Monday, August 19, 2019

एक सफ़र स्त्री मन का खुद से बातें करते हुए ...


ज़िन्दगी जीने का नाम है एक सफ़र स्त्री मन का खुद से बातें करते हुए ; इस लेख की इस कड़ी में हम उस स्त्री मन की बात करेंगे जो वह अकेले में खुद से करती रहती है  ,उसका यह मन कभी ख़ुशी कभी उदास , कभी बच्चे सा उत्साहित हो उठता है  और तब वह उसको कविता , कहानी  या बोलते शब्दों में ढाल लेती है .. आज इस कड़ी का पहला भाग 



जब से यह संसार बना "आदम इव "के रूप में इसको चलाने के लिए  ईश्वर ने दोनों को समान अधिकार दिए .स्त्री में ममता ,प्रेम अधिक भर दिया क्यूंकि आगे सृष्टि को चलाने वाली वही थी ,और जब स्त्री प्रेम करती है तो खुद को सच्चे मन से सौंप  देती है ,वह उसकी अनन्त गहराई में उतर जाती है वैसे तो दोनों के लिए दिल से मोहब्बत एक जीने का दरवाज़ा होती है जहाँ से गुजर कर ही अपने आस पास के परिवेश को समझा जा सकता है ,यह प्रेम एक दूजे को एक नाम से  बाँध देता है पर उस नाम में कितने नाम मिले हुए होते हैं कोई नहीं जानता स्त्री का अपना वजूद प्रेम से मिल कर बस प्रेम रह जाता है ,हम सभी ईश्वर से प्रेम करते हैं और साथ ही यह भी चाहते हैं की ज्यादा से ज्यादा लोग उस ईश्वर से प्रेम करें पूजा करें वहाँ पर हम ईश्वर पर अपना अधिकार नही जताते !हम सब प्रेमी है और उसका प्यार चाहते हैं परन्तु जब यही प्रेम किसी इंसान के साथ हो जाता है तो बस उस पर अपना पूर्ण अधिकार चाहते हैं और फिर ना सिर्फ़ अधिकार चाहते हैं बल्कि आगे तक बढ जाते हैं और फिर पैदा होती है शंका ..अविश्वास ...और यह दोनो बाते फिर खत्म कर देती हैं प्रेम को ...फिर बात सिर्फ तन के साथ जुडी रह जाती है तब सहज शब्दों में बात यूँ निकलती है

जिन्दगी के सफर में चलते चलते तुम मिले
मिले तो थे तुम खुशबुओं के झोंको की तरह
लेकिन देह की परिभाषा पढ़ते पढ़ते
जाने कहाँ तुम गुम हो गए !
काश की इस रूह को छू पाते तुम
काश की इस रूह को महसूस कर पाते तुम
अगर छुआ होता तुमने रूह से रूह को
तो यह जीवन का मिलन कितना मधुर हो गया होता
पा जाता प्रेम भी अपनी सम्पूर्णता
यदि तुमने इसको सिर्फ़ दिल से रूह से महसूस किया होता !!""

पर पुरुष के लिए अधिकतर इस बात को समझना मुश्किल होता है ,एक वक़्त था जब नारी की बात को महत्व दिया जाता था उसकी इच्छाओं को भी मान्यता मिलती थी पर वह स्त्री जो वैदिक युग में देवी थी वह धीरे धीरे कहीं खोने लगी ,पुरुष स्त्री की सहनशक्ति ,ताकत से डरने लगा ,तब जंगली कानून बने ,हर जगह पुरुष को बेहतर बना कर उसको इतना कमजोर कर दिया की वह हर बात के लिए पुरुष पर निर्भर रहने लगी ,उसकी ज़िन्दगी अधूरी ख्वाइशों में घुटने लगी ..झूठी मुस्कान को ओढ़े वह अपने जीवन को वह जीने के नए ढंग देती जाती है और हर सामने वाली औरत के चेहरे की झूठी हंसी को देख कर मुस्कराती रही ,क्यूंकि यह हंसी का ,मुस्कान का राज़ एक स्त्री ही दूसरी स्त्री का आसानी से समझ सकती है 

मोनालिसा और मैं 

जब भी देखा है दीवार पर टंगी
मोनालीसा की तस्वीर को
देख के आईने में ख़ुद को भी निहारा है
तब जाना कि ..
दिखती है उसकी मुस्कान
उसकी आंखो में
जैसे कोई गुलाब
धीरे से मुस्कराता है
चाँद की किरण को
कोई हलका सा 'टच' दे आता है
घने अंधेरे में भी चमक जाती है
उसके गुलाबी भींचे होंठो की रंगत
जैसे कोई उदासी की परत तोड़ के
मन के सब भेद दिल में ओढ़ के
झूठ को सच और
सच को झूठ बतला जाती हैं
लगता है तब मुझे..
मोनालीसा में अब भी
छिपी है वही औरत
जो मुस्कारती रहती है
दर्द पा कर भी
अपनों पर ,परायों पर
और फ़िर
किसी दूसरी तस्वीर से मिलते ही
खोल देती है अपना मन
उड़ने लगती है हवा में
और कहीं की कहीं पहुँच जाती है

अपनी ही किसी कल्पना में
आंगन से आकाश तक की
सारी हदें पार कर आती है
वरना यूं कौन मुस्कराता है
उसके भीचे हुए होंठो में छिपा
यह मुस्कराहट का राज
कौन कहाँ समझ पाता है!!


सही में अगर स्त्री मन को कोई समझ लेता तो वह जाना लेता कि सृष्टि ने जो सहज प्रेम भाव उसको दिया है वह अनमोल है ,अपने सपने को वह कलम के जरिये तो कह देती है ,पर उस लिखे को जीने के लिए उसका रोज़ का नया संघर्ष होता है ,खुद को समझाती हुई वह यही कहती है ज़िन्दगी अभी बाकी है .....

ज़िन्दगी अभी बाकी है ........शेष अगले अंक में 

10 comments:

Udan Tashtari said...

ज़िन्दगी अभी बाकी है

Meena Bhardwaj said...

अत्यन्त सुन्दर ।

संजय भास्‍कर said...

वाह ...बहुत खूब कहा है आपने

उषा किरण said...

गजब...मोनालिसा को कितनी गहराई से देखा...बहुत संवेदनशील कोई नारी ही देख सकती थी👍❤️

रंजू भाटिया said...

थैंक्स जी

रंजू भाटिया said...

धन्यवाद

रंजू भाटिया said...

धन्यवाद जी

रंजू भाटिया said...

शुक्रिया

रंजू भाटिया said...

शुक्रिया जी

रंजू भाटिया said...

बहुत बहुत शुक्रिया होंसला बढ़ाने के लिए