Wednesday, October 08, 2008

प्रतिबिम्ब


क्यों बना लिए हैं
हमने ....
कुछ सपनो के पुल
जिस पर उड़ रहे हैं
हम.......
कागज की चिन्दियों की तरह
कुछ भी तो नही है शेष
अब .......
मेरे -तुम्हारे बीच
क्यों हमने....
यह कल्पना के पंख लगा के
रिश्तों को दे दिया है एक नाम ..
जिस पर .....
रुकना -चलना-मिलना
फ़िर अलग होना
सिर्फ़ हवा है .....
जो बाँध ली है बंद मुट्ठियों में
जिस में सिर्फ़
"तुम" हो और तुम्हारा " मैं"
जो रचता रहता है गुलाबी सपने
और चन्द बेजुबान से गीत
और .....
जिस में सब कुछ है....
पर सिर्फ़ ...
तुम्हारा ही बुना हुआ
जैसे जमी हुई नदी सा
रुका हुआ और ठहरा हुआ ......

22 comments:

Arvind Mishra said...

कविता अच्छी है - अगर सपने ना हों , जीवन के प्रति मोह कम होता जायेगा !

Vivek Gupta said...

सुंदर कविता | एक प्रश्न : एक कविता लिखने में कितना समय लगता है |

Unknown said...

रंजना जी बहुत सुन्दर लिखी ये कविता ।

डॉ .अनुराग said...

ऐसा लगा जैसे किसी स्त्री ने उदास होकर लिखी है ये कविता !

dpkraj said...

रंजू जी आपकी यह उदास कविता बहुत अच्छी लगी। इस पर कुछ पंक्तियां कहने का मन था सेा लिख दी।
दीपक भारतदीप
.................................
अतीत के गुजरे पल ही
दिमाग को इस तरह सताते
कि भविष्य के सपने
सामने चले आते
साथ चलता तो है
बस आज का सच
जो बहुत लगता है बहुत कठोर
उससे बचने के लिये
सपनों को ही बुने जाते
अगर सच हो गया तो ठीक
बिखर गया तो उस पर रोना क्या
जिंदगी है इसी का नाम
जिसमें सपनों के दौर आते जाते
..........................

Ashok Pandey said...

हमेशा की तरह सुंदर कविता..भावनाओं की गहराई का अहसास कराती हुई। आभार।

Ashok Pandey said...

हमेशा की तरह सुंदर कविता..भावनाओं की गहराई का अहसास कराती हुई। आभार।

सुशील छौक्कर said...

आपने हमेशा की तरह सुन्दर रचना लिखी। वैसे ये रचना उदास कर गई। लगता है "तू" "मैं" नहीं बना और "मैं" "तू" नही बना। बहुत हो गया .....पर कुछ हकीकत भी दिखानी चाहिए। उम्दा।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

जो बाँध ली है बंद मुट्ठियों में
जिस में सिर्फ़
"तुम" हो और तुम्हारा " मैं"

Anonymous said...

बहुत ही सुंदर शब्‍दों से लिखी है आपने ये सुंदर कविता बहुत ही सुंदर बधाई हो

राज भाटिय़ा said...

क्यो बना लिये है
हमनै.....
कुछ सपनो के *पुल*
जिस पर **उड** रहै है
हम
क्या बात है. अति सुन्दर,
धन्यवाद

Reetesh Gupta said...

सुंदर कविता ....बधाई

mehek said...

यह कल्पना के पंख लगा के
रिश्तों को दे दिया है एक नाम ..
जिस पर .....
रुकना -चलना-मिलना
फ़िर अलग होना
सिर्फ़ हवा है .....bahut bahut khubsurat

रश्मि प्रभा... said...

यह कल्पना के पंख लगा के
रिश्तों को दे दिया है एक नाम ..
kaafi kuch hai is rachna me ,jinhe abhivyakt karna aasan nahi
mann ki gahri parat hai

Asha Joglekar said...

बहुत सुंदर और यथार्थ

हवा जो बाँध ली है बंद मुट्ठियों में
जिस में सिर्फ़
"तुम" हो और तुम्हारा " मैं"

अजित वडनेरकर said...

बहुत सुंदर कविता है रंजना जी ....
शुक्रिया पढ़वाने का

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब रचना...एक एक शब्द सधा हुआ सटीक अर्थपूर्ण...वाह...बेमिसाल...
नीरज

L.Goswami said...

sundar kavita ranju jee..aap to waise bhi kafi badhiyan likhtin hain.

Kavi Kulwant said...

Ranjana ji...
keval lay badha tukant kavita likha kiziye...

Satish Saxena said...

बहुत बढ़िया रंजना जी !

Smart Indian said...

जैसे जमी हुई नदी सा
रुका हुआ और ठहरा हुआ

बहुत सुंदर!

pallavi trivedi said...

खूबसूरत कविता...