Friday, March 26, 2010

दो रंग ...(कुछ यूँ ही )



अस्तित्व

अपना ही अस्तित्व
अजनबी सा
नजर आता है
मुझे
...
जब
गैरों को तू
मुझे
अपना कह कर
मिलाता है
.......




आईना

अपना ही चेहरा
बिना आवाज़ के
सामने तो दिख जाता है
पर ....
आईने
के पीछे की दुनिया
क्या है.........
यह कौन देख पाता है ?
दिखते अक्स में
धडकता दिल है
पीछे आईने की दीवार को
कौन कब समझ पाता है ....?


रंजना (रंजू ) भाटिया

Monday, March 15, 2010

ज़िंदगी का सच


क्यों खिले गुल ,
इस चमन में
दे के सुगंध ..
फिर क्यों मुरझाए?
शमा जली तो रोशनी के लिए
पर परवाना क्यों
संग जल के मर जाए?

गुनगुन करते भंवरे,
क्यों सब पराग पी जाए?
क्यों फूल भी हँस के अपना
सब कुछ उस पर लुटाए ?

झूमती गाती हवा
क्यों एक दम शांत हो जाए
धीमे धीमे बहते दिन रात
वक़्त को कैसे मिटाए ?

झरनों में बह कर पर्वत की
सब कठोरता क्यों बह जाए
अपना सब कुछ दे के भी
प्रकति हर दम क्यों मुस्कराये ?

इन्ही तत्वों से बना मानव
सब कुछ लूटा के जीने का
यह भेद क्यों समझ न पाए
इस राज़ का राज़ है गहरा
जो जीए सही अर्थ में ज़िंदगी
वही इसको समझ पाए !!

Saturday, March 06, 2010

"संगिनी"


यूं जब अपनी पलके उठा के
तुम देखती हो मेरी तरफ़
मैं जानता हूँ....
कि तुम्हारी आँखे
पढ़ रही होती है
मेरे उस अंतर्मन को
जो मेरा ही अनदेखा
मेरा ही अनकहा है..


अपनी मुस्कराहट से
जो देती हो मेरे सन्नाटे को
हर पल नया अर्थ
और मन की गहरी वादियों में
चुपके से खिला देती हो
आशा से चमकते
सितारों की रौशनी को
मैं जानता हूँ कि....
यह सपना मेरा ही बुना हुआ है


पूर्ण करती हो
मेरे अस्तित्व को
छाई सर्दी की पहली धूप की तरह
भर देती हो मेरे सूनेपन को
अपने साये से फैले वट वृक्ष की तरह
सम्हो लेती हो अपने सम्मोहन से
मैं जानता हूँ कि
यही सब मेरे साँस लेने की वजह है

तुम जो हो ....
एक अदा.....
एक आकर्षण....
एक माँ ,एक प्रेमिका
और संग संग जीने की लय
मैं जानता हूँ कि
प्रकति का सुंदर खेल
तुम्हारे हर अक्स में रचा बसा है !!

रंजना (रंजू )भाटिया


महिला दिवस पर लिखी कुछ रचनाएं यहाँ भी पढ़ सकते हैं आप ...(मैं क्या हूँ ,यह सोचती खुद में डूबी हुई हूँ)