Tuesday, October 21, 2008

कभी कभी कलम भी चाहती है आराम :)

कल्पनाओं के जाल दिल दिमाग पर फैले हैं ..बहुत कुछ चल रहा होता है दिमाग में .हाथ मचल रहे होते हैं लिखने के लिए और उस वक्त दिल है कि लिखने से मना कर देता है ..बहुत से लोगों के साथ इस तरह होता है ..अजब सी एक बेख्याली होती है ...जैसे ममता जी ने लिखा कि लिखने का दिल है पर लिख नही पा रही हैं ....ऐसा अक्सर हो जाता है ..बहुत से लिखने वाले इस तरह से जब कुछ लिख नही पाते थे तो अन्य रूचियों में ख़ुद को व्यस्त कर लेते थे |इसी न लिखने के समय को हम बार्दो होंद कह सकते हैं ..अमृता प्रीतम के एक लेख में इस "स्थिति" का बहुत सुंदर उल्लेख किया गया है ..

यह एक तिब्बती कल्पना है बार्दो होंद ...जिस में तीन भाग माने जाते हैं ..पहला साइकिक एहसास ,मौत के समय का .दूसरा सपने की सी दशा का .और तीसरा पुनर्जन्म की चेतना ..जो पहली दशा में शरीर की क़ैद से मुक्ति की सम्भावना होती है और दूसरी दशा में चमकती हुई रोशनी के पल पल में मद्धिम होने पर अँधेरा सा अनुभव होता है जिस से आंखों के आगे उभरते हुए चित्र और भी डराने लगते हैं और तीसरी दशा में चेतना का कम्पन होता है जो पुनर्जन्म के समय के पास होने का एहसास करवाता है ..उसी प्रकार से किसी नई रचना को लिखना लेखक का नया जन्म कहलाता है यह दशा ठीक उसी तरह की है जब बहुत कुछ लिख लिया है और अब नया लिखने के लिए कुछ समय चाहिए | .इस तिब्बती कल्पना के बारे में डॉ जुंग ने लिखा है कि यह बार्दो होंद के काल में उन उनचास दिनों का वर्णन है जो मौत के बाद और पुनर्जन्म से पहले बिताने पड़ते हैं ..इस लिए इस दशा को हम ज़िन्दगी में कई जगह प्रतीक के रूप में आरोपित कर सकते हैं | उदाहरण के लिए एक लेखक के लिए न लिखने का काल बार्दो होंद कहा जा सकता है ..जिस में वह न लिखने वाले समय को कैसे किस तरह से बिताते हैं ....

जैसे हेमिंग्वे जब कुछ नही लिखते थे तो उन दिनों में या तो शिकार करते थे या फ़िर गहरे समुन्द्र में जा कर मछलियां पकड़ा करते थे

रविन्द्र नाथ ठाकुर के जो दिन रचना काल के नही होते थे वह उन दिनों में रमते फकीरों के गीत सुना करते थे|

दोस्तोएव्सकी अपने खाली दिनों में सिर्फ़ जुआ खेलते थे और नीत्शे पहाडों की चढाई में और उतराई में खो जाया करते थे|

कृशन चंदर अपनी नई कहानी की तलाश में घूमते हुए सोचा करते थे कि सडको की पटरियों में रहने वालों लोगों के साथ वह रात को चुप चाप जा कर सो जाए और उनके निजी दुखों को और सुखों को कानो के रास्ते से उतार का अपनी कहानी में ढाल दे |वह उस सच लिखे लिखे जो बिल्कुल ज़िन्दगी के करीब हो |

प्रसिद्ध युगोस्लाविया कवि आस्कर दावीचे के बारे में लिखा है कि जिन दिनों उनके हाथो में कलम नही होती थी तब बन्दूक होती थी वह तब सिर्फ़ जंगल जा कर शिकार खेला करते थे जैसे विलियम स्टेफर्ड अपनी एक कविता में लिखते हैं कि," कभी धरती के इस टुकडे में कोई पुरातन कथा सरकती हुई दिखायी दे जाती है ....सारे लेखक यूँ ही आपने अपने ढंग से अचानक हुए पलों में जी लेते थे और सरकते हुए पलों में कुछ नया लिखने का खोज लेते थे .जैसे उन लम्हों के कम्पन को अपने दिलो दिमाग में संभाल का रख लिया हो ..अब जब वह नया लिखेंगे तो यह सब जो उन्होंने महसूस किया वह उनकी कलम में ढल जायेगा |

तो यह शायद यह मानव मन की एक स्वभाविक प्रक्रिया है |हर काम से दिल दिमाग थोड़ा वक्त चाहता है ...पर उसके बाद जो भी लिखा जायेगा वह अनूठा होगा नया होगा ..नए एहसासों में ढले हुए नए लफ्ज़ होंगे |

Monday, October 20, 2008

उद्धव ज्ञान


छुआ है अंतर्मन की गहराई से
कभी तुम्हारी गरम हथेली को
और महसूस किया है तब
बर्फ सा जमा मन
धीरे धीरे पिघल कर
एक कविता बनने लगता है
देखा है कई बार तुम्हारी आंखों में
सतरंगी रंगो का मेला
मेरी नज़रों से मिलते ही वह
सपने में ढलने लगता है
तब ......
यह भी महसूस किया है दिल ने मेरे
कि उलझी अलकों सी ,उलझी बातें
कुछ और उलझ सी जाती है
प्रेम के गुंथे धागे में
कुछ और गांठे सी पड़ जाती है
खाली सा बेजान हुआ दिल
और रिक्त हो जाता है
दिल के किसी कोने में
ख़ुद से ही संवाद करता
मन उद्धव ज्ञान पा जाता है !!

Friday, October 17, 2008

चाँद के रूप जयपुर ऍफ़ एम्.रेडियो पर

चाँद रात के कई रूप आप सबने पिछली पोस्ट में पढ़े ..और पसंद भी किए उसके लिए शुक्रिया ..कल जब आशीष [हिन्दी ब्लॉग टिप्स ]ने कहा कि आपके यह चाँद के रूप यदि जयपुर ९५ ऍफ़ एम् पर गुनगुनाये जाए तो आपको कोई एतराज़ तो नही ...अरे वाह!! सुन कर दिल चाँद चाँद हो गया :) मैंने कहा जरुर आज तो दिन भी चाँद का है :)..........और यह आज सुबह जयपुर ९५ ऍफ़ ऍम तड़का .... सॉलिड रेडियो आर जे सूफी के प्रोग्राम में शामिल हुए ...आपने अब तक इसको पढ़ा है अब सुनिए भी .शुक्रिया आशीष ..और आर जे सूफी का ...मेरे लिखे चाँद के रूप को आवाज़ देने के लिए ...

Monday, October 13, 2008

रोज़ उठ कर चाँद टांगा है ,फलक पे रात को


यह हफ्ता चाँद का हफ्ता है ..कितना रूमानी लगता है न आज कल आसमान पर मुस्कराता हुआ सा चाँद ....कभी मचलता हुआ ..कभी लुका छिपी खेलता है यह चाँद ...और जब जिस दिन इसको देखने की बेताबी होगी उस दिन यह खूब नखरे से दिखेगा ....चाँद के सब रूप मन भाते हैं ..है न ..:) तभी तो यह कविता में आसानी से अपनी जगह बना लेता है ... और गुलजार जी ने तो कयामत ही कर दी है इस चाँद लफ्ज़ को ले कर ...

रोज़ उठ कर चाँद टांगा है ,फलक पे रात को
रोज़ दिन की रोशनी में रात तक आया किए

हाथ भर के फासले को उम्र भर चलना पड़ा !!



कुछ रूप ढले हैं मेरे इन लफ्जों में भी ...


भीगा चाँद
टप टप टपकते मेह सा
सिला सा -अधजगा सा
तन्हाई में लिपटा
धीरे धीरे दस्तक देता रहा
नज़रो से बरसता रहा



अमावस का चाँद
तेरे मेरे मिलन के
बीच ढला
एक न ख़त्म
होने वाला अँधेरा



पूर्णिमा का चाँद
यूँ निकला
तमस के
अंधेरों को चीर कर
जैसे कोई
ख़त तेरे आने की
ख़बर दे जाए ....

ज़िन्दगी के रंगों का कैनवास है ""साया ..""

इसको पढने के लिए इस पर क्लिक करे

"'साया "'की समीक्षा मनविंदर द्वारा ...
मनविंदर हिन्दुस्तान पेपर में लिखती है ..उन्होंने इस किताब की समीक्षा १० अक्तूबर को हिन्दुस्तान पेपर में बुक वॉच में करी है ..शुक्रिया मनविंदर ..अभी तक मेरी इस पहली किताब को आप सब का बहुत स्नेह मिल रहा है ...शुक्रिया ..... जो किताब लेना चाहे मेरे आई डी पर मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं ...धन्यवाद
ranjanabhatia2004@gmail.com

Wednesday, October 08, 2008

प्रतिबिम्ब


क्यों बना लिए हैं
हमने ....
कुछ सपनो के पुल
जिस पर उड़ रहे हैं
हम.......
कागज की चिन्दियों की तरह
कुछ भी तो नही है शेष
अब .......
मेरे -तुम्हारे बीच
क्यों हमने....
यह कल्पना के पंख लगा के
रिश्तों को दे दिया है एक नाम ..
जिस पर .....
रुकना -चलना-मिलना
फ़िर अलग होना
सिर्फ़ हवा है .....
जो बाँध ली है बंद मुट्ठियों में
जिस में सिर्फ़
"तुम" हो और तुम्हारा " मैं"
जो रचता रहता है गुलाबी सपने
और चन्द बेजुबान से गीत
और .....
जिस में सब कुछ है....
पर सिर्फ़ ...
तुम्हारा ही बुना हुआ
जैसे जमी हुई नदी सा
रुका हुआ और ठहरा हुआ ......

Saturday, October 04, 2008

अर्चना शर्मा जी ने कहा है आप सबको शुक्रिया

कल मैंने एक पोस्ट अर्चना जी ,जो महाप्रयोग से जुड़ी हुई है ...उनके अब तक के इस सफर पर पोस्ट करी थी महाप्रयोग से जुड़ी झांसी की रानी अर्चना शर्मा .. विशेष बात आज और जुड़ गई है इस पोस्ट के साथ कि इसको अर्चना जी ने पढ़ा ,और आप सब ने जिस तरह उनको प्यार दिया है उस से वह अभिभूत हो गई है ..उन्होंने आप सबको शुक्रिया कहा है ..जो मेल उनका मुझे आज आया मैं उसको वैसा ही यहाँ दे रही हूँ ....भारत की इस दूसरी झांसी की रानी को दिल से सलाम ..और साथ में शुक्रिया आशीष का जिनकी वजह से मुझे उन से मेल पर बात करने का मौका मिला

Dear Ranjana,

Thank you very much for your kind words, and to all the people who have given comments at

http://ranjanabhatia.blogspot.com/2008/10/blog-post.html

I wish all of you the very best !

Archana Sharma

अक्तूबर २००८

Thursday, October 02, 2008

महाप्रयोग से जुड़ी झांसी की रानी अर्चना शर्मा





पिछले दिनों महाप्रयोग की बहुत चर्चा रही ...इस महा प्रयोग में भारतीय योगदान भी है और कई वैज्ञानिक इस से जुड़े हुए हैं ...अपने बीते हुए कल को जानना ,और आने वाले कल को सुरक्षित करना इस महाप्रयोग का अहम् हिस्सा है ...जब यह प्रयोग अपने नतीजे देना शुरू करेगा तो जो वैज्ञानिक इनसे जुड़े हैं ,जिनकी दिन रात की मेहनत रंग लाएगी उनका यह आभार दुनिया नही भूल पाएगी ..

.इसी प्रयोग से जुड़ी आज एक भारतीय महिला से आपको रूबरू करवाते हैं ..जिनका नाम है अर्चना शर्मा ..इनका साक्षात्कार लिया है आशीष खण्डेलवाल ने | जो हिन्दी ब्लॉग जगत को नई नई तकनीक से तो परिचित करवाते ही हैं पर साथ पेशे से यह पत्रकार हैं | जब मैंने यह पढ़ा तो मैं इनके लेखन के साथ साथ उस महिला से भी बहुत प्रभावित हुई ..जो इस महाप्रयोग में जुड़ी हुई हैं| .दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक प्रयोग में हिंदुस्तानी माटी से जुड़ीं अर्चना शर्मा की अहम भूमिका है। वे दुनिया की उत्पत्ति का रहस्य जानने के लिए हो रहे इस महाप्रयोग को अंजाम दे रहे यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन (सर्न) की इकलौती स्थाई भारतीय सदस्य हैं।

छोटे से शहर की अर्चना शर्मा को बड़े सपने देखने से कोई रोक नही पाया ..शादी हुई तो सब ने ससुराल में इन्हे बहुत सहयोग दिया ..यही वजह रही आज वह इस मुकाम पर हैं | यदि आप दिल में कुछ ठान लेते हैं तो आपको आगे बढ़ने से कोई नही रोक सकता है | बेशक अभी भी भारत में स्त्री पुरूष लिंग भेद जारी हो .पर जिसने जैसे आगे जाना है वह अपना रास्ता बना ही लेता है और मंजिल पा जाता है |

झांसी की रानी आशीष ने बिल्कुल सही नाम दिया है इन्हे .महाप्रयोग के तकनीकी कारणों से फिलहाल थोड़े समय के लिए रुकने के बीच उनसे बातचीत का खास अवसर मिला। जानते हैं अर्चना के इस मुकाम तक पहुंचने की कहानी, उन्हीं की जुबानी-.क्या बताया उन्होंने आशीष को ..आईये जानते हैं ...

छोटे शहर के हर हिंदुस्तानी बच्चे की तरह मेरे भी बड़े सपने थे। भौतिक विज्ञान के प्रति मेरी जिज्ञासा उस वक्त जागी, जब सेंट फ्रांसिस कॉन्वेंट स्कूल में सिस्टर एक्वेलिना ने क्लास टेस्ट में अच्छे प्रदर्शन के लिए स्कूल असेंबली में मेरी जमकर तारीफ की। प्रचलित भारतीय प्रथा के मुताबिक मेरे भी तीन प्रण थे- पढ़ाई, पढ़ाई और पढ़ाई। माता-पिता दोनों शिक्षक थे, इसलिए यह प्रण मेरे लिए और भी खास था। भौतिक शास्त्र में सर्वाधिक अंकों के साथ उच्च माध्यमिक परीक्षा पास करने से मेरी इस विषय के प्रति दिलचस्पी और जाग गई।
झांसी को भले ही रानी लक्ष्मी बाई के लिए जाना जाता हो, लेकिन लड़कियों की पढ़ाई के मामले में यह थोड़ा पिछड़ा हुआ था। हो सकता है कि अब स्थिति बदल चुकी हो, लेकिन अस्सी के दशक की शुरुआत से पहले तक वहां विज्ञान विषय के लिए केवल एक कॉलेज था और वहां लड़कियों को लडक़ों के साथ ही पढऩा पड़ता था। परंपरावादी सोच वाले मेरे माता-पिता इसके लिए तैयार नहीं हुए और आर्थिक समस्या के बावजूद उन्होंने मेरा दाखिला वाराणसी के बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में करा दिया। यहां महिला महाविद्यालय के प्राचार्य मेरे पिता के दूर के रिश्तेदार थे और उन्होंने मुझे वहां बीएससी और एमएससी की उपाधि लेने में सहयोग किया। नाभिकीय भौतिकी में मेरी दिलचस्पी जगाने के लिए मैं डॉ. शकुंतला, प्रो. माथुर, प्रो. तूली और प्रो. अम्मीनी अम्मा जैसे शिक्षकों का योगदान कभी नहीं भूल सकती।
अब वह वक्त आ गया था, जब हर हिंदुस्तानी लडक़ी के माता-पिता उसकी विदाई को लेकर चिंतित होना शुरू हो जाते हैं। उस वक्त एक तरफ मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से पीएचडी की तैयारी कर रही थी और दूसरी ओर मेरे लिए रिश्ते ढूंढ़े जा रहे थे। मुझे 1985 का वह वक्त आज भी याद है, जब मेरे अनुसंधान को देखते हुए मुझे कुछ महीनों के लिए यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन (सर्न) में बतौर विजिटिंग साइंटिस्ट आमंत्रित किया गया। शादी से पहले विदेश भेजने के लिए माता-पिता बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। अच्छा वर मिलने के मामले में किस्मत ने मेरा साथ दिया और जल्दी ही मैं 'मिस गौड़' से 'मिसेज शर्मा' बन गई। सबसे अच्छी बात यह थी कि मेरे ससुराल वालों ने मेरे कॅरियर को आगे बढ़ाने में मेरा साथ दिया। इसलिए मैं 1987 में सर्न की यात्रा के लिए स्विट्जलैंड चली आई।
सर्न के रोमांचकारी अनुभव के दौरान ही मुझे इटली के हाई एनर्जी फिजिक्स संस्थान में एक वर्कशॉप में जाने का मौका मिला और वहां मेरे अच्छे प्रदर्शन से मुझे सर्न में काम करने के लिए तीन साल की फैलोशिप मिली। झांसी के छोटे से मोहल्ले जोखन बाग की लडक़ी के लिए यह सबसे बड़ा सपना साकार होने जैसा था।
छोटे से परिवार को संभालने के साथ ही मैंने अध्ययन भी जारी रखा और जेनेवा विश्वविद्यालय से डीएससी और एक्जीक्यूटिव एमबीए किया। इस दौरान मैंने सर्न के साथ ही दूसरे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ अस्थाई रूप से काम किया और वर्ष 2001 में सर्न ने मुझे स्थाई सदस्य वैज्ञानिक के रूप में मान्यता दी। इसके स्थाई सदस्यों में शामिल होने वाली मैं पहली गैर-यूरोपीय सदस्य थी। अब मैं जब इस महाप्रयोग का बड़ा हिस्सा बनी हूं, तो मुझे लगता है कि मैंने साबित कर दिखाया है कि यह संसार एक है और विकास के लिए देशों की सीमाएं कोई महत्व नहीं रखती। भले ही महाप्रयोग तकनीकी वजह से फिलहाल स्थगित कर दिया गया हो, लेकिन अगले साल इसके फिर से शुरू होने पर मैं पूरी अंतरराष्ट्रीय टीम के सहयोग से मुस्तैद रहूंगी और हम इस प्रयोग को सफलता दिलाकर रहेंगे।
मेरा हिंदुस्तानी नारियों के लिए संदेश है कि आत्मनिर्भर बनो। कॅरियर का विकास सीधे-सीधे इस बात से जुड़ा है कि आपने उस काम में कितना वक्त और जज्बा लगाया है। प्रतिभा की हमेशा पूछ होती है। मैंने भी परिवार और कॅरियर के बीच के संघर्ष को झेला है। यह बात दुनिया की हर महिला और हर पेशे के लिए लागू है।

यह सब बातें उन्होंने आशीष को अपने साक्षात्कार में बतायी ...मुझे यह पढने का अवसर मिला और इसको अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने का सौभाग्य भी ...शुक्रिया आशीष ..इस झांसी की रानी से हमें रूबरू करवाने का |

वर्जनाओं के जंगल में से राह निकालने का अवसर अब भी हर लड़की को नही मिलता .वो जो भी करती है उसके हर कार्य पर समाज की नजर रहती है ...आज जो कामयाबी की खुशी ,आँखों में चमकती चमक ,हंसती मुस्कराती तस्वीर जो अखबार के पन्नो पर दिखायी देती है वह एक बहुत रास्ता संघर्ष का तय कर के आई होती है पर उसकी विजय निश्चित है क्यूंकि जब वह कुछ कर गुजरने की ठान लेती है तो उस मंजिल को पा जाती है |