बच्चों सा मन और बच्चों सी इबारत
लिखना सरल नहीं होता
कितनी आसानी से वह
लिखते हैं और .......
फ़िर उसको मिटा देते हैं
पर बड़े होने पर हम
सही ग़लत के गणित में उलझे
अपनी ही लिखी ....
इबारतों को नही मिटा पाते ..
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं ....
रंजना [रंजू ] भाटिया
लिखना सरल नहीं होता
कितनी आसानी से वह
लिखते हैं और .......
फ़िर उसको मिटा देते हैं
पर बड़े होने पर हम
सही ग़लत के गणित में उलझे
अपनी ही लिखी ....
इबारतों को नही मिटा पाते ..
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं ....
रंजना [रंजू ] भाटिया
19 comments:
इबारतों को नही मिटा पाते ..
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं
sunder bhaaw hai.....
पर बड़े होने पर हम
सही ग़लत के गणित में उलझे
अपनी ही लिखी ....
इबारतों को नही मिटा पाते ..
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं
bahut sahi kaha ranju ji ,kaas hum bachhon ki tarah apnalikha mita sakte aur phir se ek naya aayam likh pate,magaraisa nahi hota aur wo likhawat nasoor sichubti hai,bahut gehre bhav chupe hai kavita mein,badhai.
बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति.. काश बड़े होने के बाद भी हम जिंदगी के खिलौने बदलने को स्वतंत्र होते..
वो सहज बालमन अब कहाँ सम्भव है ! सुंदर लगी ये कविता.
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं ....
एक कड़वा सच लिखा है.
इस इबारत का कोई अक्षरकभी खरोंच ना दे बस यही कोशिश करनी चाहिये.
बिल्कुल सही लिखा है। बचपन सरल होता है।
हम बड़े होते ही क्यो है.. ?
बड़ी गहरी बात-बेहतरीन अभिव्यक्ति!!
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं ....
कड़वा सच है ये भी !
itna kuch isme kaha hai ki main mugdh ho gai........badee bhawnaaon ko saral bachchon ki ibaarat sa samjha diya
yadon ke nashtar ne jawani ke pathrile seene ko lahu se geela kar diya.....
ALOK SINGH "SAHIL"
सुंदर अभिव्यक्ती!सच में हम बडे होते ही क्यों है?
बहुत गहरी बात कह गई आप इस रचना में।
पर बड़े होने पर हम
सही ग़लत के गणित में उलझे
अपनी ही लिखी ....
इबारतों को नही मिटा पाते ..
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं .
बहुत खूब।
तभी तो कहते है बच्चा राजा होता है, लेकिन क्या हमारे यहां सच मै बच्चा राजा होता है???
बहुत ही उम्दा कविता.
धन्यवाद
क्या बात कही है आपने...वाह...सच है बच्चों जैसी निश्चलता जीवन फ़िर से लौट कर नहीं आती...हम बड़े हो कर क्यूँ इतने समझदार हो जाते हैं?
नीरज
काफी गहरी बात लिखी है आपने। फिल्म गीत गाता चल का किशोर कुमार का वो गीत याद आ रहा है कि
बचपन हर गम से बेगाना होता है......
हो बचपन....
हम ढूँढते हैं जीवन भर वो ख़ुशियाँ
बचपन में जो पाते हैं
वो हँसते हुए दिन गाती वो रातें
लौट कर फिर नहीं आते हैं
बैहद उम्दा पोस्ट।
आप की रचना पढ कर गीत याद आ गया...
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन... वो बचपन ही ठीक था.. अब तो बस उलझने और टकराव ही है... वो भी अधिकतर बिना किसी कारण
अर्थ गाम्भीर्य ! वे रिसते जख्म भी कई मायनों में दूसरे जख्मों से अच्छे होते हैं जो किसी की याद दिलाते रहते हैं !
सुंदर अभिव्यक्ती!सच kaha.
Post a Comment