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Saturday, September 03, 2022

सच्ची दोस्त होती हैं किताबें



 

पढ़ने की आदत विकसित करना , कौन सी किताबें पढ़नी चाहिए?


ज़िन्दगी में सच्ची दोस्त होती है किताबें। आपके असल दोस्त चाहे आपका साथ छोड़ जाएं पर यदि आपको इन्हें पढ़ने की आदत है तो यह आपका साथ कभी नहीं छोड़ेंगी। गुलज़ार जी ने इस पर खूब कहा है कि 


"किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से

बड़ी हसरत से तकती हैं

महीनों अब मुलाकातें नहीं होती

जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं

अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर

बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें

उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है

जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके

जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं

  किताबें और उनको पढ़ना अब ज़िन्दगी से कम होता जा रहा है,उसकी जगह  कम्प्यूटर ,मोबाइल आदि ने ले ली है।

  "किसी ने कहा है कि एक बच्चा जो अभी पढ़ता है, आगे चलकर एक समझदार वयस्क बनता है” – अज्ञात"

  यदि हम बड़े ही हाथ में मोबाइल और कम्प्यूटर आदि में व्यस्त रहेंगे तो बच्चों को पढ़ने की आदत कैसे हो सकती है । बच्चे हमें ही देखते हैं इसलिए हमें अपनी पढ़ने की आदत को बनाए रखना जरूरी है।


   पढ़ने की आदत हमें सकून देती है और हमें तनाव से बचाती है । किताब पढ़ना तनाव से मुक्ति पाने का सबसे अच्छा तरीका है और मात्र छह मिनट पढ़ना भी हमारे तनाव के स्तर को दो तिहाई से भी ज़्यादा घटा सकता है। क्या आप जानते हैं कि पढ़ना कम हुआ, तो लिखना, सोचना, समझना भी कम होता गया। तुरंत पढ़कर तुरंत रिएक्ट करने की प्रवृत्ति ने हमारा धैर्य सहनशीलता को खत्म कर दिया है। किताबें हमेशा से हमारी जिंदगी में अहमियत रखती हैं। पढ़ना हमारे पर्सनैलिटी को बढ़ाता है ,हमें ज़िन्दगी जीने का बेहतरीन ढंग सिखाता है।


      एक वक़्त था जब लोगों की जिंदगी में किताबों की एक अलग ही जगह थी। क्योंकि उस वक़्त यही समय को बिताने का जरिया थे। जब तक रात में एक किताब न पढ़ लें नींद नहीं आती थी। किताबों से बेहतर साथी कोई नहीं होता।

        "व्यंग्यकार पंकज प्रसून" बताते हैं कि किताबें न सिर्फ लोगों को सीख देती है बल्कि भावनाओं का भी विस्तार करती हैं। हिन्दी साहित्य और यहां तक की हर भाषा के साहित्य में कुछ एक ऐसे उपन्यास और किताबें हैं, जो भावनाओं उच्चस्तर पर ले जाती हैं। भावनाएं इंसान को पूर्ण और यह संपूर्णता पुस्तकें ही लाती हैं।पढ़कर तुरंत रिएक्ट करने वाला युवाओं को पहले ज्ञान को बढ़ाने के लिए खूब पढ़ना चाहिए।

     आजकल के बच्चे हार्डकॉपी पढ़ने के बजाए पीडीएफ पढ़ने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं। वह किताबों की महक उसके पलटते पन्ने जो सकून देते हैं वह यह किंडल या हार्ड कॉपी नहीं दे पाते हैं ।

     हालांकि अब बेहतर किताबें पढ़ने की बजाए हल्की-फुल्की किताबें मार्केट में आ गईं हैं। युवा अपने इंट्रेस्ट के हिसाब से उसे पढ़ते हैं। एक बात जो सही नहीं लगती है कि सस्ती किताबें आजकल बच्चों को आसानी से मिल रही हैं। वे इसे पढ़ भी रहे हैं, जो सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए अच्छी है लेकिन कोई सीख नहीं देती। ऐसी किताबों को पढ़ने से बचना चाहिए ।

    पर यह सच्चाई है कि जब आप कुछ अच्छी किताबे पढ़ते है और उन किताबों में लिखी बातो को समझते हैं करते है, तो हमारे जीवन धीरे-धीरे पर जादुई तरीके से बदलने लगता है| अच्छी किताबें पढ़ना हमारी ज़िंदगी को बदल सकता है ।

   वैसे तो पढ़ने के मामले में सबकी अपनी अपनी पसंद होती है ,पर कुछ किताबें है जो सबको पढ़नी चाहिए । प्रेमचन्द की लिखी किताबें जीवन की सच्चाई है उन्हें एक बार अवश्य पढ़े।

  यह किताबें हमारे सामने एक रहस्य सा खोलती है और पढ़ने के लिए हमारे दिमाग को खोलती हैं।

  इसके अलावा जो किताबें हमें ज़िन्दगी के मॉरल वैल्यूज सिखाएं और आगे बढ़ना सिखाएं वह जरूर पढ़नी चाहिए । 


मेरी और पंसदीदा किताबों में विवेकानंद की जीवनी , अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट , और अनगिनत यात्रा पर लिखी किताबें है। निर्मल वर्मा ,राहुल , जी ने जिस तरह से इन पर लिखा है पढ़ने पर लगता है कि जैसे हम स्वयं उन यात्रा पर हों।

    पढ़ना ज़िन्दगी की अहम जरूरत बनाना जरूरी है । यही आदत हमें हमारे दिमाग को खोलती है और जीवन में आगे बढ़ाती है। 

एक किताब जिसकी समीक्षा मैने पहली बार बोल कर इस चैनल पर की है ,सुन कर बताएं कि कैसी लगा आपको यह बुक रिव्यू। 


इज़ाजत बुक रिव्यू मेरे शब्दों में



Tuesday, May 01, 2012

मेरा वो समान लौटा दो ....

 चलते चलते मेरा साया
कभी कभी यूँ करता है
जमीन से उठ के ,सामने आ कर
हाथ पकड़ कर कहता है
अब की बार मैं आगे चलता हूँ
और तू मेरा पीछा करके देख जरा क्या होता है ?"
और ...........
एक दफा वो याद है तुमको ,
बिन बत्ती जब साईकल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासों बेचारों सी एक्टिंग की थी
हवलदार ने उल्टा .एक अट्ठनी दे कर भेज दिया था
एक चवन्नी मेरी थी ,
वो भिजवा दो ....

सब भिजवा दो
मेरा वो समान लौटा दो ....
एक इजाजत दे दो बस ,
जब इसको दफना उंगी
मैं भी वही सो जाउंगी ..

भूल सकते हैं क्या आप इस गाने के बोल को ...नहीं न ?

कुछ कुछ फ़िल्में दिल पर गहरे अपना असर छोडती है और अक्सर देखी जाती है पर वही आपके हाथ में यदि किताब के रूप में आ जाए तो इस से बढ़िया तो कुछ हो ही नहीं सकता है ..कुछ ऐसा ही हुआ जब मुझे गुलजार की  लिखी किताब "इजाजत " मुझे मिली ..यह एक मंजर नामे के रूप में है |जो नजर आये उसको मंजर कहते हैं और मनाज़िर में कही गयी कहानी को "मंजरनामा "कहा जाता है गुलजार के लफ़्ज़ों में
साहित्य में मंज़रनामा एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रुकावट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सकें। लेकिन मंज़रनामे का अन्दाज़े-बयान अमूमन मूल रचना से अलग हो जाता है या यूँ कहें कि वह मूल रचना का इन्टरप्रेटेशन हो जाता है।
मंज़रनामा पेश करने का एक उद्देश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रू-ब-रू हो सकें और दूसरा यह कि टी.वी. और सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लोग यह देख-जान सके कि किसी कृति को किस तरह मंज़रनामे की शक्ल दी जाती है।
   फिल्म "इजाज़त का मंज़रनामा"  फिल्म की तरह ही  रोचक है इस फिल्म को अगर हम औरत और मर्द के जटिल रिश्तों की कहानी कहते हैं, तो भी बात तो साफ हो जाती है लेकिन सिर्फ़ इन्हीं शब्दों में उस विडम्बना को नहीं पकड़ा जा सकता, जो इस फिल्म की थीम है। वक्त और इत्तेफ़ाक, ये दो चीजें आदमी की सारी समझ और दानिशमंदी को पीछे छोड़ती हुई कभी उसकी नियति का कारण हो जाती हैं और कभी बहाना।
        
" इजाजत" कहानी का इतिहास कुछ इस तरह से है ...गुलजार के लफ़्ज़ों में सुबोध दा  की कहानी "जोतो ग्रह "बंगला में पढ़ी उन्होंने कोलकत्ता जा कर उनसे राइट्स खरीद लिए कई साल गुजर गए उन्हें कोई प्रोड्यूसर नहीं मिला और फिल्मों में कहानियां बहुत जल्दी आउट डेटेड हो जाती है बहुत साल बाद जब उन्हें सचदेव जैसे प्रोड्यूसर मिले तो गुलजार ने एक और स्क्रिप्ट लिखी जिस में कहानी का अक्स रह गया कहानी बदल गयी किरदार बदल गए लेकिन पहली और आखिरी मुलाकात वही रही जो उस कहानी में थी फिर वह डरते डरते सुबोध  दा के पास गए और सब बात सही कह दी ..सुबोध दा बोले सुनाओ कहानी ..गुलजार जी ने  सुना दी सुनने के बाद वह कुछ देर चुप रहे फिर धीरे से चाय की चुस्की ली और बोले --गलपों शे नोयें  --किन्तु भालो लागछे !"गुलजार साहब ने पूछा कि आपका नाम दे दूँ ?"वह मुस्कराए और बोले दिए दो ...आमर नामेर टाका ओ तो दिए छो "उनसे इजाजत ले कर उन्होंने यह फिल्म शुरू कर दी ... 
          पानी की तरह बहती हुई इस कहानी में जो चीज़ सबसे अहम है वह है इंसानी अहसास की बेहद महीन अक़्क़ाशी, जिसे गुलजार ही साध सकते थे। पढ़ते पढ़ते आप कहानी के पात्रों के साथ साथ चलते जाते हैं .लिखा हुआ हर वाक्य पात्र द्वारा बोला हुआ लगने लगता है ..जैसे यह ..

"थोड़ी देर सो गयी होती |'

नींद नहीं आई |"

पता ही नहीं चला ..कब शाल मुझे ओढा कर चली गयी ,पानी का गिलास रख दिया .जैसे पूरा घर साथ ले कर चलती हो .."

आपने भी सब सारा समान ऐसे यहाँ वेटिंग रूम में बिखरा रखा है जैसे घर में बैठे हो ..तोलिया कहीं ,साबुन कहीं .गीले कपडे अभी तक बाथरूम में हैं ...मैं थी इस लिए या अब तक वही हालात  है ..
कुछ घर जैसा ही लग रहा है सुधा .."
जी ..
तुम्हे कुछ पूछना नहीं है मुझसे ?
जरुरत है ?"
नहीं हो हुआ उसको बदला नहीं जा सकता है आदमी पछता सकता है .माफ़ी मांग सकता है मैंने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की है "

 सुधा बात बदलते हुए" माया कैसी है ?"
थोड़ी देर ख़ामोशी के बाद महेंदर ने जवाब दिया
तुम्हे याद है जब हम "कुदरे मुख" से वापस आये थे
हाँ उसी दिन आपका जन्मदिन था
उसी दिन एक फ़ोन आया था
और आपको जरुरी काम से बाहर जाना पड़ा था
तुम्हे याद है सब
हूँ ...........
वही मैं अस्पताल गया था उस रात माया ने खुदकशी की कोशिश की थी उस वक़्त तुम्हे बताना मुनासिब नहीं समझा उस वक़्त चला गया और उसके बाद उसको लगातार मिलता रहा उसको बचाना अपना फर्ज़ महसूस हुआ ..पागल थी वो ..कभी रोती थी ,कभी लडती थी ..और कभी लिपटती थी ..उसी में शायद एक दिन उसका झुमका मेरे कोट में अटका रह गया ,जैसे शाल में अटका आज तुम्हारा यह झुमका मिला है ..

सुधा अपने कानों को देखने लगी .एक झुमका महेंदर की हथेली पर था

शायद मुझे तुम्हे सब कुछ बता देना चाहिए था लेकिन मेरी अपनी समझ में नहीं आ रहा था कुछ भी ...माया की इस हरकत से मैं डर गया था संभलने की कोशिश कर रहा था कि वो घर से भाग गयी ..वापस आया तो तुम भी जा चुकी थी ...उस दिन  मुझे दिल का पहला दौरा पड़ा "
सुधा ने चौंक कर महेंदर की तरफ देखा एक गुनहगार की तरह ......
तुम्हारा जाना बुरा लगा गुस्सा  भी था नाराजगी भी थी ...एक महीना अस्पताल में रहा ..

इस तरह आप कहानी के साथ देखें गए पात्रों के साथ खुद को देखते हुए बहते चले जाते हैं और यह काम सिर्फ गुलज़ार कर सकते हैं ...इस में लिखी कई पंक्तियाँ ज़िन्दगी का हिस्सा खुद बा खुद बन जाती है ..जैसे " बिना बताये चले जाते हो  जा के बताऊँ कैसा लगता है ? कितनी मासूमियत और अधिकार के साथ यह बात दिल को छु जाती है ...आदत भी चली जाती है पर अधिकार नहीं जाते ..?" कहाँ भूल पाते है हम अधिकारों को जो किसी ने हमें दिल से दिए हो ..और ज़िन्दगी को आगे बढाने वाली पंक्तियाँ तो जैसे दिल में बस गयी है की सुधा माजी को माजी न बनाया ..."माजी ?? माजी भाई पास्ट ..बीता हुआ जो बीत गया ..उसको बीत जाने दो ..उसको रोक कर मत रखो ..... निश्चय ही यह एक श्रेष्ठ साहित्यक रचना है जिसको आप बार बार पढना चाहेंगे