यानि की अपनी ही खोज में लगे हुए हैं तो यह संग्रह उनके मन की बहुत सी गुत्थियों को सुलझा सकता है | खुद रश्मि जी शब्दों में जब तक जीवन है क्रम है |शेष विशेष तो चलता ही रहेगा |तलाश भी बनी रहती है ,पूर्ण होना यानी मुक्त होना और इस तलाश में अभी मुक्ति की चाह से प्रबल खुद की तलाश है ..
इस एहसास के दृशय पर टेक लगा लूँ
जिन पंछियों ने घोंसले बनाये हैं
उनके गीत सुन लूँ
आगे तो अनजाना विराम खड़ा है
जीवन की समाप्ति का बोर्ड लगा है
होगी अगर यात्रा
तो देखा जायेगा
मृत्यु के पार कोई आकाश होगा
तो फिर से खुद को खोजा जायेगा !!!

खुद की तलाश यूँ ही जारी रहेगी .............
हिंद युग्म से प्रकाशित यह  (संग्रह )इंफीबीम पर हिंदी की चुनिंदा बेहतरीन किताबों में शामिल हो गया  हैं।यह संग्रह वाकई बेहतरीन है और संजो के रखने लायक है _रश्मि जी की सभी पुस्तकें इंफीबीम  और फ्लिप्कार्ट पर उपलब्ध हैं ..और  इनके काव्य संग्रह का कॉम्बो आफर आप infibeem  के इस लिंक से ले सकते हैं

Thursday, November 08, 2012

रहते थे वह परेशां मेरे बोलने के हुनर से

वेदना दिल की आंखो से बरस के रह गई
दिल की बात फ़िर लफ्जों में ही रह गई

टूटती नही न जाने क्यों रात की खामोशी
सहर की बात भी बदगुमां सी रह गई

बन के बेबसी ,हर साँस धड़कन बनी
तन्हा यह ज़िंदगी, तन्हा ही रह गई

रहते थे वह परेशां मेरे बोलने के हुनर से
खामोशी भी मेरी उन्हें चुभ के रह

सपनों की पांखर टूट गई आँख खुलते ही
हकीकत ज़िंदगी की ख्वाब बन के रह गई !!




Monday, November 05, 2012

प्यासी है नदिया

सुख -दुख के दो किनारों से सजी यह ज़िन्दगानी है
हर मोड़ पर मिल रही यहाँ एक नयी कहानी है
कैसी है यह बहती नदिया इस जीवन की
प्यासी है ख़ुद ही और प्यासा ही पानी है

 

हर पल कुछ पा लेने की आस है
टूट रहा यहाँ हर पल विश्वास है
आँखो में सजे हैं कई ख्वाब अनूठे
चाँद की ज़मीन भी अब अपनी बनानी है
कैसी यह यह प्यास जो बढ़ती ही जानी है
प्यासी है  नदिया और प्यासा ही पानी है

जीवन की आपा- धापी में अपने हैं छूटे
दो पल प्यार के अब क्यों  लगते हैं झूठे
हर चेहरे पर है झूठी हँसी, झूठी कहानी है
कैसी यह यह प्यास जो बढ़ती ही जानी है
प्यासी है नदिया ख़ुद प्यासा ही पानी है

हर तरफ़ बढ़ रहा है यहाँ लालच का अँधियारा
ख़ून के रिश्तो ने ख़ुद अपनो को नकारा
डरा हुआ सा बचपन और भटकी हुई सी जवानी है
कैसी है यह प्यास जो बढ़ती ही जानी है
प्यासी है नदिया ख़ुद ही प्यासा ही पानी है

रंजू भाटिया .........

Friday, November 02, 2012

जज्बात .

जज्बात (कविता-संग्रह)

रु१५0
प्रकाशक-हिंद युग्म
१,जिया सराय,
 हौज़ खास,
 नई दिल्ली-११००१६
(मोबाइल: 9873734046)
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जज्बात .....वो ख्याल जो तेरी रहगुजर से हो कर गुजरे/बस वही जज्बात है !!
जज्बात यानी हमारे भाव ..इमोशन ..जो जुड़े होते हैं दिल के भावों से और जब वह मुखरित होते हैं शब्दों में तो वह अपनी बात यूँ इस अंदाज़ से कह जाते हैं ...दूर जाने से किसने रोका है /बस ख्याल से परे रहने की इजाजत नहीं तुझे ...........बहुत रोचक लगी यह पंक्तियाँ मुझे |पहले कभी इनका लिखा पढ़ा नहीं ..नेट पर इनकी वेबसाईट में पढ़ी यह पंक्तियाँ
किताबें भी कितनी अच्छी दोस्त होती है /चाहे जितनी बार इन्हें पढ़े .इनके पन्नो पर वही लिखा रहता है /जो पहले लिखा था कभी बदलता नहीं .एक सच्चे दोस्त की तरह /एक सच्चे प्रेम की तरह /हम इंसानों की फितरत किताबों सी क्यों नहीं होती है .कोई दोस्त हमें किताबों सा क्यों नहीं मिलता ...जब यह पढ़ा तो इनके संग्रह को पढ़ डाला और निराशा नहीं हुई ..बहुत ही नए तरीके से इन्होने सरल शब्दों में यह कविताओं की सरगम बुनी है ...
      यह काव्य संग्रह है "मनु " इनका तखल्लुस है और "पूरा  नाम है पूनम चन्द्रा जो देहरादून  में जन्मी और अंगेरजी साहित्य में स्नात्कोत्तर है |अब यह कनाडा में रहती है| हिंदी रायटर्स गिल्ड ,कनाडा की सदस्य हैं और अपने ही आई टी व्यवसाय से जुडी हैं|  गुलजार अमृता प्रीतम को दिल से पसंद करने वाली मनु की खुद की जुबान में जज्बात हर लम्हा खुद से की हुई बात का जिक्र है जो कहीं न कहीं पढने वाले के दिल की राह से हो कर गुजरता है और यह वाकई सच है ..
एहसास .ख्याल जिक्र बात
सब तेरे दायरों में तो क़ैद है
कोई इनसे निजात पाए कैसे
अपने बस की बात भी तो हो !

एक कोमल दिल न जाने किन किन ख्यालों में गुम रहता है और वहां जहन बीते कल नाम की एक पुरानी किताब उठा कर सिर्फ गुजरी हुई बाते ही पढता है ,उन बातों को फिर से जीता है .खिलता है ,मुरझाता है .और इसी तरह हमारा आज कल में तब्दील होता रहता है .यह पंक्तियाँ ही जज्बात संग्रह हमसे क्या कहना चाहता है स्पष्ट कर देती हैं|
आपकी ज़िन्दगी में एक नाम जरुर होता है
जिसका ज़िक्र आते ही
सारे बीते लम्हे आपकी आँखों के सामने
झरने की तरह बहने लगते हैं ....
..और यह नाम आपके दिल की गहराई में छिपा रहता है और गहराई में डूबे उस पन्ने पर आप एक नयी कहानी नहीं लिख सकते .क्यों की वह हमेशा मुड़ा हुआ होता है ..सच है यह ज़िन्दगी का जो हर दिल में मद्दम मद्दम धडकता रहता है |
और बहता है यह एक नदी सा
जितना बह जाता है आँखों के सामने से
मुड कर पीछे देखने पर
पहले से ज्यादा
खुद तक आता दिखाई देता है ..
.....यह ज़िन्दगी के हर मोड़ से हो कर गुजरता है इसको था कहने की गलती मत करो ...इसको बहने दो .इसका कोई साहिल नहीं ये है बस बहुत है ..प्यार है यह .कभी मरता नहीं कभी नहीं ....हर बात को इतनी सहजता से मनु जी ने अपने इस संग्रह में कह दिया है की वाकई लगता है खुद से कोई बातें कर रहा है ...हर पंक्ति ख्यालों में बन कर ताप कर इस संग्रह में उतरी है ...
इस कद्र बातें होती है तुमसे ख्यालों में
ऐसा लगता है एक मुलाक़ात हो गयी
पिछले रोज़ एक ख़त लिखा था तुम्हे
जवाब नहीं मिला अब तक

हकीकत में न सही ,ख्यालों में तो जवाब दिया करो !! क्या अंदाज़ है अपनी शिकायत कहने का ...कौन होगा जो जवाब नहीं दे पायेगा ..

पूरी तरह जीना कब का भुला दिया
कुछ तुम में जिंदा हूँ
कुछ खुद में बाकी हूँ .
......और जब यह जिक्र जहन में हलचल मचाता है तो

तेरी ज़िक्र पे मेरी सोच
कितनी दूर तक चली जाती है
हर बीता लम्हा पढ़ती है
और लौट कर आती भी नहीं
मुझे बाँधने की आदत
तुझे
भूली नहीं अब तक ...
और कहाँ भूला जाता है उस हर लम्हे को जो ज़िन्दगी से जुड़ा है बंधा है ..मेरा प्यार /तेरे किसी वादे का मोहताज नहीं .तेरे जाने के बाद /तू /और भी पास होता है मेरे .........
   छोटी छोटी बातें है जो दिल से जुडी है पर बहुत  मासूमियत  से अपनी बात कह गयीं है .
कैसी राह है ये
जो तुझ तक तो जाती है
पर कभी
लौट कर
मुझ तक नहीं आती !!

           बहुत ही सरल शब्दों में कही यह बातें मनु जी ने बहुत आसानी  से बुन दी हैं लफ़्ज़ों में ..यह  मेरे पास आया सबसे मासूम संग्रह है ,जिसके हर पन्ने को बहुत ही दिलकश अंदाज में रचनाओं से सजाया गया है ..कही दो पंक्ति में अपनी बात कहीं चार पंक्ति में अपनी बात कहता अपनी बात पन्ना दर पन्ना पलटते हुए कहता जाता है
ये जुदाई ,ये बेरुखी
सिर्फ दिखावें हैं ,बहाने हैं
उसे शौक है
अपनी तारीफ में कुछ सुनने और लिखवाने का
...सही ऐसा लगा मुझे भी जज्बात संग्रह को पढ़ते हुए ...वक़्त की धार पर यह लफ्ज़ कहीं भी रास्ता भटकते नहीं है ....तेरी तलाश में जब भी खत्म करनी चाही मैंने /सारी दुनिया घूम कर .बस खुद को आईने में देख लिया .तेरा वजूद इस कद्र हावी है मुझ पर ............यह वजूद जो हावी है दिल पर वही तो यह भावनाएं अपनी कहलवा देता है और इस के लिए भी खूब कहा ..
तजुर्बे के लिए
उम्रदराज़ होना जरुरी नहीं ..
हम तराशते हैं दुनिया में ,अपनी जगह ,अपने लफ़्ज़ों से ही ..यह बाते मनु के संग्रह में सिर्फ दो दो पंक्तियों में ब्यान हुई है ..जो खुद में मुक्कमल है .विशेष  अन्दाज़ में लिखी यह रचनाएँ मनमोह लेने वालीं है |वो खूबसूरत  लफ्ज़ /जिसे दुनिया कहते हैं /खुद अपने आपसे ही तो शुरू होती है !दुनिया के अर्थ को इस तरह बखूबी ब्यान करना इन लफ़्ज़ों में बहुत बेहतरीन लगा ,जो खुद से शुरू हो खुद पर ही खत्म इस से अधिक मुक्कमल एहसास और क्या होगा ..वह एहसास जो मिट नहीं सकते हैं पत्थर पर लिखे से ..
मेरे नाम को अपने दिल से 
मिटाने का ख्याल 
आने भी मत देना जहन में 
पत्थरों पर लिखे नाम जितना मिटाओ उतने उभरते हैं ....साफ़ सरल पर गहन अर्थ लिए यह रचना बहुत ही गहरे से आपको अपना सन्देश दे जाती है ....पर हर सन्देश सही पहुँच जाये वह देखिये इन दो पंक्तियों में कैसे अपनी बात कह गया
तेरे शहर की मोहर लगा 
तेरा कोरा ख़त भी नहीं मिला कभी .........सब पते जैसे जहन में कहीं कौंध जाते हैं और न जाने दिल को क्या क्या याद दिला देती हैं यह दो पंक्तियाँ ..शिकायत का लहजा इस से अधिक खूबसूरत हो सकता है क्या ?

           इस संग्रह के प्रकथन को लिखने वाले मुकेश मिश्र जी के अनुसार भी मनु जी ने एक निराले किस्म की शैली और शिल्प को तो चुना ही -साथ में अपने समय ,काल .व्यक्ति और समाज के साझेपन को भी अभिवयक्त किया है| उनकी लिखी इन रचनाओं में शब्दों में अर्थ जुटाने की और फिर उन अर्थो को खोलने की एक विशिष्ट विशेषता है|
         इस में लिखी रचनाएँ अपने साथ बहा कर ले जाती है अपने कवर पृष्ट पर बनी लहरों सी और कहीं कहीं पटक भी देती है ठीक लहरों से टकराती उन चट्टानों से जो पढ़ते हुए पाठक के मन में हिलोरें लेती है |..मुक्तसर शब्दों में अपनी बात कहता यह संग्रह इस के आखिरी पृष्ट पर लिखी पंक्तियों को सच कर देता है | इन में बहती भावनाओं  का वेग कहीं बहुत तेज है और कहीं बहुत धीमा ..खोता हुआ सा ..जैसे कोई लहर भटक कर पीछे रह गयी हो ....पर  यह इमोशन ही तो हैं जो कभी तेज कभी होल से छु लेते हैं दिल के हर कोने को और इन रचनाओं के बीच के भटकाव को महसूस नहीं होने देते ...
हमारे दिलों को वो आवाज़
जो अक्सर सिर्फ हमें सुनाई देती है
खुद के अन्दर एक ऐसा दोस्त
जो हमसे बातें करता है
सुनता भी है ,जवाब भी देता है
खुद की आँखों में
किसी और की रौशनी की तरह .............
 

३ नवम्बर को शाम ४ बजे इस संग्रह का " हिंदी भवन" में विमोचन है ..आये और  "जज्बात" की लहर को अपने संग महसूस करें और भिगो ले अपना मन ..इन में लिखी रचनाओं से ..