जब कहा मैंने उस से
कि मैं तो हूँ
बहती नदिया
एक निरतंर बहती धारा
लम्हों से टकराती
बल खाती
इठलाती
अपनी मंजिल
सागर से मिलने चलती जाती हूँ
सुन कर वो हंसा
और बोला .
कि कैसे मानूँ ..?
खड़ा था मैं भी वहीँ किनारे
अपनी दोनों बाहें पसारे
चला भी था साथ तुम्हारे
चाहे वह दो ही कदम थे
पर तुमने न दी एक बूंद भी
और न ही साथ बहने का किया इशारा
अब कैसे कहूँ कि "तुम नदी हो "शिकवा
सागर संग मिलेगी कैसे धारा ...?????
कि मैं तो हूँ
बहती नदिया
एक निरतंर बहती धारा
लम्हों से टकराती
बल खाती
इठलाती
अपनी मंजिल
सागर से मिलने चलती जाती हूँ
सुन कर वो हंसा
और बोला .
कि कैसे मानूँ ..?
खड़ा था मैं भी वहीँ किनारे
अपनी दोनों बाहें पसारे
चला भी था साथ तुम्हारे
चाहे वह दो ही कदम थे
पर तुमने न दी एक बूंद भी
और न ही साथ बहने का किया इशारा
अब कैसे कहूँ कि "तुम नदी हो "शिकवा
सागर संग मिलेगी कैसे धारा ...?????
17 comments:
बहुत सुन्दर रचना.........
सादर.
बहुत ही अच्छी शब्द रचना ...
भावपूर्ण...
भावपूर्ण...
बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना, शुभकामनाएँ।
बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना, शुभकामनाएँ।
bahut bhavpurn rachana nadi see nirmal aur sagar se gahari bhavanaaon ko saheja hai isamen.
वाह ... नदिया तो अंत में सागर से मिलती है ... जो भी उसके सामने आता है उसे ले के ही मिलती है ... पर इस शिकवे का क्या करें ये भो तो एक सच ही होता है ...
अच्छी प्रस्तुति ...
सुन्दर रचना...........
अपने प्रवाह में औरों को आमन्त्रित कर लेने का भाव..
milan ho jaaye!!
बेहतरीन रचना....
बेहतरीन..सुन्दर अभिव्यक्ति....
BEHAD SUNDAR KAVITA...
behad sundar kavita..
भावनाओं की एक नदी आपके भीतर चुपचाप बह रही है। आपकी इस पोस्ट में उसकी कल-कल है। बस बहने दें इसे, एक दिन इसके उद्दाम वेग में सब कुछ बह जाएगा देखना।कोई नहीं टिक पाएगा इसके प्रवाह में । मेरी शुभकामनाएँ! सचमुच एक भावप्रवण अभिव्यक्ति।
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