उम्र के उस
नाजुक मोड़ पर
जब लिखे गए थे
यूँ ही बैठे बैठे
प्रेम के ढाई आखर
और उस में से
झांकता दिखता था
पूरा ..
सुनहरा रुपहला सा संसार
रंग बिरंगे सपने..
दिल पर छाया खुमार
मस्तमौला सी बातें
दिल में चढ़ता -उतरता
जैसे कोई ज्वार
और .....
अब न जाने
कितने आखर..
प्रेम भाव से ..
रंग डाले हैं पन्ने कई ..
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
दिल और दिमाग की ज़ंग में
अभेद दुर्ग की दिवार का
पहरा सा रहता है ....
सोचता है तब मन
बेबस हो कर.....
तब और अब में
इतना बड़ा फर्क क्यों है ?
47 comments:
judaa andaaz kii ek sundar kavitaa
गुलाबी कोंपलें
आपको पढता तो बहुत दिन से हु पर कमेन्ट करने कि हिम्मत नहि हई
प्रेम की कोई उम्र नही होती.. ये तो हर उम्र में पहले बसंत सा अहसास देता है..
ना वो सादा दिल रहे ना हम....हाँ मुहब्बत जरूर इस जिंदगी के मेले में अब भी अकेली भटक रही है
ranjana ji ,
ye rachna ek naya andaaj liye hue hai ..
tab aur ab ka fark ke liye jimmedaar sirf samay hi nahi .. man bhi ti hota hai...
bahut sundar abhivyakhthi
der si badhai
मन की गहरे से लिखी कविता लगती है, कुछ खामोश पीड़ा व्यक्त करती सशक्त रचना
प्यार के अक्षर कितने भी हों.....जब तक कोई कोना खाली ना रह जाए,तो प्यार क्या !
विलक्षण प्रस्तुति....
प्यार के अक्षर कितने भी हों.....जब तक कोई कोना खाली ना रह जाए,तो प्यार क्या !
विलक्षण प्रस्तुति....
मन की गहरे से लिखी कविता लगती है, कुछ खामोश पीड़ा व्यक्त करती सशक्त रचना
प्यार के अक्षर कितने भी हों.....जब तक कोई कोना खाली ना रह जाए,तो प्यार क्या !
विलक्षण प्रस्तुति....
जब दिल यूँ ही बातें करता है ख़ुद अपने आप से ....तब मोहब्बत की वो घडियां याद आती हैं .....
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
शायद इसलिए क्योंकि उस वक्त मुहब्बत थी और कुछ नहीं...और अभी जंग छिडी हुयी है, दिल और दिमाग में. अब इस जंग के दरमयान मुहब्बत की फुर्सत निकालने में मुश्किल हो रही होगी.
तब और अब के बीच भावों बहुत ही सुन्दर तरीके से एक रचना में पिरोया है आपने।
प्रेम भाव से ..
रंग डाले हैं पन्ने कई ..
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
दिल और दिमाग की ज़ंग में
अभेद दुर्ग की दिवार का
पहरा सा रहता है ....
सुन्दर।
mohobaat ka roop har waqt ke saathbadal jaata hai,magar wo rehti dil mein hai.tab aur ab mein lekin farak bahut hai,bahut khub.
बहुत सुंदर ताने में बुने हुए विचार.. ज़िंदगी उधेड़बुन के इर्द-गिर्द हिचकोले खाती जाती है..
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
दिल और दिमाग की ज़ंग में
अभेद दुर्ग की दिवार का
पहरा सा रहता है ....
" शानदार भाव ....मन के अंतर्द्वंद की कल्पना और भाव्व्यक्ति का सजीव चित्रण"
Regards
बहुत सुंदर.....तब सिर्फ दिल होता है ..... और अब उसके साथ दिमाग भी....अच्छा लगा पढकर।
यही खालीपन मन में एक छट्पटाहट की सृष्टि करता है और फिर रचा जाता है अपना श्रेष्ठतम.
सुन्दर रचना के लिये आभार.
जहाँ तक हमारी समझ जाती है... समय-समय की बात है :-)
नाजुक मोड़ पर
जब "लिखे गए थे"
.......
रंग "डाले हैं" पन्ने कई ..
"तब" "लिख गए थे " और "अब " "रंग डाले हैं ". "लिख जाने " और "लिख डालने" का जो फर्क है वही तब और अब में फर्क है कदाचित. कविता पढ़कर अनायास ही मन उस फर्क को ढूढने लगा.
नहीं टिपियाने का करण भी लिख ही देते हैं.. मैं आमतौर पर कवितायें पूरे फुरसत में बैठकर पढ़ता हूं.. और फुरसत में ही बैठ कर टिपियाता भी हूं.. मगर आपने डरा धमका कर मजबूर कर दिया है तो टिपियाना पड़ रहा है..
बिलकुल किसी ब्लौगिये स्टाईल में टिपियाऊंगा.. :)
सोचता है तब मन
बेबस हो कर.....
तब और अब में
इतना बड़ा फर्क क्यों है ?
वाह क्या लिखा है आपने.. बधाई.. :P
सोचता है तब मन
बेबस हो कर.....
तब और अब में
इतना बड़ा फर्क क्यों है ?
बहुत सुंदर भाव लिये है आप की कविता.
्धन्यवाद
रंजना जी तब और अब मे ही मन उलझा रह जाता है ।
सुंदर अभिव्यक्ति ।
Ab kya kahun........bas....waah waah aur waah.......gahre padi gaanth ko aapne shabd de diya....sundartam.
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
दिल और दिमाग की ज़ंग में
अभेद दुर्ग की दिवार का
पहरा सा रहता है ....
बहुत अच्छी कविता ...एक खामोश सी कहानी कह गई हो जैसे!
साधारण शब्दों में
आसाधारण भाव प्रेषित करती है आपकी लेखनी।
रंजना जी,
आज शायद पहली बार कमेंट कर रहा हूँ. कविता अच्छी लगी.
मोक्ष के लक्ष को मापने के लिए,
जाने कितने जनम और मरण चाहिए ।
प्यार का राग आलापने के लिए,
शुद्ध,स्वर,ताल,लय,उपकरण चाहिए।।
मोक्ष के लक्ष को मापने के लिए,
जाने कितने जनम और मरण चाहिए ।
प्यार का राग आलापने के लिए,
शुद्ध,स्वर,ताल,लय,उपकरण चाहिए।।
मन ढूंढता है फिर वही .......
दीदी, अभी फुर्सत से पढ़ा..
लगा जैसे पूरे जीवन का सार आपने कुछ पंक्तियों में उतार दिया है..
सच कहूँ, ऐसी बातें पढ़कर दिल उदासी में डूबने लगता है.. :(
सोचता है तब मन
बेबस हो कर.....
तब और अब में
इतना बड़ा फर्क क्यों है ?
bahut hi sarthak prashn.......
bahut hi sundar bahut badhiyan
मन की बात न मानो, प्रज्ञा का अवलम्बन ले लो,
अन्तर-भेद मिटा कर, लेखनी का अवलम्बन ले लो।
मन की बात न मानो, प्रज्ञा का अवलम्बन ले लो,
अन्तर-भेद मिटा कर, लेखनी का अवलम्बन ले लो।
सोचता है तब मन
बेबस हो कर.....
तब और अब में
इतना बड़ा फर्क क्यों है ?
vo kalpanao ka sansaar tha or ab hakikat hai...kalpana or hakikat me fark to hota hi hai
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
दिल और दिमाग की ज़ंग में
अभेद दुर्ग की दिवार का
पहरा सा रहता है ....बहुत सुन्दर लिखा आपने, बधाई.
wah wah wah.. bahut sundar kavita
और .....
अब न जाने
कितने आखर..
प्रेम भाव से ..
रंग डाले हैं पन्ने कई ..
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
wah
"पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है"
बहुत सुंदर, भावनाओं से पूर्ण, अभिव्यक्ति !!
सस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
समय बदलाव का सबसे बडा कारण है। समय के साथ चीजें ही नहीं ख्याल, विचार और अनुभूतियॉं भी बदल जाती हैं। और अगर ऐसा न होता, तो इतनी सुन्दर कविता कैसे पढने को मिलती।
बहुत उत्तम. अपने सच ही लिखा, उम्र के नाजुक मोड़ पर प्यार के बारे में जो भी लिखा जाता है, उसका कोई मोल नहीं होता. चाहे उस लिखे में कोई हजार गलती बहाए पर वह उस लेखक के लिए तो "सीप से निकले मोती" की तरह होता है. बेहद खूबसूरत और अनमोल. मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद.
बहुत उत्तम. अपने सच ही लिखा, उम्र के नाजुक मोड़ पर प्यार के बारे में जो भी लिखा जाता है, उसका कोई मोल नहीं होता. चाहे उस लिखे में कोई हजार गलती बहाए पर वह उस लेखक के लिए तो "सीप से निकले मोती" की तरह होता है. बेहद खूबसूरत और अनमोल. मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद.
प्रेम की कोई उम्र तो नहीं होती
पर हर उम्र का प्रेम अल्हड नहीं होता
उम्र के उस नाजुक मोड पर
प्रेम शाश्वत लगता है
प्रेम सत्य लगता है
पर उम्र के दूसरे मोड पर
रोजी रोटी सच्ची लगती है
और अल्हडता बचकानी।।
अद्भुत रचना.....रंजना जी
"और .....
अब न जाने
कितने आखर..
प्रेम भाव से ..
रंग डाले हैं पन्ने कई ..
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है
दिल और दिमाग की ज़ंग में
अभेद दुर्ग की दिवार का
पहरा सा रहता है ...."
बड़े दिनों बाद एक अच्छी मुक्त छंद वाली कविता दिखी
'और .....
अब न जाने
कितने आखर..
प्रेम भाव से ..
रंग डाले हैं पन्ने कई ..
पर कोई कोना मन का
फ़िर भी खाली दिखता है'
- और यही खाली कोना एक नयी रचना को जन्म देता है.
भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति लिये रचना.. बधाई
रंजना जी, जब भी आपको पढ़ताहूँ लगता है क़त्ल कर दिया आपने...
पर,कमबख्त हर बार आप ऐसा ही करती हैं....तब भी जब आपको पहली बार पढ़ा था...और अब भी जब मैं आपको सैकड़ों बार पढ़ चुका हूँ.........
आलोक सिंह "साहिल"
ranjana ji
nari ke man ko aapne bahut hi sundar bhacon mein piroya hai aur shayad sach bayan kiya hai.
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