चलते चलते मेरा साया
कभी कभी यूँ करता है
जमीन से उठ के ,सामने आ कर
हाथ पकड़ कर कहता है
अब की बार मैं आगे चलता हूँ
और तू मेरा पीछा करके देख जरा क्या होता है ?"
बिन बत्ती जब साईकल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासों बेचारों सी एक्टिंग की थी
हवलदार ने उल्टा .एक अट्ठनी दे कर भेज दिया था
एक चवन्नी मेरी थी ,
वो भिजवा दो ....
सब भिजवा दो
मेरा वो समान लौटा दो ....
एक इजाजत दे दो बस ,
जब इसको दफना उंगी
मैं भी वही सो जाउंगी ..
भूल सकते हैं क्या आप इस गाने के बोल को ...नहीं न ?
कुछ कुछ फ़िल्में दिल पर गहरे अपना असर छोडती है और अक्सर देखी जाती है पर वही आपके हाथ में यदि किताब के रूप में आ जाए तो इस से बढ़िया तो कुछ हो ही नहीं सकता है ..कुछ ऐसा ही हुआ जब मुझे गुलजार की लिखी किताब "इजाजत " मुझे मिली ..यह एक मंजर नामे के रूप में है |जो नजर आये उसको मंजर कहते हैं और मनाज़िर में कही गयी कहानी को "मंजरनामा "कहा जाता है गुलजार के लफ़्ज़ों में
साहित्य में मंज़रनामा एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रुकावट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सकें। लेकिन मंज़रनामे का अन्दाज़े-बयान अमूमन मूल रचना से अलग हो जाता है या यूँ कहें कि वह मूल रचना का इन्टरप्रेटेशन हो जाता है।
मंज़रनामा पेश करने का एक उद्देश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रू-ब-रू हो सकें और दूसरा यह कि टी.वी. और सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लोग यह देख-जान सके कि किसी कृति को किस तरह मंज़रनामे की शक्ल दी जाती है।
फिल्म "इजाज़त का मंज़रनामा" फिल्म की तरह ही रोचक है इस फिल्म को अगर हम औरत और मर्द के जटिल रिश्तों की कहानी कहते हैं, तो भी बात तो साफ हो जाती है लेकिन सिर्फ़ इन्हीं शब्दों में उस विडम्बना को नहीं पकड़ा जा सकता, जो इस फिल्म की थीम है। वक्त और इत्तेफ़ाक, ये दो चीजें आदमी की सारी समझ और दानिशमंदी को पीछे छोड़ती हुई कभी उसकी नियति का कारण हो जाती हैं और कभी बहाना।
" इजाजत" कहानी का इतिहास कुछ इस तरह से है ...गुलजार के लफ़्ज़ों में सुबोध दा की कहानी "जोतो ग्रह "बंगला में पढ़ी उन्होंने कोलकत्ता जा कर उनसे राइट्स खरीद लिए कई साल गुजर गए उन्हें कोई प्रोड्यूसर नहीं मिला और फिल्मों में कहानियां बहुत जल्दी आउट डेटेड हो जाती है बहुत साल बाद जब उन्हें सचदेव जैसे प्रोड्यूसर मिले तो गुलजार ने एक और स्क्रिप्ट लिखी जिस में कहानी का अक्स रह गया कहानी बदल गयी किरदार बदल गए लेकिन पहली और आखिरी मुलाकात वही रही जो उस कहानी में थी फिर वह डरते डरते सुबोध दा के पास गए और सब बात सही कह दी ..सुबोध दा बोले सुनाओ कहानी ..गुलजार जी ने सुना दी सुनने के बाद वह कुछ देर चुप रहे फिर धीरे से चाय की चुस्की ली और बोले --गलपों शे नोयें --किन्तु भालो लागछे !"गुलजार साहब ने पूछा कि आपका नाम दे दूँ ?"वह मुस्कराए और बोले दिए दो ...आमर नामेर टाका ओ तो दिए छो "उनसे इजाजत ले कर उन्होंने यह फिल्म शुरू कर दी ...
पानी की तरह बहती हुई इस कहानी में जो चीज़ सबसे अहम है वह है इंसानी अहसास की बेहद महीन अक़्क़ाशी, जिसे गुलजार ही साध सकते थे। पढ़ते पढ़ते आप कहानी के पात्रों के साथ साथ चलते जाते हैं .लिखा हुआ हर वाक्य पात्र द्वारा बोला हुआ लगने लगता है ..जैसे यह ..
"थोड़ी देर सो गयी होती |'
नींद नहीं आई |"
पता ही नहीं चला ..कब शाल मुझे ओढा कर चली गयी ,पानी का गिलास रख दिया .जैसे पूरा घर साथ ले कर चलती हो .."
आपने भी सब सारा समान ऐसे यहाँ वेटिंग रूम में बिखरा रखा है जैसे घर में बैठे हो ..तोलिया कहीं ,साबुन कहीं .गीले कपडे अभी तक बाथरूम में हैं ...मैं थी इस लिए या अब तक वही हालात है ..
कुछ घर जैसा ही लग रहा है सुधा .."
जी ..
तुम्हे कुछ पूछना नहीं है मुझसे ?
जरुरत है ?"
नहीं हो हुआ उसको बदला नहीं जा सकता है आदमी पछता सकता है .माफ़ी मांग सकता है मैंने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की है "
सुधा बात बदलते हुए" माया कैसी है ?"
थोड़ी देर ख़ामोशी के बाद महेंदर ने जवाब दिया
तुम्हे याद है जब हम "कुदरे मुख" से वापस आये थे
हाँ उसी दिन आपका जन्मदिन था
उसी दिन एक फ़ोन आया था
और आपको जरुरी काम से बाहर जाना पड़ा था
तुम्हे याद है सब
हूँ ...........
वही मैं अस्पताल गया था उस रात माया ने खुदकशी की कोशिश की थी उस वक़्त तुम्हे बताना मुनासिब नहीं समझा उस वक़्त चला गया और उसके बाद उसको लगातार मिलता रहा उसको बचाना अपना फर्ज़ महसूस हुआ ..पागल थी वो ..कभी रोती थी ,कभी लडती थी ..और कभी लिपटती थी ..उसी में शायद एक दिन उसका झुमका मेरे कोट में अटका रह गया ,जैसे शाल में अटका आज तुम्हारा यह झुमका मिला है ..
सुधा अपने कानों को देखने लगी .एक झुमका महेंदर की हथेली पर था
शायद मुझे तुम्हे सब कुछ बता देना चाहिए था लेकिन मेरी अपनी समझ में नहीं आ रहा था कुछ भी ...माया की इस हरकत से मैं डर गया था संभलने की कोशिश कर रहा था कि वो घर से भाग गयी ..वापस आया तो तुम भी जा चुकी थी ...उस दिन मुझे दिल का पहला दौरा पड़ा "
सुधा ने चौंक कर महेंदर की तरफ देखा एक गुनहगार की तरह ......
तुम्हारा जाना बुरा लगा गुस्सा भी था नाराजगी भी थी ...एक महीना अस्पताल में रहा ..
इस तरह आप कहानी के साथ देखें गए पात्रों के साथ खुद को देखते हुए बहते चले जाते हैं और यह काम सिर्फ गुलज़ार कर सकते हैं ...इस में लिखी कई पंक्तियाँ ज़िन्दगी का हिस्सा खुद बा खुद बन जाती है ..जैसे " बिना बताये चले जाते हो जा के बताऊँ कैसा लगता है ? कितनी मासूमियत और अधिकार के साथ यह बात दिल को छु जाती है ...आदत भी चली जाती है पर अधिकार नहीं जाते ..?" कहाँ भूल पाते है हम अधिकारों को जो किसी ने हमें दिल से दिए हो ..और ज़िन्दगी को आगे बढाने वाली पंक्तियाँ तो जैसे दिल में बस गयी है की सुधा माजी को माजी न बनाया ..."माजी ?? माजी भाई पास्ट ..बीता हुआ जो बीत गया ..उसको बीत जाने दो ..उसको रोक कर मत रखो ..... निश्चय ही यह एक श्रेष्ठ साहित्यक रचना है जिसको आप बार बार पढना चाहेंगे
कभी कभी यूँ करता है
जमीन से उठ के ,सामने आ कर
हाथ पकड़ कर कहता है
अब की बार मैं आगे चलता हूँ
और तू मेरा पीछा करके देख जरा क्या होता है ?"
और ...........
एक दफा वो याद है तुमको ,बिन बत्ती जब साईकल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासों बेचारों सी एक्टिंग की थी
हवलदार ने उल्टा .एक अट्ठनी दे कर भेज दिया था
एक चवन्नी मेरी थी ,
वो भिजवा दो ....
सब भिजवा दो
मेरा वो समान लौटा दो ....
एक इजाजत दे दो बस ,
जब इसको दफना उंगी
मैं भी वही सो जाउंगी ..
भूल सकते हैं क्या आप इस गाने के बोल को ...नहीं न ?
कुछ कुछ फ़िल्में दिल पर गहरे अपना असर छोडती है और अक्सर देखी जाती है पर वही आपके हाथ में यदि किताब के रूप में आ जाए तो इस से बढ़िया तो कुछ हो ही नहीं सकता है ..कुछ ऐसा ही हुआ जब मुझे गुलजार की लिखी किताब "इजाजत " मुझे मिली ..यह एक मंजर नामे के रूप में है |जो नजर आये उसको मंजर कहते हैं और मनाज़िर में कही गयी कहानी को "मंजरनामा "कहा जाता है गुलजार के लफ़्ज़ों में
साहित्य में मंज़रनामा एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रुकावट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सकें। लेकिन मंज़रनामे का अन्दाज़े-बयान अमूमन मूल रचना से अलग हो जाता है या यूँ कहें कि वह मूल रचना का इन्टरप्रेटेशन हो जाता है।
मंज़रनामा पेश करने का एक उद्देश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रू-ब-रू हो सकें और दूसरा यह कि टी.वी. और सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लोग यह देख-जान सके कि किसी कृति को किस तरह मंज़रनामे की शक्ल दी जाती है।
फिल्म "इजाज़त का मंज़रनामा" फिल्म की तरह ही रोचक है इस फिल्म को अगर हम औरत और मर्द के जटिल रिश्तों की कहानी कहते हैं, तो भी बात तो साफ हो जाती है लेकिन सिर्फ़ इन्हीं शब्दों में उस विडम्बना को नहीं पकड़ा जा सकता, जो इस फिल्म की थीम है। वक्त और इत्तेफ़ाक, ये दो चीजें आदमी की सारी समझ और दानिशमंदी को पीछे छोड़ती हुई कभी उसकी नियति का कारण हो जाती हैं और कभी बहाना।
" इजाजत" कहानी का इतिहास कुछ इस तरह से है ...गुलजार के लफ़्ज़ों में सुबोध दा की कहानी "जोतो ग्रह "बंगला में पढ़ी उन्होंने कोलकत्ता जा कर उनसे राइट्स खरीद लिए कई साल गुजर गए उन्हें कोई प्रोड्यूसर नहीं मिला और फिल्मों में कहानियां बहुत जल्दी आउट डेटेड हो जाती है बहुत साल बाद जब उन्हें सचदेव जैसे प्रोड्यूसर मिले तो गुलजार ने एक और स्क्रिप्ट लिखी जिस में कहानी का अक्स रह गया कहानी बदल गयी किरदार बदल गए लेकिन पहली और आखिरी मुलाकात वही रही जो उस कहानी में थी फिर वह डरते डरते सुबोध दा के पास गए और सब बात सही कह दी ..सुबोध दा बोले सुनाओ कहानी ..गुलजार जी ने सुना दी सुनने के बाद वह कुछ देर चुप रहे फिर धीरे से चाय की चुस्की ली और बोले --गलपों शे नोयें --किन्तु भालो लागछे !"गुलजार साहब ने पूछा कि आपका नाम दे दूँ ?"वह मुस्कराए और बोले दिए दो ...आमर नामेर टाका ओ तो दिए छो "उनसे इजाजत ले कर उन्होंने यह फिल्म शुरू कर दी ...
पानी की तरह बहती हुई इस कहानी में जो चीज़ सबसे अहम है वह है इंसानी अहसास की बेहद महीन अक़्क़ाशी, जिसे गुलजार ही साध सकते थे। पढ़ते पढ़ते आप कहानी के पात्रों के साथ साथ चलते जाते हैं .लिखा हुआ हर वाक्य पात्र द्वारा बोला हुआ लगने लगता है ..जैसे यह ..
"थोड़ी देर सो गयी होती |'
नींद नहीं आई |"
पता ही नहीं चला ..कब शाल मुझे ओढा कर चली गयी ,पानी का गिलास रख दिया .जैसे पूरा घर साथ ले कर चलती हो .."
आपने भी सब सारा समान ऐसे यहाँ वेटिंग रूम में बिखरा रखा है जैसे घर में बैठे हो ..तोलिया कहीं ,साबुन कहीं .गीले कपडे अभी तक बाथरूम में हैं ...मैं थी इस लिए या अब तक वही हालात है ..
कुछ घर जैसा ही लग रहा है सुधा .."
जी ..
तुम्हे कुछ पूछना नहीं है मुझसे ?
जरुरत है ?"
नहीं हो हुआ उसको बदला नहीं जा सकता है आदमी पछता सकता है .माफ़ी मांग सकता है मैंने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की है "
सुधा बात बदलते हुए" माया कैसी है ?"
थोड़ी देर ख़ामोशी के बाद महेंदर ने जवाब दिया
तुम्हे याद है जब हम "कुदरे मुख" से वापस आये थे
हाँ उसी दिन आपका जन्मदिन था
उसी दिन एक फ़ोन आया था
और आपको जरुरी काम से बाहर जाना पड़ा था
तुम्हे याद है सब
हूँ ...........
वही मैं अस्पताल गया था उस रात माया ने खुदकशी की कोशिश की थी उस वक़्त तुम्हे बताना मुनासिब नहीं समझा उस वक़्त चला गया और उसके बाद उसको लगातार मिलता रहा उसको बचाना अपना फर्ज़ महसूस हुआ ..पागल थी वो ..कभी रोती थी ,कभी लडती थी ..और कभी लिपटती थी ..उसी में शायद एक दिन उसका झुमका मेरे कोट में अटका रह गया ,जैसे शाल में अटका आज तुम्हारा यह झुमका मिला है ..
सुधा अपने कानों को देखने लगी .एक झुमका महेंदर की हथेली पर था
शायद मुझे तुम्हे सब कुछ बता देना चाहिए था लेकिन मेरी अपनी समझ में नहीं आ रहा था कुछ भी ...माया की इस हरकत से मैं डर गया था संभलने की कोशिश कर रहा था कि वो घर से भाग गयी ..वापस आया तो तुम भी जा चुकी थी ...उस दिन मुझे दिल का पहला दौरा पड़ा "
सुधा ने चौंक कर महेंदर की तरफ देखा एक गुनहगार की तरह ......
तुम्हारा जाना बुरा लगा गुस्सा भी था नाराजगी भी थी ...एक महीना अस्पताल में रहा ..
इस तरह आप कहानी के साथ देखें गए पात्रों के साथ खुद को देखते हुए बहते चले जाते हैं और यह काम सिर्फ गुलज़ार कर सकते हैं ...इस में लिखी कई पंक्तियाँ ज़िन्दगी का हिस्सा खुद बा खुद बन जाती है ..जैसे " बिना बताये चले जाते हो जा के बताऊँ कैसा लगता है ? कितनी मासूमियत और अधिकार के साथ यह बात दिल को छु जाती है ...आदत भी चली जाती है पर अधिकार नहीं जाते ..?" कहाँ भूल पाते है हम अधिकारों को जो किसी ने हमें दिल से दिए हो ..और ज़िन्दगी को आगे बढाने वाली पंक्तियाँ तो जैसे दिल में बस गयी है की सुधा माजी को माजी न बनाया ..."माजी ?? माजी भाई पास्ट ..बीता हुआ जो बीत गया ..उसको बीत जाने दो ..उसको रोक कर मत रखो ..... निश्चय ही यह एक श्रेष्ठ साहित्यक रचना है जिसको आप बार बार पढना चाहेंगे
12 comments:
जी हाँ गुलज़ार सा कोई कहाँ.
गुलज़ार कृत इज़ाज़त से आपने परिचित कराया -आभार!
बहुत खुबसूरत.....
गुलजार जी द्वारा लिखी किताब "इजाजत"की बहुत ही सुंदर ढंगसे समीक्षा की आपने,इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए प्रस्तुति लिए "रंजना जी" बधाई,...
MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
सार्थक, सुन्दर, बधाई
फिल्म देखी है पर इस समीक्षा ने फिल्म का मोल और बढ़ा दिया है।
अत्यन्त सुन्दर।
गीत मुझे बहुत पसंद था ..इसलिए मैनें भी इसी तर्ज पर एक कविता लिखी थी ...नायिका का यह कहना की मुझे मेरा सामन लौटा दो ,वो प्यार लौटा दो ! अन्दर तक भिगो गया था ..आज आपके ब्लॉग पर दोबारा वो पढना अच्छा लगा ...गुलजार साहेब की मैं बहुत बड़ी फेन हूँ उनका यह कलाम काबिले तारीफ़ था ...और आपकी रचना भी बहुत बहुत उम्दा लिखी हैं ...
http://armaanokidoli.blogspot.in/2011/08/blog-post.html
क्या बात है ... आपकी नज़र से इसे और गहराई से जाना ...बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ...आभार
क्या बात है!!
आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 07-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-872 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
गज़ब की किताब होगी ... आपकी समीक्षा ने ही कितना नोस्तेल्जिक कर दिया ...
किसी दूसरी दुनिया में उड़ने लगते हैं ख्वाब जैसे ...
गुलज़ार साहब की यूँ तो सभी कृतियाँ उत्कृष्ट होती हैं लेकिन जिस तरह से रंजू जी आपने समीक्षा की उससे इजाजत को पढ़ने की आकांक्षा और बढ़ गयी.
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