Monday, March 12, 2012

शिकवा

जब कहा मैंने उस से
कि मैं तो  हूँ
बहती नदिया
एक निरतंर बहती धारा
लम्हों से टकराती
बल खाती
इठलाती
अपनी मंजिल
सागर से मिलने चलती जाती हूँ

सुन कर वो हंसा
और बोला .
कि कैसे मानूँ  ..?
खड़ा था मैं भी वहीँ  किनारे
अपनी दोनों बाहें  पसारे
चला भी था साथ तुम्हारे
चाहे वह दो ही कदम थे
पर तुमने न दी एक बूंद भी
और न ही साथ बहने का किया इशारा
अब कैसे कहूँ कि "तुम नदी हो "शिकवा
सागर संग मिलेगी कैसे धारा ...?????

17 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत सुन्दर रचना.........
सादर.

सदा said...

बहुत ही अच्‍छी शब्‍द रचना ...

रंजना said...

भावपूर्ण...

रंजना said...

भावपूर्ण...

Shanti Garg said...

बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना, शुभकामनाएँ।

Shanti Garg said...

बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना, शुभकामनाएँ।

रेखा श्रीवास्तव said...

bahut bhavpurn rachana nadi see nirmal aur sagar se gahari bhavanaaon ko saheja hai isamen.

दिगम्बर नासवा said...

वाह ... नदिया तो अंत में सागर से मिलती है ... जो भी उसके सामने आता है उसे ले के ही मिलती है ... पर इस शिकवे का क्या करें ये भो तो एक सच ही होता है ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छी प्रस्तुति ...

Shalini Khanna said...

सुन्दर रचना...........

प्रवीण पाण्डेय said...

अपने प्रवाह में औरों को आमन्त्रित कर लेने का भाव..

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

milan ho jaaye!!

धनपत स्वामी said...

बेहतरीन रचना....

धनपत स्वामी said...

बेहतरीन..सुन्दर अभिव्यक्ति....

रोहित said...

BEHAD SUNDAR KAVITA...

रोहित said...

behad sundar kavita..

dinesh gautam said...

भावनाओं की एक नदी आपके भीतर चुपचाप बह रही है। आपकी इस पोस्ट में उसकी कल-कल है। बस बहने दें इसे, एक दिन इसके उद्दाम वेग में सब कुछ बह जाएगा देखना।कोई नहीं टिक पाएगा इसके प्रवाह में । मेरी शुभकामनाएँ! सचमुच एक भावप्रवण अभिव्यक्ति।