पल भर में कैसे ज़िन्दगी बदल जाती है
किसी के एक इशारे से यह खेल खेल जाती है
सुबह निकलते हुए अब एक पल सोचता है मन
देखे हम आते हैं या कोई खबर घर भर को दहला जाती है
मुस्कराते चेहरे डूब जाते हैं आंसुओं में
इन्सान की जान कितनी सस्ती हो जाती है
किसी के लिए महज खेल - तमाशा है यह शायद
पर यहाँ पल भर में किसी की दुनिया बदल जाती है
रंजू
किसी के एक इशारे से यह खेल खेल जाती है
सुबह निकलते हुए अब एक पल सोचता है मन
देखे हम आते हैं या कोई खबर घर भर को दहला जाती है
मुस्कराते चेहरे डूब जाते हैं आंसुओं में
इन्सान की जान कितनी सस्ती हो जाती है
किसी के लिए महज खेल - तमाशा है यह शायद
पर यहाँ पल भर में किसी की दुनिया बदल जाती है
रंजू
२६ नवम्बर को जो कुछ बीता वह कभी भुलाया नही जा सकता ..लगातार सब देखते देखते जैसे सब शून्य सा नजर आने लगा है अब तक क्या लिखे न कुछ दिमाग में आ रहा है न लिखा जा रहा है ..सब एक ही जैसी हालत से गुजर रहे हैं ..आक्रोश गुस्सा , बेबसी जैसे लफ्ज़ सबके लिखने में ,बोलने में झलक रहा है ...आतंकवादी हमला शायद दिलों में दर्द देने को कम था जो राजनेताओं के बयानों ने और बढ़ा दिया ..उनकी नजरों में यह सब छोटी छोटी बातें हैं जो अक्सर बड़े बड़े शहरों में होती रहती है ...इसी बीच दिल्ली में वोट भी शुरू हुए ..किसी को वोट देने का दिल नही हुआ पर फ़िर लगा कि इस अधिकार का प्रयोग कर के जिन्हें लाना चाहिए उन्हें तो लाये ..पर सच कहूँ तो एक भी ऐसा वोट देने वक्त नजर नही आया .वोट दे दिया पर उसके नतीजे से अधिक अब लगता है कि कुछ ऐसा होना चाहिए जो हालात बदल दे और हर इंसान को सिर्फ़ प्यार की भाषा सिखा दे ...पर इस के लिए सबको एक साथ होना होगा और उसके लिए किसी इस प्रकार की दुखद घटना की जरुरत न पड़े ..कभी गुलजार ने इसी तरह के हालत पर कहा था ...
एक ख्याल था ....इन्कलाब का
इक जज्बा था
सन अठारह सौ सत्तावन !
एक घुटन थी ,दर्द था ,वो अंगारा था जो फूटा था
डेड सौ साल हुए हैं उसकी
चुन चुन कर चिंगारियां हमने रोशन की हैं
कितनी बार और कितनी बीजी है चिंगारियां हमने
और उगाए हैं पौधे उस रोशनी के !
हिंसा और अहिंसा से
कितने सारे जले जलाव
कानपुर, झांसी ,लखनऊ, मेरठ ,रुड़की ,पटना
आजादी की पहली पहल ज़ंग तेवर दिखलाये थे
पहली बार लगा साँझा दर्द है बहता है
हाथ नही मिलते पर कोई उंगली पकड़े रहता है
पहली बार लगा था खून खोले तो रूह भी खौल उठती है
भूरे जिस्म की मिटटी में इस देश की मिटटी बोलती है
पहली बार हुआ था ऐसा ..
गांव गांव
रुखी रोटियाँ बटती थी
ठंडे तंदूर भड़क उठते थे !
चंद उड़ती हुई चिंगारियों से
सूरज का थाल बज उठा था जब ,
वो इन्कलाब का पहला गरज था !
गर्म हवा चलती थी तब
और बिया के घोंसलें जैसी
पेडों पर लाशें झूलती थी
बहुत दिनों तक महरौली में
आग धुएँ में लिपटी रूहें
दिल्ली का रास्ता पूछती थी
उस बार मगर कुछ ऐसा हुआ
क्रांति का अश्व तो निकला था
पर थामने वाला कोई न था
जाबांजों के लश्कर पहुंचें थे
मगर सलाराने वाला कोई न था
कुछ यूँ भी हुआ ............
अब तो सब कुछ अपना है
इस देश की सारी नदियों का अब सारा पानी मेरा है
लेकिन प्यास नही बुझती
न जाने मुझे क्यों लगता है
आकाश मेरा भर जाता है जब
कोई मेघ चुरा के ले जाता है
हर बार उगाता हूँ सूरज
और खेतों को ग्रहण लग जाता है
अब तो वतन आजाद है मेरा
चिंगारियां दो ....चिंगारियां दो ...
मैं फ़िर से बीजूं और उगाऊं धूप के पौधे
रोशनी छि ड़ कूं जा कर अपने लोगों पर
मिल कर आवाज़ लगाएं
इन्कलाब
इन्कलाब
इन्कलाब !
19 comments:
you are a best writer and I like your thoughts.
you are a good writer
मौजूदा हालात में सच है कि कुछ समझ में नही आ रहा कि क्या लिखें.... बस लिख रहे हैं...! गुलज़ार जी की नज़्म आज की परिस्थितियों पर सटीक है...!
jitna kahuinga kam hoga......
iska main karan hai "main"...
sirf nari ke sine mei hi dil aur wo shakti kyun hoti hai......?
wo hi samajhti hai jisne khoya hai apna
beta,apni beti,apna bhai,apna pati phir bhi
wo hi kyun aage badti hai..
uske paas dil bhi hai aur shakti bhi apne aap mei har jagha purn har tarf se viksit.....
->adhura mein huin bas "main"...
shkti hai to dil nahi kisi ko bhi nahi dekhta kisi ko bhi nahi bakshta....
aur dil hai to shakti nahi kisi par julm hote dekh to sakta hai
aur char aansu baha sakta hai par us julm rok nahi sakta na koshish karta rokne ki.....
ye "main" huin "main" ek "aadmi"
1857 में हम सभी हिन्दुस्तानी थे। अब तो हममें ही कुछ काले अंगरेज हो गए हैं। तभी तो : हर बार उगाता हूं सूरज, और खेतों को ग्रहण लग जाता है।
सुबह निकलते हुए अब एक पल सोचता है मन
देखे हम आते हैं या कोई खबर घर भर को दहला जाती है
sach likhti hain aap..yahi haal hai aaj kal--
Gulzar sahab ki nazm bhi apne aap mein bahtu kuchh kah rahi hai--इस देश की सारी नदियों का अब सारा पानी मेरा है
लेकिन प्यास नही बुझती
inqlaab !inqlaab!sach mein kya hum aazad hain??
हम सबको इस नए दुश्मन से लड़ना है .....एक जुट होकर ..इसी बैचनी को बनाए रखकर
हम साथ हैं -इन्कलाब !
dil se nikla hai har lafz..... "saanjha dard behta hai"... laga koi meri boli bol raha hai.... umda likha hai !
हादसों की ज़द पर हैं तो क्या मुस्कुराना छोड़ दें ?
क़यामत के खौफ से क्या घर बसाना छोड़ दें ??
चुनाव यहाँ भी था पर जैसा आपने लिखा है वोट देने लायक एक भी नहीं था. हम भी साथ हैं.
सुबह निकलते हुए अब एक पल सोचता है मन
देखे हम आते हैं या कोई खबर घर भर को दहला जाती है
sahikaha aaj jaan ki koi kimat nahi rahi,bahut marmik prastuti rahi ranju ji.shahido ko naman.
इस आक्रोश को भुलाना नहीं है... इस बार नहीं !
जब हम जात पत ओर धर्म को भुल कर एक साथ खडे हो कर बोलेगे इन्कलाब तभी इन्कलाब आयेगा, वरना जात पात ओर धर्म के इस खेल मै हम हमेशा ही मरेगे.नेता हमारी मुर्खाता पर ऎश करेगे.
धन्यवाद
किसी के लिए महज खेल - तमाशा है यह शायद
पर यहाँ पल भर में किसी की दुनिया बदल जाती है।
बहुत ही सामयिक और सार्थक शेर है, बधाई कुबूल फरमाएं।
'इन्कलाब' का दिल की भावनाओं से ताल्लुक है
लेकिन आज के इन्सान का दिल तो भ्रष्टाचार और स्वार्थ के नीचे दब कर कराह भी नहीं पाता। फिर भी आप जैसे मुट्ठी भर के लोगों की आवाज़ एक दिन रंग लाएगी। धन्य हो।
वो भी क्या सुकून पायेंगे...
चंद दहशत गर्दों को सजा मिली मौत के घाट उतर गये...किन्तु सोचो हमने क्या खोया, उन भारत के वीर जवानों को जो भारत की अमूल्य निधि थे...उन माँ के लाडलो को मेरा सलाम!
आज का अखबार कल पुराना हो जाता है
इक चिंगारी से राख आशियाना हो जाता है
जो खेलें खून की होली, बेदिल बेदर्द दंरिदें है
जाने क्यों बेरुख सा ये जमाना भी हो जाता है
पल भर में कैसे ज़िन्दगी बदल जाती है
किसी के एक इशारे से यह खेल खेल जाती है
सुबह निकलते हुए अब एक पल सोचता है मन
देखे हम आते हैं या कोई खबर घर भर को दहला जाती है
मुस्कराते चेहरे डूब जाते हैं आंसुओं में
इन्सान की जान कितनी सस्ती हो जाती है
किसी के लिए महज खेल - तमाशा है यह शायद
पर यहाँ पल भर में किसी की दुनिया बदल जाती है
is se adhik bhi kuch kaha ja sakta hai kya ?????
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