Monday, November 30, 2009

तूने आज जब वो मेरे लिखे ख़त जलाए होंगे..


आज मुझे भूलने के बाद, जब वो मेरे ख़त तूने जलाए होंगे
फ़िज़ाओ में आज भी वो बीते पलो के साए महक आए होंगे

बिताए थे ना जाने कितने बेहिसाब लम्हे साथ साथ
उनके तस्वुर ने तेरे होश एक बार फिर से तो उड़ाए होंगे

याद आया होगा तुझे भी मेरा ,तेरी बाहों में सिमाटना
मेरे ज़ुल्फ़ो की ख़ुश्बू के साए आँखो में लहराए होंगे

आईने में देखा होगा जब तूने यूँ ही अक़्स अपना
मेरी चाहत के जाम , तेरी नज़रो से छलक आए होंगे

देखा होगा जब चाँद को बादलो के संग छिपते हुए
मेरी प्यार की बातो से तेरे लब मुस्कराए होंगे

जगाया होगा मेरे ख्वाबो ने तुझे अक्सर रातो को
जुदा होने से पहले के वह हसीन लम्हे याद आए होंगे

है यही तो प्यार की तसीर का जादू इस ठहरी सी फ़िज़ा में
धूवाँ होते वो पल किसी पावन ख़ुश्बू से महक आए होंगे

तूने आज जब वो मेरे लिखे ख़त जलाए होंगे
तेरे दिल पर भी कुछ देर तो दर्द के साए होंगे !!


Thursday, November 26, 2009

बंधे हुए लफ्ज़ ....


1: )आतंक के हाथ
क़ानून से ज्यादा लंबे हैं
जो ख़ास सुरक्षा मिलने पर भी
मौका मिलते ही
धमाका कर जाते हैं

और लिखने वाले के हाथ
अभी भी बंधे हैं
जो आजाद होते हुए भी
इंसानो से ड़र जाते हैं !!




2:)सुनो ,
आज कुछ लफ्ज़ दे दो मुझे
ना जाने मेरी कविता के
सब मायने
...
कहाँ खो गये हैं?
मेरे अपने लिखे लफ्ज़ अब
ना जाने क्यों ....
बेमानी से हो गये हैं

दिखते हैं अब सिर्फ़ इसमें
विस्फोटक ,बलात्कार, भ्रष्टाचार
और कुछ डरे सहमे से शब्द
जो मुझे किसी ,
कत्लगाह से कम नही दिखते
हो सके तो दे देना
अब मुझे

विश्वास और प्यार के वो लफ्ज़
जो मेरे देश की
पावन मिटटी की

खुशबु थे कभी!!


एक सवाल आज एक साल बाद यह सब करने वाले कसाव के दिल में क्या चल रहा होगा ? क्या कुछ शर्मसार होगा ॥? या ..?

Monday, November 23, 2009

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं...


जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं
पतझड़ों में हम सावन की राह तक़ते हैं
अनसुनी चीखों का शोर हैं यहाँ हर तरफ़
गूंगे स्वरों से नगमे सुनने की बात करते हैं

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं .....

बाँट गयी है यह ज़िंदगी यहाँ कई टुकड़ों में
टूटते सपनों में,अनचाहे से रिश्तों में
अजनबी लगते हैं सब चेहरे यहाँ पर
हम इन में अपनों की तलाश करते हैं

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं .....

हर गली हर शहर में डर है यहाँ फैला हुआ
सहमा-सहमा सा माहौल हर तरफ़ यहाँ बिखरा हुआ
संगदिल हो गयी है यहाँ अब हर दिल की धड़कन
बंद दरवाज़ो में हम रोशनी तलाश करते हैं

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं ...........

सब की ज़ुबान पर है यहाँ अपने दर्द की दास्तान
फैली हुई हर तरफ़ नाकाम मोहब्बत की कहानियाँ
टूटा आईना लगता है हर शख़्स का वज़ूद यहाँ
हम अपने गीतों में फिर भी खुशी की बात रखते हैं

जाने लोग यहाँ क्या क्या तलाश करते हैं .....

ख़ुद को ख़ुद में पाने की एक चाह है यहाँ
प्यार का एक पल मिलता है यहाँ धोखे की तरह
बरसती इन चँद बूंदों में सागर तलाश करते हैं
घायल रूहों में अब भी जीने की आस रखते हैं

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं .....

रंजना (रंजू ) भाटिया मई २००७

Monday, November 16, 2009

क्या फ़िर से ??


जाने अन्जाने,
कब न जाने
प्रीत -प्यार के बहाने..
मेरे दिल पर तुम ने लिख दी
प्यार की एक अमिट दास्तान..
उस नज़्म के लिखे शब्द
अक्सर तन्हाई में मेरी..
मुझे तेरे प्रेम का राग सुनाते हैं
देखती हूँ जब भी मैं आईना
तेरे नयनो के..
वो प्यार भरे अक़्स
अक्सर मेरी नज़रो में
उतर जाते हैं...
एक मीठी सी..
छुअन का एहसास
भर जाता है मेरे तन मन में
और मुझे वही..
तेरे साथ बीते लम्हे
गुदगुदा के छेड़ जाते हैं

तभी मेरा दिल..
अचानक यूँ ही..
किसी गहरी सोच में डूब जाता है
कि क्या तुम फिर आओगे
फिर से
वही नज़्म लिखने, गुनगुनाने
और फिर से दोगे क्या कुछ लम्हे
अपनी व्यस्त ज़िंदगी के?
क्या फिर से .............
अपनी बाहों के घेरे में छुपाओगे मुझे??
डुबो दोगे क्या फिर से
अपनी सांसो की सरगम में??
और समेटोगे अपनी मीठी छुअन से
मेरे बिखरे हुए वजूद को ??

रंजना (रंजू ) भाटिया

Tuesday, November 10, 2009

सुनो ...


आसमान की तरह
""खाली आँखे ""
धरती की तरह
"चुप लगते "सब बोल हैं
पर तुम्हारे कहे गए
एक लफ्ज़
"सुनो "में
जैसे वक्त का साया
ठहर सा जाता है
बिना अर्थ ,बिना संवाद
के भी
यह लफ्ज़ न जाने
कितनी बातें कह जाता है
कभी लगता है
यह भोर का तारा
कभी सांझ का
गुलाबी आँचल बन
आंखो में बन के
सपना ढल जाता है

लगता है...
कभी यह राग
सुनहरे गीतों का
कभी मुझे ख़ुद में समेटे हुए
अपने में डूबोते हुए
पास से हवा सा गुजरता
यह" सुनो "लफ्ज़
एक दास्तान बन जाता है !!

रंजना (रंजू ) भाटिया

Monday, November 02, 2009

बदली हुई फ़िज़ा


बदली हुई रुत ..
बदली हुई फिजा ..
जाग रही है ...
दो रूहों की
एक ही हलचल
मद्धम मद्धम ..

रात की गहरी चुनरी ओढे
चाँद भी मुस्कराया ..
और .............
लबों पर तैरता
चाँदनी के मुख पर
वो हल्का सा तब्बसुम
या फ़िर रुकी हुई है
कोई शबनम की बूंद ..

परियों के अफ़साने हैं
या फ़िर से कोई सपना
उतर आया है ..
मेरी आँखों में ..
वह खामोशी ...
अब फ़िर से
जागने लगी है
जिसे बरसों पहले
थपकी दे के सुलाया था !!

रंजना (रंजू ) भाटिया