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Friday, March 26, 2010
दो रंग ...(कुछ यूँ ही )
अस्तित्व
अपना ही अस्तित्व
अजनबी सा
नजर आता है
मुझे ...
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
आईना
अपना ही चेहरा
बिना आवाज़ के
सामने तो दिख जाता है
पर ....
आईने के पीछे की दुनिया
क्या है.........
यह कौन देख पाता है ?
दिखते अक्स में
धडकता दिल है
पीछे आईने की दीवार को
कौन कब समझ पाता है ....?
रंजना (रंजू ) भाटिया
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24 comments:
ranjana ji,
tareef ke liye shabd nahi mil rahey hain....adbhut rachna aapki jaadui kalam se...
"आईने के पीछे की दुनिया
क्या है........."
बात एकदम सच है..
"यह कौन देख पाता है ?
दिखते अक्स में
धडकता दिल है.."
वो कम्बख्त दिखता कहा है, सिर्फ़ धडकता रहता है...
दोनों ही रचनाएँ गहरे भावों को समेटे हुए हैं....
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
इन पंक्तियों से खुद के अस्तित्व में विसंगति प्रदर्शित हो रही है
आईने के पीछे की दुनिया
क्या है.........
यह कौन देख पाता है ?
और इनमें सच कहा है की आईने के पीछे का कुछ पता नहीं चलता....जो आईने में दिखता है वो तो पहले भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है...
सुन्दर अभिव्यक्तियाँ हैं...
अपना ही अस्तित्व
अजनबी सा
नजर आता है
मुझे ...
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
बेहद गहन अभिव्यक्ति…………………बहुत ही मार्मिक्…………अंतस मे बहुत गहरे उतर गयी।
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
waah, bahut kuch kah diya
सुंदर अद्भुत और बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति...........
बहुत सुन्दर रंजना जी. बधाई.
वाह...वाह...वाह...
दोनों ही क्षणिकाएं बेजोड़ हैं...मन मोह लेने वाली हैं....
आनंद आ गया पढ़कर...
आभार...
Dono hi rang behad khubsurat.
बहुत सुन्दर! :D
Sundar...gahana chintan, bahut bhadiya!!
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
कितनी पीड़ा है,इन शब्दों में ...
बहुत ही गहरी अभिव्यक्ति
अपना ही अस्तित्व
अजनबी सा
नजर आता है
मुझे ...
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
अपने दिल के भावो को जिस तरह सुन्दर शब्दों में पिरो कर आपने कविता पेश की है उसके लिए तो मै यही कहूँगा की गजब की लेखनी और अजब भावो के लिए जितनी तारीफ करूँ उतनी कम है. फर्क इतना है की मै कुछ ऐसे ही भावो से गुफ्तगू करता हूँ और आप कविता लिखती है. कभी समय निकाल कर मेरी गुफ्तगू में भी शामिल हो तो अच्छा लगेगा.
www.gooftgu.blogspot.com
अपना ही अस्तित्व
अजनबी सा
नजर आता है
मुझे ...
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
यह तो मन को छू गया.बहुत ही सुंदर.
Dono hi rachnayen gahan bhaav liye hain.
dil ko chhu gayeen.....
पीछे आईने की दीवार को
कौन कब समझ पाता है ....?
behad umda abhivyakti!
अपना ही अस्तित्व
अजनबी सा
नजर आता है
मुझे ...
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
गैरों पे करम अपनो पे सितम ... बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति ... छोटी पर तेज़ ..
हम्म्म्म....
वेदना जब हद से बढ़ने लगे, तो क्या होता है...
शायद वे शब्दों का रूप धर लेते हैं...एक एक शब्द वेदना और के बजन से दबा हुआ...
आलोक साहिल
Great poetry. I have referred your blog in my latest article.
दर्पण के पहलू में क्या क्या छिपा है किसे पता
बहुत सुन्दर
आईने के पीछे की दुनिया
क्या है.........
यह कौन देख पाता है ?
बहुत ही बढिया रंजना जी ।
gahre bhaavo ko samaite dil ko chhu jane wali rachna. badhayi.
dono hi khsanikayen man ko gahare chhoo gayin.
जब गैरों को तू
मुझे अपना कह कर
मिलाता है.......
वाह......बहुत खूब .....!!
दोनों रंग दिखा दिए आपने रंजना जी आईने के पीछे के भी आगे के भी .....लाजवाब.....!!
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