Saturday, September 29, 2012

शौक

एक दिन
तुमने बातों बातों
में बताया था कि
तुम्हे ..
बचपन से शौक था
तुम्हारा

 खुद के बनाये 
मिटटी के
खिलौनों से खेलना
और फिर उनको
खेल के तोड़ देना

आज भी तुम्हारा

वही खेल जारी है
बस खेलने
और खिलौनों के
वजूद बदल गए हैं |........
रंजू ..........

Thursday, September 27, 2012

जिंदगी जीने का नाम है...

आज कल सुबह जब भी अखबार उठाओ तो एक ख़बर जैसे अखबार की जरुरत बन गई है कि फलानी जगह पर इस बन्दे या बंदी ने आत्महत्या कर ली ..क्यों है आखिर जिंदगी में इतना तनाव या अब जान देना बहुत सरल हो गया है ..पेपर में अच्छे नंबर नही आए तो दे दी जान ...प्रेमिका नही मिली तो दे दी जान ...अब तो लगता है जिस तरह से महंगाई बढ़ रही है लोग इसी तनाव में आ कर इस रेशो को और न बड़ा दे ...कल एक किताब में एक कहानी पढी इसी विषय पर लगा आप सब के साथ इसको शेयर करूँ ..एक नाम कोई भी ले लेते हैं ...राम या श्याम क्यूंकि समस्या नाम देख कर नही आती ..और होंसला भी नाम देख कर अपनी हिम्मत नही खोता है .खैर ...राम की पत्नी की अचानक मृत्यु हो गई और पीछे छोड़ गई वह बिखरी हुई ज़िंदगी और दो नन्ही मासूम बच्चियां ..सँभालने वाला कोई था नही नौकरी पर जाना जरुरी .और पीछे से कौन बच्चियों को संभाले ..वेतन इतना कम कि आया नही रखी जा सकती . और आया रख भी ली कौन सी विश्वास वाली होगी ..रिश्तेदार में दूर दूर तक कोई ऐसा नही था जो यह सब संभाल पाता..क्या करू .इसी सोच में एक दिन सोचा कि इस तरह तनाव में नही जीया जायेगा ज़िंदगी को ही छुट्टी देते हैं ..बाज़ार से ले आया चूहा मार दवा ..और साथ में सल्फास की गोलियां भी ...अपने साथ साथ उस मासूम की ज़िंदगी का भी अंत करके की सोची ..परन्तु मरने से पहले सोचा कि आज का दिन चलो भरपूर जीया जाए सो अच्छे से ख़ुद भी नहा धो कर तैयार हुए और बच्चियों को भी किया ...सोचा की पहले एक अच्छी सी पिक्चर देखेंगे फ़िर अच्छे से होटल में खाना खा कर साथ में इन गोलियों के साथ ज़िंदगी का अंत भी कर देंगे ...

सड़क क्रॉस कर ही रहे थे एक भिखारी देखा जो कोढी था हाथ पैर गलते हुए फ़िर भी भीख मांग रहा था .इसकी ज़िंदगी कितनी नरक वाली है फ़िर भी जीए जा रहा है ऑर जीने की किस उम्मीद पर यह भीख मांग रहा है .? कौन सा इसका सपना है जो इसको जीने पर मजबूर कर रहा है ? क्या है इसके पास आखिर ? फ़िर उसने अपने बारे में सोचा कि मूर्ख इंसान क्या नही है तेरे पास ..अच्छा स्वस्थ ,दो सुंदर बच्चे घर ..कमाई ...आगे बढे तो आसमान को छू ले लेकिन सिर्फ़ इसी लिए घबरा गया कि एक साथ तीन भूमिका निभा नही पा रहा है वह पिता .,अध्यापक ,ऑर माँ की भूमिका .निभाने से वह इतना तंग आ गया है कि आज वह अपने साथ इन दो मासूम जानों का भी अंत करने लगा है ..यही सोचते सोचते वह सिनेमाहाल में आ गया पिक्चर देखी उसने वहाँ ""वक्त ""'..और जैसे जैसे वह पिक्चर देखता गया उसके अन्दर का कायर इंसान मरता गया ..और जब वह सिनेमा देख के बाहर आया तो जिजीविषा से भरपूर एक साहसी मानव था जो अब ज़िंदगी के हर हालत का सामना कर सकता था ..उसने सोचा कि क्या यह पिक्चर मुझे कोई संदेश देने के लिए ख़ुद तक खींच लायी थी ..और वह कोढी क्या मेरा जीवन बचाने के लिए कोई संकेत और संदेश देने आया था ..उसने वह गोलियाँ नाली में बहा दी .और जीवन के हर उतार चढाव से लड़ने को तैयार हो गया
..जिंदगी जीने का नाम है मुश्किल न आए तो वह ज़िंदगी आखिर वह ज़िंदगी ही क्या है ..जीए भरपूर हर लम्हा जीए ..और तनाव को ख़ुद पर इस कदर हावी न होने दे कि वह आपकी सब जीने की उर्जा बहा के ले जाए ...क्यूंकि सही कहा है इस गीत में कि आगे भी जाने न तू पीछे भी न जाने तू ,जो भी बस यही एक पल है ..जीवन अनमोल है . इसको यूं न खत्म करे ..

Wednesday, September 26, 2012

ज़ीवन एक परिवर्तन


यूँ इस तरह ना वक़्त को मेरे दिल गवां
यहाँ हर बीतता पल ना जाने कब अंतिम हो जाना है
राही सुन ज़ीवन एक परिवर्तन है
जिसने हर पल बदल जाना है

कभी साथ में होंगे तेरे हमसफ़र कितने 
तो कभी नितांत अकेलापन भी होगा
कभी थक के चूर होंगे तेरे सपने
कभी साथ नाचता मयूरी सा मन भी होगा
यूँ ही पल पल करके इस जीवन ने बीत जाना है
इसको यूँ ही ना व्यर्थ गवां
एक दिन सब यहाँ बदल जाना है

छाया है यहाँ हर आती ख़ुशी 
क्यों  इस पर पागल मनवा इतराता है
सपने तेरे सब पूरे हो यहाँ
ऐसा कब संभव हो पाता है
धूप छावं सा है यह जीवन
दर्द और ख़ुशी में ढल जाना है
इस जीवन को यूँ ना गवां
यहाँ एक दिन सब बदल जाना है

कौन टिक सका है अमर हो कर यहाँ
राजा बन के भी सभी ख़ाली हाथ गये
चाँद से सुंदर लगते चेहरे सब 
वक़्त के साए में यहाँ ढल गये
धन दौलत के बही खातो को
यही के यही ख्त्म कर जाना है
माया से यूँ तू मोह ना लगा
भला इसने कब साथ हमारे जाना है
परिवर्तन है जीवन यह तो 
यहाँ एक दिन सब बदल जाना है !!


--
ranju....

Monday, September 24, 2012

सच और सपना

उम्र के उस
नाजुक मोड़ पर
जब लिखे गए थे
यूँ ही बैठे बैठे
प्रेम के ढाई आखर
और उस में से
झांकता दिखता था
पूरा ..
सुनहरा रुपहला सा संसार
रंग बिरंगे सपने..
दिल पर छाया खुमार
मस्तमौला सी बातें
दिल में चढ़ता -उतरता
जैसे कोई ज्वार

और .....
अब न जाने
कितने आखर..
प्रेम भाव से ..
रंग डाले हैं पन्ने कई ..
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
दिल और दिमाग की ज़ंग में
अभेद दुर्ग की दिवार का
पहरा सा रहता है ....

सोचता है तब मन
बेबस हो कर.....
तब और अब में
इतना बड़ा फर्क क्यों है ?

Saturday, September 22, 2012

हम है मीर


हम है मीर (हाइकु -संग्रह)
मधु चुतर्वेदी
मूल्य- रु ९९
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिप्कार्ट पर खरीदने का लिंक 
इनफीबीम पर खरीदने का लिंक  

सत्रह वर्ण
भरते हाइकु में
अर्थ का स्वर्ण

मधु जी द्वारा रचित यह हाइकु के बारे में लिखा उनके हाइकु संग्रह के बारे में खुद ही बात करने लगता है
मधु जी के संग्रह के बारे में लिखते हुए कुछ जानकारी इस विषय की भी ले लेते हैं .हालाँकि हिंदी साहित्य से अब यह अपरिचित नहीं रह गयी है ..फिर भी कई लिखने वाले पूरी तरह से इस विधा से परिचित नहीं है ..
हाइकु हिंदी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में 'हाइकु' नवीन  विधा है। हाइकु मूलत: जापानी साहित्य की प्रमुख विधा है। आज हिंदी साहित्य में हाइकु की भरपूर चर्चा हो रही है। हिंदी में हाइकु खूब लिखे जा रहे हैं और अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इनका प्रकाशन कर रहे हैं। निरंतर हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान की सबसे चर्चित विधा के रूप में हाइकु स्थान लेता जा रहा है तो अत्युक्ति न होगी। जापानी हाइकु कवि बाशो ने कहा है, "जिसने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली, वह महाकवि है।"हाइकु कविता आज विश्व की अनेक भाषाओं में लिखी जा रही हैं तथा चर्चित हो रही हैं।  हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।  हाइकु के लिए हिंदी बहुत ही उपयुक्त भाषा है।थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहना आसान नहीं है। हाइकु लिखने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता है।हाइकु काव्य का प्रिय विषय प्रकृति रहा है। हाइकु प्रकृति को माध्यम बनाकर मनुष्य की भावनाओं को प्रकट करता है। हिंदी में इस प्रकार के हाइकु लिखे जा रहे हैं। हाइकु विधा दिखने में जितनी सरल है उतनी ही लिखने में मुश्किल एक दम से आये विचार को को सत्रह वर्णों में लिख देने की कला कम नहीं होती है .और इस मुश्किल काम को मधु जी ने अपने हाइकु संग्रह हम हैं मीर में बखूबी कर दिखाया है ...
             'हम है मीर'  पुस्तक का लोकार्पण हिंदी के मशहूर  कवि एवं कविता-मंच के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. कुँअर बेचैन ने किया। इस पुस्तक का प्रकाशन हिंद युग्म ने किया है। इस हाइकु-संग्रह में कवयित्री डॉ. मधु चतुर्वेदी के 501 हाइकु संकलित हैं।और सभी बहुत ही मनमोहक है ..खुद मधु जी के शब्दों में "मैंने हाइकु में तुकान्त दे कर अपनी काव्य संस्कृति परम्परा को वाशो के साथ जोड़ने का प्रयास किया है वाशो और कबीर की आत्मा को एकमेक करने की अपनी परिकल्पना को एक साथ साकार करने का प्रयास है  मुझे विश्वास है कि दोनों हो महाकवियों की आत्माएं मुझे इस के लिए आशीष देंगी|"
हाइकु मूलरूप से प्रकृति की कविता हॅ। एक अच्छे हाइकु में ऋतुसूचक शब्द आना चाहिए। लेकिन सदा ऐसा हो, यह जरूरी नही। हाइकु, प्रकृति तथा प्राणिमात्र के प्रति प्रेम का भाव मन में जगाता है। अत: मानव की अन्त: प्रकॄति भी इसका विषय हो सकती है हिन्दी में हाइकु लिखने की दिशा में बहुत तेजी आई है।  मधु जी ने भी अनेक ऐसे हाइकु लिखे हैं जो प्रकृति से जुड़े हुए हैं
यह गोल चंदा
रात की हथेली पे
चांदी का सिक्का

और यह खूबसूरत चित्रण

फुला गुलमोहर
सांझ पर ज्यों
उतरी दोपहर
हाइकु में अब समाज में जो भी कुछ हो रहा है उस पर भी लिखा जा रहा है |मधु जी के हाइकु भी आज के समाज के प्रतिबिम्ब है
तोड़ दे मौन
कोई छांट दे कोहरा
वो कोई कौन ?
समाज है तो राजनीति भी है  उस पर भी मधु जी कलम खूब चली है
ये गणतंत्र
गणना पर टिका
संख्या का तंत्र
आज की भारतीय राजीनति पर भी खूब कहा है मधु जी ने
ओ धर्मराज
क्या दुष्कर्मियों को ही
मिलेगा ताज
मधु जी दर्शनशास्त्र से भी जुडी हुई है ..उसका प्रभाव भी उनके हाइकु लिखने में आया है
मन के तार
ही सुख या दुःख के
होते आधार
और जन्म मृत्यु के लिए बहुत सही कहा है उन्होंने
आत्मा अमर
फिर क्यों सताता है
मृत्यु का डर
मधु जी ने गीत दोहा कविता गजले सभी अपमी कलम से उतारी हैं और वह प्रेम की  कवियत्री भी मानी जाती है |जब सब विधा में उनकी कलम से यह प्रेम गीत गाया है तो यहाँ कैसे वह इस हाइकु विधा में चुक सकती है
प्रिय की गली
ऊँची नीची टेढ़ी भी
लगती भली
प्रेम का रास्ता बहुत ही अनूठा है उस में प्रेम ही मुख्य रहता है इस बात को उन्होंने बहुत सुन्दर ढंग से कहा है
ओ मनमीत
हम दोनों ही हारे
जीती है प्रीत
सबसे अच्छा हाइकु मुझे इस में उनका रति प्रेम पर लगा
चांदनी रात
बहकते जज्बात
प्रेम उत्पात ...
कम शब्दों में कह दी सारी बात ...बहुत ही मनमोहक है यह विधा जो आसानी से अपनी बात यूँ कह जाती है
पी मकरंद
भंवरे ने सुनाया
तृप्ति का छंद
इसी में उनका ढाई आखर खंड भी है जो बहुत बहुत सुन्दर है उसका हर हाइकु बहुत ही बेहतरीन लिखा गया है
ढाई आखर
राधा के मन ,गए
संतोष भर
मधु जी ने इस हाइकु संग्रह को कई खंडो में बांटा है और हर खंड का नाम भी हाइकु विधा में है
नभ को फांद,
नीम की डाली पर
अटका चाँद     .............इस में कुदरत और पर्यावरण पर लिखा बेहद रोचक है ...                       

दीपक तले
युगों से निरंतर
अँधेरा पले............................इस में मुहावरे और लोकोक्ति को सुन्दर नए ढंग से हाइकु में पिरोया गया है
ढाई आखर
पढ़े सुने प्रेम के
ज्ञानी  हो नर ..ढाई आखर है तो वह प्रेम से ही पगे हुए होंगे ..जो दिल को मोह लेते हैं ..
आदि हर खंड अपनी बात बहुत अच्छे से पाठक तक पहुंचा देता है |परिवार से जुड़े हाइकु भी सही में रिश्ते को पूरे परिभाषित कर देते हैं ..माँ की दुआ /जो था असंभव/संभव हुआ .....और दादी के प्यार के तो क्या कहने ...दादी का प्यार /मूल से भी अधिक /ब्याज का भार ...बेटियाँ तो जान होती है किसी भी रिश्ते की किसी भी परिवार की ...बेटी का प्यार /आँगन में झरता /हरसिंगार
 मधु जी ने इस के अलावा कई मुहावरों और लोकोक्ति पर भी हाइकु रच दिए हैं
..आँख के अंधे /नाम नयन सुख /गोरखधंधे ........अँधा जो बांटे /रेवड़ी ,फिर फिर /अपने छांटे..कौन बचाए ..यह एक नया प्रयोग है जो बहुत अच्छा लगा पढने में ....उनके इस संग्रह में हाइकु के अलावा डमरू भी संकलित किये गए हैं हाइकु में जैसे पांच सात पांच अक्षर होते हैं डमरू के पहली और तीसरी में सात सात और दूसरी में पांच अक्षर होते हैं ..जैसे छज्जे पर कबूतर /गूंजता घर / गुटर गूं गुटर /
मधु जी के कुछ हाइकु तुकांत में भी हैं ...आँखों का जल /उमड़ा छल छल /बहा काजल ......अलंका
रों का सुन्दर प्रयोग किया गया है यमक अलंकार जिस में प्रमुख है ..जिस से नए नए अर्थ निकल कर आते हैं ...प्यासी धरती /दरकी ,कब तक /धेर्य धरती ..इस में धरती के मायने अलग अलग हैं ...
उनके पहले पन्ने पर डॉ कुअंर बैचेन ने बहुत ही अच्छा लिखा है मधु जी के इस हाइकु संग्रह के बारे में ऊँचे दर्जे के आई क्यू वाले हाइकु का गुलदस्ता है यह संग्रह .जिस में भाषा ,बिम्ब .प्रतीक ,समाज राजनीति आदि सब एक सात दिखाई देते हैं ..इसको पढ़ कर पढने वाला वाह किये बिना नहीं रह सकता है ...वहीँ डॉ राहुल अवस्थी जी ने कहा है कि अलग विषयों पर उनके लिखे यह हाइकु उनकी लेखनी की सफलता है ..और यदि ऐसे ही कुछ साहित्यकार हाइकु लिखने वाले हिंदी साहित्य को मिलते रहे तो बल्ले बल्ले है इस विधा की ...वहीँ मधु जी जो पहले हाइकु विधा से अधिक परिचित नहीं थी डॉ कुंवर बैचेन का हाइकु संग्रह पर्स पर तितली पढने के बाद हाइकु लिखने से जुड़ गयी ..और नतीजा यह संग्रह हमारे सामने हैं
मैं भी अभी इस विधा से पूर्ण रूप से लिख नहीं पायी हूँ ..पर इस संग्रह को पढने के बाद बहुत कुछ सीखा है मैंने इस संग्रह से ..और बहुत मजेदार कक्षा की तरह लगे मुझे इसके पाठ पढने और सीखने में ....यदि आप भी इस विधा को सही से समझना लिखना पढ़ना चाहते हैं तो इस संग्रह को पढना न भूलें ..और अंत में कुछ मधु जी के हाइकु जिन से मैं बहुत प्रभावित हुई ..
ये पेट की अगन
कूड़े से चिंदी
बीनता बचपन
सारा विष पी लिया
प्रदूषण का
नदी को है पीलिया
होंठ क्या खुले
कजरारी आँखों में
सपने धुले ...अदभुत संग्रह अदभुत विधा और अदभुत मधु जी लिखने वाली ..      

Saturday, September 15, 2012

प्रेम न हाट बिकाय.........



प्रेम न हाट बिकाय (उपन्यास ) 
 लेखक रविन्द्र प्रभात
मूल्य रूपये 
२७०
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
infibeam पर खरीदने का लिंक










प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

प्रेम के ढाई आखर हर किसी के दिल में एक मीठी सी गुदगुदी पैदा कर देते हैं। कभी ना कभी हर व्यक्ति इस रास्ते से हो कर  ज़रूर निकलता है पर कितना कठिन है यह रास्ता। कोई मंज़िल पा जाता है तो कोई उम्र भर इस को जगह-जगह तलाशता रहता है। किसी  एक व्यक्ति के संग बिताए कुछ पल जीवन को एक नया रास्ता दे जाते हैं तब जीवन मनमोहक रंगो से रंग जाता है और ऐसे पलों को जीने की इच्छा बार-बार होती है।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।

रवीन्द्र प्रभात , हिन्दी साहित्य में एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्यक ब्लॉगस को बड़ी गंभीरता से लिया और ब्लॉग के मुख्य विश्लेषको के रुप में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया ।  रवीन्द्र जी द्वारा लिखित  उनका दूसरा उपन्यास “ प्रेम न हाट बिकाय” पढा अभी जो प्रेम संबंधो पर आधारित हैं । इससे पहले उनका उपन्यास “ ताकि बचा रहे लोकतन्त्र” भी चर्चित रहा ।वह भी मैंने पढा था ..वह दलित विमर्श पर आधारित था| यह प्रेम न हाट बिकाय विशुद्ध रूप से प्रेम पर आधारित है| प्रेम के विषय में जितना कहा जाए उतना ही कम है .यह इतना व्यापक क्षेत्र है कि कुछ भी कहना इस पर मुझे तो कम लगता है | एक बार इस पर लिखी थी कुछ पंक्तियाँ
प्रेम एकांत है
नाम नही
जब नाम बनता है
एकांत ख़त्म हो जाता है !! प्रेम  जब यह हो जाए तो कहाँ देखता है उम्र ,,कहाँ देखता है जगहा ,और कहाँ अपने आस पास की दुनिया को देख पाता है बस डूबो  देता है ख़ुद में और पंहुचा देता है उन ऊँचाइयों पर जहाँ कोई रूप धर लेता है मीरा का तो कही वो बदल जाता है रांझा में .....पर सच्चा प्रेम त्याग चाहता है ,बलिदान चाहता है उस में दर्द नही खुशी का भाव होना चाहिये| बस यही कहानी इस उपन्यास की है ...आपने नाम के अनुसार  यह उपन्यास प्रेम की धुरी पर स्थापित दो समांतर प्रेम वृतों की रचना करता है, जिसके एक वृत का केंद्र प्रशांत और स्वाती का प्रेम-प्रसंग है तो दूसरे वृत की धुरी है देव और नगीना का प्रेम । एक की परिधि सेठ बनवारी लाल और उनकी पत्नी भुलनी देवी है तो दूसरे की परिधि देव की माँ राधा । इन्हीं पात्रों के आसपास उपन्यास का कथानक अपना ताना वाना बुनता है । पूरी तरह से त्रिकोणीय प्रेम प्रसंग पर आधारित है यह उपन्यास । रविंदर जी ने इस उपन्यास में प्रेम के स्वरूप को देह से निकाल कर अध्यात्म तक पहुँचाने का प्रयास इसी कहानी के माध्यम से किया है |
         मैंने जो इस उपन्यास में महसूस किया वह यही इसी  अध्यात्म प्रेम को महसूस किया और जाना कि हम सभी ईश्वर से प्रेम करते हैं और साथ ही यह भी चाहते हैं कि  ज्यादा से ज्यादा लोग उस ईश्वर से प्रेम करें पूजा करें वहाँ पर हम ईश्वर पर अपना अधिकार नही जताते !हम सब प्रेमी है और उसका प्यार चाहते हैं परन्तु जब यही प्रेम किसी इंसान के साथ हो जाता है तो बस उस पर अपना पूर्ण अधिकार चाहते हैं और फिर ना सिर्फ़ अधिकार चाहते हैं बल्कि आगे तक बढ जाते हैं और फिर पैदा होती है शंका ..अविश्वास ...और यह दोनो बाते फिर खत्म कर देती हैं प्रेम को ...मीरा को कभी भी श्री कृष्णा और अपने प्यार पर कभी अविश्वास नही हुआ जबकि राधा को होता था अपने उसी प्रेम विश्वास के कारण कृष्णा को मीरा को लेने ख़ुद आना पड़ा प्रेम चाहता है सम्पूर्णता , मन का समर्पण ,आत्मा का समर्पण ....तन शाश्वत है .,.हमेशा नही रहेगा इसलिए तन से जुड़ा प्रेम भी शाश्वत नही रहता जिस प्रेम में अविश्वास है तो वह तन का प्रेम है वह मन से जुड़ा प्रेम नही है जिस प्रेम में शंका है वह अधिकार का प्रेम है........बस वही नजर इसी उपन्यास में नजर आती है |खुद रविन्द्र प्रभात जी के शब्दों में विवाह जैसी संस्था की परिधि में उन्मुक्त प्रेम की तलाश है यह उपन्यास । इसमें कथा की सरसता भी आपको मिलेगी और रोचकता भी । मित्रता, त्याग,प्यार और आदर्श के ताने बाने से इस उपन्यास का कथानक रचा गया है जो पाठकों को एक अलग प्रकार की आनंदानुभूति देने में समर्थ है ।
          इस उपन्यास का मुख्य पात्र प्रशांत और स्वाती है जिनके इर्द-गिर्द उपन्यास से जुड़ी समस्त घटनाएँ हैं जो पूरे उपन्यास को आगे बढ़ाती हैं । प्रशांत ग्रामीण परिवेश मे पला एक निम्न माध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता है जो शादी-शुदा है और स्वाती एक व्यवसायी की पुत्री है जो शहरी परिवेश मे पली बढ़ी है। घर में लड़ाई होने के कारण प्रशांत शहर आ जाता है और स्वाति के पिता के पास नौकरी करते करते स्वाति के प्रेम में पड़ जाता है |स्वाति जानती है कि प्रशांत विवाहित है पर प्रेम पर कब कौन रोक लगा पाया है और नारी शब्द ही प्रेम से जुडा है और जब नारी प्रेम करती है तो फिर सच्चे मन से खुद को समर्पित कर देती है |औरत प्रेम की गहराई में उतर सकती है |औरत के लिए मर्द की मोहब्बत और मर्द के लिए औरत की मोहब्बत एक दरवाज़ा होती है और इसे दरवाज़े से गुज़र कर सारी दुनिया की लीला दिखाई देती   है |और जब यह प्रेम हो जाए तो प्यार का बीज जहाँ पनपता है वहां दर्द साथ ही पैदा हो जाता है और वह दर्द जुदाई के दर्द में जब हो जाए तो इश्क की हकीकत ब्यान कर देता है ..स्वाति प्रशांत से प्रेम करती है और देव स्वाति से ...सब एक दूजे से जुड़े हुए हैं पर सब के अपने रास्ते हैं |......... यह भी एक हक़ीकत है कि  मोहब्बत का दरवाज़ा जब दिखाई देता है तो उस को हम किसी एक के नाम से बाँध देते हैं| पर उस नाम में कितने नाम मिले हुए होते हैं यह कोई नही जानता. शायद कुदरत भी भूल चुकी होती है कि जिन धागो से उस एक नाम को बुनती है वो धागे कितने रंगो के हैं, कितने जन्मो के होते हैं..वही इस कथानक में स्वाति और प्रशांत के प्रेम के लिए कहा जा सकता है |इसी कथा क्रम में नगीना और देव भी  जुड़ जाते हैं और उपन्यास एक रोचक मोड़ ले कर धीरे धीरे अपनी कहानी के गिरफ्त में ले लेता है ..

      पूरे उपन्यास में बनारस की आवोहवा और बनारस की संस्कृति हावी है ।   जिस के लिए रविन्द्र जी कहते हैं कि र्मैंने बनारस मे कई बरस गुजारें है इसलिए बनारसी परिवेश को उपन्यास मे उतारने मे मुझे मेरे अनुभवों ने काफी सहयोग किया । रविन्द्र जी के कुछ लफ्ज़ कहीं पढ़े थे इसी उपन्यास के सम्बन्ध में कि मेरी राय मे यदि विवाह उपरांत आपसी सहमति से प्रेम संबंध बनते हैं तो गलत नहीं है, क्योंकि हर किसी को अपनी पसंद-नापसंद का अधिकार होना ही चाहिए न कि किसी के थोपे हुये संबंध के निर्वहन मे पूरी ज़िंदगी को नीरसता मे धकेल दिया जाया । हो सकता है मेरे विचारों से आप इत्तेफाक न रखें मगर यही सच है और इस सच को गाहे-बगाहे स्वीकार करना ही होगा समाज को, नहीं तो एक पुरुष प्रधान समाज मे स्त्री की मार्मिक अंतर्वेदना के आख्यान का सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा, ऐसा मेरा मानना है ।" यह सबकी अपनी अपनी सोच हो सकती है प्यार की आभा के विस्तार में ना तो दूरी  मायने रखती है ना ही कोई तर्क वितर्क . त्याग भी एक सीमित अर्थ वाला शब्द बन जाता मुहब्बत में. प्यार को किसी शब्द सीमा में बांधना असंम्भव है ...सोलाह कलाएं सम्पूर्ण कही जाती है पर मोहब्बत .इश्क सत्रहवीं कला का नाम है जिस में डूब कर इंसान ख़ुद को पा जाता है |

इस उपन्यास में कहीं कहीं नाटकीय प्रभाव भी देखने को मिला है सच्चाई और कल्पना से बुना यह उपन्यास कहीं कहीं बहुत भावुकता भी बुन देता है जो मुझे पढ़ते हुए इस में अवरोध ही लगी है | इस किताब के प्रथम पन्ने पर प्रताप सहगल के लिखे से मैं भी सहमत हूँ कि यथार्थ और आदर्श मूल्यों के बीच झूलती उपन्यास की कथा कहीं कहीं मेलोड्रेमिक  भी हो जाती है जो हमें भावुकता के संसार से रु बरु करवा देती है और कहानी को जिस तरह से लिया गया है इसको पुरानी तर्ज पर नया उपन्यास कहा जा सकता है |बहुत सही कहा है उन्होंने ..मुझे भी पढ़ते हुए परिवेश और कई जगह इस में लिखे अंश पुरानी तर्ज़ याद दिला गए | रविन्द्र जी के अनुसार इस  उपन्यास को लिखने की खास वजह यह रही कि प्रेम की स्वतन्त्रता और विवाह जैसी संस्था आदि विवादित विषयों पर नए सिरे से पुन: गंभीर बहस हो । और जब तक यह पढा नहीं जायेगा तो बहस कैसे होगी .इस लिए कहूँगी कि पढने लायक है एक बार आप जरुर पढियेगा इसको |

Wednesday, September 12, 2012

रेत का समन्दर



रेत का समन्दर  (कविता-संग्रह)
 कवियत्री रमा दिवेद्धी
मूल्य- रु २३८
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016




रेत के समन्दर सी है यह ज़िन्दगी

तूफ़ां अगर आ जाए बिखर जाए ज़िन्दगी।
अश्रु के झरने ने समन्दर बना दिया
सागर किनारे प्यासी ही रह जाए जाए

यह पंक्तियाँ है डॉ रमा दिवेद्दी जी की ..रेत का समंदर ...उनका दूसरा काव्य संग्रह है ...रेत के के समान छोटे छोटे लफ़्ज़ों से बड़ी बात कहता हुआ समन्दर सा विस्तृत . जिस में हिंदी काव्यधारा की हर विधा शामिल है...... माया श्रृंखला ,मुक्तक ,छंद मुक्त कवितायें ,क्षणिकाएं और हाइकु इस में हैं ...उन्होंने अपनी कविताओं में जीवन के अनदेखे ,अनजाने और अनचीन्हे सत्य को दिखाने की कोशिश की है ..
न हो जहाँ बैर भाव ऐसी प्रीत पायें सब
दिल में खिले गुलाब ऐसी प्रीत पा जाएँ

रमा जी ने हर विषय पर गीत लिखे हैं ..नए साल पर प्यार के ढाई आखर पर मानव कल्याण पर ..
नए साल के स्वागत पर लिखती हुई वह कहतीं हैं ...
झूमता हुआ नया साल फिर से आया
एक वर्ष भी बीत गया ,नया वर्ष फिर आया है
कितना खोया ,कितना पाया ?गणित नहीं लग पाया है ..
इस में साथ साथ बीतती ऋतुओं का भी जिक्र है ..
गोरी हुई दीवानी है
पनघट को जानी मानी है
गगरी भरी छलकाई झूम झूम के
आया बंसत झूम के आया बसंत ..बसंत है तो गर्मी का भी ज़िक्र बखूबी है ...
तन जलता
मन बहुत मचलता
दिन निकले कैसे
शुष्क नदी में
मीन तडपती
बिन पानी जैसे
ताल तलैया सब सूख गये हैं
पोखर सब सिमटे ..
गर्मी ऋतू वाकई इस तरह से ही तपा देती है .....तपा तो प्रेम भी देता है और उसी के हर रूप को रमा जी ने बखूबी अपने लफ़्ज़ों में उतारा है .........कि प्यार में जो तपने का मिटने का जो होंसला नहीं रखते वे खुदा से भी प्यार नहीं कर सकते हैं ..
इश्क में मिट जाने का गर इल्म नहीं आया ,
खुदा से ऐसे लोग प्यार नहीं करते
प्यार है तो दर्द का नाम भी साथ ही है ....और शिकायत भी ज़िन्दगी से
चाही नहीं थी दौलत
चाहे न हीरे -मोती
इक यार की तमन्ना
ख्वाइश यही थी दिल की
न मिल सका वस्ल ऐ यार कोई
ज़िन्दगी बस यही शिकायत है मुझे तुझसे
इस संग्रह में माया श्रंखला भी है ...जो दुनिया में घटने वाली आज और कल को जोड़ कर किसी और ही माया की दुनिया में ले जाती है यहाँ महाभारत के साथ जोड़ कर आज के समय के साथ भी इसको जोड़ना बहुत ही सही लगता है
अश्रु भी बिक जाते हैं /माया के दरबार में
चीखो का कितना मूल्य हैं ?साँसों के व्यापार में
इस के अलावा इन्होने क्षणिकाएं बहुत सुन्दर लिखी है मृत्यु पर आज के समाज की एक सच्चाई सामने लायी है ..
ऐसे भी लोग देखें हैं ,हमने
गए थे मातम को बांटने ,
घंटी बजाई ,दरवाज़ा खुला
देखा ....
सामने वाले टी वी देखने में व्यस्त है |
आज का समाज वाकई बहुत तेजी से बदल रहा है ..वह रमा जी के लिखे में बहुत खूबसूरती से उभर कर आया है |
इस के आलावा इस संग्रह में एक हाइकु का पन्ना भी है ..जिस में भी सच्ची बात है जीवन की ..
आधुनिकता
नीलामी
संबंधों की
खुली दुकान ..
और पढ़िए ..एक सच ..
सभ्य इंसान
असभ्य हरकतें
युग का सच
रमा जी की लेखनी में बहुत दम है ,हर बात को उन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से कहा है |हालंकि यह नहीं कह सकते कि कोई कमी नहीं है ..राकेश खंडेलवाल ने उनके लिए लिखते हुए कहा है कि ...उनकी गजलों में विद्दतजनों   को बहर,रदीफ़ ,और काफिये में भले ही कमी दिखाई दे .परन्तु उनके लिखने की भावनाओं में कमी नहीं है ."सही बात है यह ..|रमा जी से मैं मिली हूँ और उनके मिलने में ही एक सकारात्मक उर्जा महसूस होती है वही उनके इस संग्रह को पढ़ कर हुई ...वह निरंतर आगे बढे और उनकी कलम से हम नित्य नयी बात पढ़ सके इसी दुआ के साथ उन्हें बहुत बहुत शुभकामनाएं ..

Monday, September 10, 2012

आवारा ख्याल ४


पूर्वा भाटिया

 भूलभुलैया ............
भटकते हुए रास्ते
और तलाश उस मंजिल की
जो मिल जाये तो
मोक्ष ..
और न मिले तो
कब्र गाह ....

 *******************
पूर्वा भाटिया

भूलभुलैया 
लखनऊ के
एक किले के अन्दर
बनी दीवारों के बीच बनी
उन रास्तों सी हैं
जो खुद में घुमाते हुए
उन बातों का एहसास
करवा देती हैं
कि ज़िन्दगी
की पूरी किताब
बस इन्ही रास्तों सी है
जहाँ कुछ जगमगती है
रोशनी तो
रास्ता मिल जाता है
वरना मिले हुए अंधेरों में
हर रास्ता सिर्फ तन्हा
और भटकता हुआ
ही अंत पाता है ....
***************************
पूर्वा भाटिया

 भूलभुलैया
की मोटी दीवारों के बीच का आवारा ख्याल ..... 


धीमी धीमी सी
आवाजों की सरगोशी
और महज कुछ पल
दूर होने का एहसास
बहुत रूमानी कर देता है
दिल को यह ख्याल ही
कि काश ऐसा कुछ
तेरे मेरे दिल की धडकनों
के बीच में भी
जुडा हुआ होता ?

अवध की इन इमारतों की ख़ास बात यही है कि इन इमारतों में जो पोरेसिटी होती  है उसी के चलते दीवारों के कान होते है वाला मुहावरा भी मशहूर हुआ और भूल  भुलैया में दीवार के एक छोर पर कोई कागज फाड़े तो तो दूसरे छोर पर आवाज  सुनी जा सकती है इसकी दीवारों के बीच छुपे हुए लम्‍बे  गलियारे हैं, जो लगभग 20 फीट मोटी हैं। यह घनी, गहरी रचना भूलभुलैया कहलाती  है और इसमें केवल तभी जाना चाहिए जब आपका दिल मज़बूत हो। इसमें 1000 से  अधिक छोटे छोटे रास्‍तों का जाल है जिनमें से कुछ के सिरे बंद हैं और कुछ  प्रपाती बूंदों में समाप्‍त होते हैं, जबकि कुछ अन्‍य प्रवेश या बाहर  निकलने के बिन्‍दुओं पर समाप्‍त होते हैं। , यदि आप इस भूलभुलैया में खोए बिना वापस  आना चाहते हैं तो गाइड साथ रखे ..हम खो गए थे ...गाइड ने हमें ढूंढा:)।जानकारी गूगल और गाइड के माध्यम से ..फोटोज पूर्वा भाटिया .और आवारा ख्याल मेरे बावरे मन की उड़ान के माध्यम से :)
आवारा ख्याल ३

Friday, September 07, 2012

क्षितिजा

क्षितिजा( काव्य संग्रह )

क्षितिजा काव्य संग्रह
कवियत्री अंजू अनु चौधरी
मूल्य- रु 238
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिप्कार्ट से खरीदने का लिंक



किसी भी किताब के बारे में लिखना और फिर जिसने उस किताब को लिखा है और फिर उसके बारे में लिखना बहुत अलग अलग अनुभव होता है ..यह मैंने क्षितिजा के बारे में लिखते हुए अनुभव किया ....जब आप किताब पढ़ रहे होते हैं तो उस लिखने वाले के शब्दों से परिचित होते हैं ..पर जब आप उस से मिल कर लिखते हैं और लफ़्ज़ों के साथ साथ वह व्यक्तित्व  भी आपके जहन में होता है ..अपनी माटी  हरियाणा करनाल की अंजू जी से जब मिली तो उन्ही की  लिखी कई पंक्तियाँ जहन में कौंध गयी जो उनसे मिलने से पहले ही रात में क्षितिजा में पढ़ी थी ....बंधी हुई मुट्ठियों से फिसलती है
हर दिन की आखिरी  किरण
दे जाने को एक नई
सांझ जीवन की
उठती हुई इस क्षितिजा को ....बहुत अपनी सी लगी अंजू जी और बहुत मोहक सी उनकी वह मुस्कान जो अपने दबे होंठो में वह छिपाए रहती हैं ..अनकही सी जैसी कुछ भाषा कहते हुए ..:)
           क्षितिजा का अर्थ होता पृथ्वी की कन्या ...धरती की कन्या है तो उसका स्वभाव ही नारी युक्त है और वह नारी भाव से घिरी हुई है ..और अंजू जी की अधिकतर रचनाएं है भी नारी के भावों पर ..खुद अपने परिचय में वह कहती है कि" नारी के भावों को शब्द देते हुए उनकी प्रति क्रियाओं को सीधे सपाट शब्दों में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है "और यह सच भी लगा कब "कस्तूरी" के विमोचन में "आधी रात का दर्द "उनकी कविता सुनी ..|  एक औरत के दर्द को जो उन्होंने लफ़्ज़ों में पिरो के जिस सहज भाव से सुनाया वह भुला नहीं जा सकता है |
         ज़िन्दगी का खालीपन यदि क्रियात्मक सोच "कविता "जैसी विधा में बदल जाए तो उस से बेहतरीन कुछ नहीं हो सकता है और सही कहा है अंजू जी ने कि इस वक़्त में लिखी गयीं कवितायेँ उनके बेहद करीब होती हैं |
उनके इस संग्रह में चलते हैं कविताओं के सफ़र पर ..जिनकी चुनिन्दा पंक्तियाँ उनके व्यक्तित्व का आईना लगी मुझे
अभी भी है यूँ
एक लम्बा
सफ़र तय करना
होगा नया सफ़र
होगी जिसकी
एक नयी मंजिल (फुटपाथ पर चलते हुए ) कविता का यह कहना ही यह एहसास करवा देता है कि सफर जारी है और अपने लफ़्ज़ों के दरमियान अपनी बाते हमसे कहता चल रहा है ...
आज वो घर कहाँ
बसते थे इंसान जहाँ
आज वो दिल कहाँ
रिसता था प्यार जहाँ
हर घर की दीवार
पत्थर हो गयी
दिल में सिर्फ बसेरा है गद्दारी का ..सही सच है यह ..हर घर की अब यही कहानी हो चुकी है ..घर कम और मकान अधिक नजर आते हैं ..जहाँ इंसान तो बसते हैं पर ..अनजाने से
पर प्यार का रंग यदि साथ हो तो ज़िन्दगी की तस्वीर बदल सी जाती है
उसके साथ चलते चलते
ये ज़िन्दगी इस मुकाम
पर पहुँच गयी ..
जहाँ मैं ...मैं न रह कर
हम हो गए
इस प्यार में ...
सात फेरे  से बंधी नयी ज़िन्दगी की पंक्तियाँ जब ली जाती है तो एक डर स्वाभाविक सा हर नयी नवेली के दिल में होता है उसी को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं अंजू जी ने अपनी इस रचना में ..
नयी राहों पर
उन संग कदम से कदम
मिलाने को
अब कर्तव्यों के संग
मैं भी तैयार हूँ
अपने हर अधिकार
को पाने को
ताकि ये रिश्ते की डोर कभी न
ढीली पड़ जाए मेरी किसी भी नादानी से ...पर जिसने हाथ थामा है वह भी कह रहा है बहुत स्नेह से ..
बड़े प्यार से
थाम कर हाथ मेरा
कहा --
मैं हूँ न तुम्हारे साथ
चलो तुम ..
धैर्य के पथ पर
मुश्किलों के रथ पर

सुन कर बौराए  दिल ने कहा ..

 उसकी आँखों की मौन स्वीकृति ने
मुझे उस खुदा का मुजरिम बना डाला
क्यों कि उसकी इबादत से पहले
मैंने सजदा अपने प्यार का
अपने  हुस्ने -ए- यार का कर डाला
अंजू जी रचनाओं में प्रेम .इन्तजार ,,कुदरत ,विरह और आक्रोश सभी रंग शामिल हैं ...और सभी रंग बहुत साफ़ लफ़्ज़ों में साफ़ भावों में मुखिरत हुए हैं कलम की जुबान से ...पर अधिकतर रचनाओं में नारी मन की छाप है और नारी मन की ही बात ..स्त्री एक सोच भी है और स्त्री खुद ही उस सोच के लफ्ज़ भी ..कई रंग अपने में समेटे हुए अंत तक आते आते वह दोहरा जाती है ..कहीं बंधी है कहीं अब भी घुटी हुई सी है .अंजू जी के इस काव्य संग्रह के शुरू के पन्नो पर जब एक पुरुष यह बात खुल कर कहता है तो मन बरबस वाह करने को कह उठता है ..डॉ वेद व्यथित ने लिखा है कि "नारी समपर्ण भाव ही उसके दुःख का कारण बन जाता है जबकि पुरुष इस का भरपूर लाभ उठाना अपना अधिकार मान कर नारी ह्रदय  को अपने मनोरंजन की  वस्तु मान कर उपयोग करता है "
सच है यह बिलकुल औरत के दिल के यही भाव उनकी रचनाओं में सिमट गए हैं ...
मैंने अपनी आप को
शब्दों में ढाल लिया है
खुद को माया जाल
में फांस लिया
देख और समझ
कर भी सच्चाई से
मुहं मोड़ लिया
खुद को जीने के लिए
अस्तित्व की लड़ाई में
दिल पर नश्तर हजार लिए .....मैं और तुम कविता से
बचपन के झरोखे से ...
कच्ची अम्बी
झुकती डाली
डाल पे कूकती
कोयल काली काली
शरारत में
आम तोड़ता
बचपन हमारा .............इस संग्रह में कई रचनाएं उनकी बहुत ही हैरान कर देने वाली हैं ..नए प्रयोग सी ..जैसी कि यह मैं शब्द हूँ ...
शब्द व्यर्थ ,शब्द अनर्थ ,शब्द मौन ,शब्द गूंज ...शब्द ही आत्मविश्वास इस जीवन का ...सही में बहुत ही सच्ची अच्छी रचना है यह ..और भी जिनके नाम मैं ख़ास कर लेना चाहूंगी ...चाय का कप ..भविष्य की रिहर्सल ,हे !गौतमबुद्ध ..आदि उनकी इस संग्रह में उल्लेखनीय रचनाएं हैं ..जिसको पढ़े बिना इस संग्रह के बारे में अधूरा सा था ........
       अंजू जी के इस काव्य संग्रह की समीक्षा बहुत जगह आ चुकी है .बहुत सी रचनाओं का ज़िक्र मैंने इस में कर भी दिया है कुछ आप अन्य जगह भी पढ़ चुके होंगे ...इस लिए इन में छपी रचनाओं के बारे में अधिक बाते न कर के यह बताना जरुरी है कि यह संग्रह पढने लायक है संजोने लायक है .मुझे यह किताब देर से मिली .. इस संग्रह का विमोचन अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला, प्रगति मैदान, नई दिल्ली में हुआ था जा भी नहीं पाई थी ..अब इसको पढ़ कर और अंजू जी से मिल कर इस पर कुछ लिखना अच्छा लगा ..सबसे अधिक इसका आवरण बहुत ही सुन्दर है ..हरे रंग में लिपटा हुआ स्त्री मन को परिभाषित करता हुआ |अपने इस संग्रह के कारण अंजू जी को महात्मा फ़ूले टैलेंट रिसर्च अकादमी द्वारा और  महादेवी वर्मा कवियत्री सम्मान दिया गया है .और भी कोई सम्मान मिले हो तो मैं जान नहीं पायी हूँ ..बहुत बड़ी उपलब्धि है  यह अंजू जी के सफ़र के शुरुआत में ही ..अभी इन्होने कस्तूरी संग्रह का संपादन किया है मुकेश कुमार सिन्हा जी के साथ मिल कर ..वट वृक्ष पत्रिका की सह -संपादिका भी हैं ...बहुत सरल स्वभाव की यह लेखिका अपने लफ़्ज़ों से अपने चमत्कारिक व्यक्तित्व से हर किसी को अपना बना लेने का हुनर जानती है ...अपने लिखे इन शब्दों का अंत ..मैं उन्हीं की लिखी पंक्तियों से करना चाहूंगी ...जिनसे उनके आने वाली ख्वाइश जाहिर होती है
भीतर कहीं बहुत गहरे
छटपटाहट है ..
खुद -को खुद से मुक्त करवाने की
आकाश की कितनी उंचाई
मैंने नापी है
धरती पर कितनी दूरी तक
बाहें पसारी है
एक सुनहरे उजाले के लिए
निरंतर अब आगे बढ़ रही
एक नयी रोशनी के साए में
खुद को एक राह देने के लिए | ..आप इसी उम्दा सोच के साथ अंजू जी आगे बढे और आसमान की उंचाई को छू लें .अमीन !!

Thursday, September 06, 2012

आवारा ख्याल( 3)

पूर्वा भाटिया
हर वो ख्वाब
पूरा हो जाता
यदि तेरे मेरे
दिल की धडकनों
का हिसाब किताब भी
इमामबाड़े में बनी उस
भूलभुलैया  की तरह
बाइनरी गणितीय पद्धति
के सिद्धात पर बना होता !!
*********************
पूर्वा भाटिया

भूलभुलैया
वह रास्ते जो
अक्सर भटका देते हैं
इधर उधर
और फिर उनसे
बाहर निकलने की छटपटाहट
उबलने लगती है अन्दर
ठीक किसी कोख में पड़े हुए
मासूम बच्चे सी ........
 *********************************
पूर्वा भाटिया
भूलभुलैया
ज़िन्दगी की उन
नादानियों और गलतियों
की तरह ...
जो अनजाने में हो कर
नतीजा बहुत ही दिलकश
और रूमानी
दे जाती हैं
********************************
शहंशाहों ने हिंदुस्तान में कई मकबरे और किले बनवाएं ,लेकिन उनके साथ कई किस्से भी छोड़ गए आसफउदौला जब बड़ा इमामबाडा बनबा रहा था,उसी वक्त पूरा अवध भयंकर अकाल से त्रस्त था इसमें विश्व-प्रसिद्ध भूलभुलैया बनी है, जो अनचाहे प्रवेश करने वाले को रास्ता भुला कर आने से रोकती थी। इसका निर्माण नवाब ने राज्य में पड़े अकाल  से निबटने हेतु किया था। इसमें एक गहरी बावली भी है। एक कहावत है के जिसे न दे मोला उसे दे आसफूउद्दौला  |गरीब जनता के राजा उन्हें इमारत के इमामबाड़ा के काम पर रखा को दान देने के बजाय अकाल के समय में. मजदूरों के एक समूह के लिए यह दिन के समय में निर्माण मजदूरों के अन्य समूह रात में ध्वस्त करने के लिए इस्तेमाल किया. सभी काम के लिए भुगतान किया गया. इस अकाल की अवधि तक जारी रहा.  सन १७८४ में असफ-उद-दौला द्वारा बनी भूलभुलैया में १०२४ सीढियां हैं , जो बाइनरी गणितीय पद्धति पर आधारित हैं। इन्हें '२' को आधार मानकर २ की घात १० गुना अर्थात [ २ x २ x २ )= १०२४ सीढियां बनायीं गयीं ।भूलभुलैया का विशाल भवन बिना किसी खम्बे के २० फीट मोटी दीवारों से रुका हुआ है। यह दुनिया की एकमात्र सबसे बड़ी धनुषाकार संरचना है। इसमें बार-बार चढ़ने वाले तथा उतरने वाली सीढियां हैं। जो डेड-एंड पर समाप्त होती हैं। इसमें जो एक बार घुस जाता है वो आसानी से बाहर नहीं आ सकता ।बाइनरी पद्धति के इस्तेमाल से इसमें भूलभुलैया वाला इफेक्ट बेहतर तरीके से लाना संभव हो पाया|और गाइड ने बताया कि  छत की दीवारों को बनाये रखने के लिए यह भूलभुलैया अनजाने में बनी थी .


(यह जानकारी वहां बताये गए गाइड के अनुसार और लखनऊ पर लिखे एक लेख पर आधारित है ..और लगी फोटोज पूर्वा भाटिया  और यह आवारा ख्याल  (एक और दो के साथ यह भी )जो उन्हें देख कर उड़े दिमाग की सतह पर वह पूर्णता मेरे हैं :)

Wednesday, September 05, 2012

आवारा ख्याल (२ )










एक छत मय्सर है
चाँद तारों की
और न जाने उस
ताने हुए शामियाने तले
कितनी और
ईंटगारों का 
शमियाना तानते हुए
उन्हें नाम
कई छतों का दे डाला
उस इंसान ने जो खुद
एक छत की तलाश में
भटकता रहा
जीवन के अंतिम पलों तक ...........(छोटा इमामबाडा में लगे रोशन चिन्ह   )छोटा इमामबाडा: इसका निर्माण नवाब मो. अली शाह ने किया था। इस इमारत की नक्काशी और झाड फानूस देखने लायक हैं।
आवारा ख्याल (१)

Saturday, September 01, 2012

विपरीत

एक सन्नाटा
एक ख़ामोशी
किस कदर
एक दूजे के साथ है
"सन्नाटा" जमे हुए लावे का
"ख़ामोशी "सर्द जमी हुई बर्फ की
दोनों एक दूजे के विपरीत
पर संग संग एक दूजे को
निहारते सहलाते से अडिग है
लावा जो धधक रहा है
जब बहेगा आवेग से
तो जमी बर्फ का अस्तित्व
भी नहीं रह पायेगा
हर हसरत हर कशिश
उस की उगलते
काले धुंए में
तब्दील हो जाएगी
तय है दोनों के अस्तित्व का
नष्ट होना ...फिर भी
साथ साथ है दोनों
ख़ामोशी से एक दूजे को सुनते हुए
एक दूजे के साथ रहने के एहसास
को सहते हुए ...
ठीक एक आदम और हव्वा से
जो सदियों से प्रतीक हैं
इसी जमे लावे के
और सर्द होती जमी बर्फ के !!!!

यह रचना इस चित्र से जुडी हुई है .....जो अपनी सुन्दर छवि से अनेक रचनाएं मुझसे लिखवा गयी ..यह उन में से एक है ...