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Tuesday, March 15, 2011

कभी कभी कोई कविता यूं भी बनती है !

गुनगुनाती चिरया 
का शोर
आसमान में उगती
सुबह  की भोर
कुछ आरक्त   सी फूटती  
नयी कोपले   
हरियाले  नये खिलते पत्ते
हवा के साथ
यूँ झूमने लगते हैं
टेसू के लाल लाल फूदने
जैसे फागुन के आने पर
फूटने लगते हैं

तब भटकती है
बौराई सी रात
गाती हुई
कुछ शिथिल से गात
अमराई में जैसे
कोयल कूकती है
और सन्न्नाटे को
चीरती हुई
यूँ ही अकले
वन वन डोलती है

तब शब्द कुछ कहने को
हों उठते हैं आतुर 
जैसे कोई शबनम
कली के मुख को चूमती है
खिल उठते  हैं नम आंखों  में
 कई सपने इन्द्रधनुष से
वक्त के हाथो बनी कठपुतली
हाँ कुछ कविता यूं ही बनती है
जैसे किसी रेगिस्तान में
कभी कभी
झूमते सावन की हँसी  गूंजती  है
हाँ कभी कभी
कोई कविता यूं भी बनती है !


Tuesday, November 10, 2009

सुनो ...


आसमान की तरह
""खाली आँखे ""
धरती की तरह
"चुप लगते "सब बोल हैं
पर तुम्हारे कहे गए
एक लफ्ज़
"सुनो "में
जैसे वक्त का साया
ठहर सा जाता है
बिना अर्थ ,बिना संवाद
के भी
यह लफ्ज़ न जाने
कितनी बातें कह जाता है
कभी लगता है
यह भोर का तारा
कभी सांझ का
गुलाबी आँचल बन
आंखो में बन के
सपना ढल जाता है

लगता है...
कभी यह राग
सुनहरे गीतों का
कभी मुझे ख़ुद में समेटे हुए
अपने में डूबोते हुए
पास से हवा सा गुजरता
यह" सुनो "लफ्ज़
एक दास्तान बन जाता है !!

रंजना (रंजू ) भाटिया