ज़िन्दगी
जैसे एक "नज्म की किताब "
और फिर ...
न जाने क्यों तुम
न जाने क्यों तुम
उसको अधूरा छोड़ के
चल दिए कहाँ ?
पर ...
उस नज्म के लफ्ज़
उस नज्म के लफ्ज़
अभी भी पढ़े जाने की राह में
उसी मुड़े हुए पन्ने पर
अटके हुए भटक रहे हैं ............
अटके हुए भटक रहे हैं ............
दर्द दे कर बिछुड़ते रहे हैं कुछ लोग ज़िन्दगी के इस सफ़र में ...पर यही लोग फिर ज़िन्दगी को सही मायनों में जीने के फलसफे भी समझा गए ....#रंजू भाटिया
6 comments:
बहुत ही सुन्दर रचना....
वाह जी सुंदर
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति 29-11-2013 चर्चा मंच-स्वयं को ही उपहार बना लें (चर्चा -1445) पर ।। सादर ।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (29-11-2013) को स्वयं को ही उपहार बना लें (चर्चा -1446) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खूबसूरत अभिव्यक्ति
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