Friday, September 12, 2008

ढाई आखर का जादू .



मायूस हूँ तेरे वादे से
कुछ आस नही ,कुछ आस भी है
मैं अपने ख्यालों के सदके
तू पास नही और पास भी है ....

हमने तो खुशी मांगी थी मगर
जो तूने दिया अच्छा ही किया
जिस गम का तालुक्क हो तुझसे
वह रास नही और रास भी है ....



साहिर की लिखी यह पंक्तियाँ ..अपने में ही एक जादू सा जगा देती हैं .इश्क का जादू .. इश्क की इबादत .उस खुदा से मिलने जैसा ,जो नही पास हो कर भी साथ ही है ....यहाँ "'है "'और "'नही "'का मिलन वह मुकाम है .जो दिल को वहां ले जाता है जहाँ सिर्फ़ एहसास हैं और एहसासों की सुंदर मादकता ...जो इश्क करे वही इसको जाने ...जैसे हीर, राँझा -राँझा करती ख़ुद राँझा हो गई ...यह इश्क की दास्तान यूँ ही बीतते लम्हों के साथ साथ बीतती रही |कहते हैं जब किसी इंसान को को किसी के लिए पहली मोहब्बत का एहसास होता है तो वह अपनी कलम से इसको अपने निजी अनुभव से महसूस कर लफ्जों में ढाल देता है | उसको इश्क में खुदा नजर आने लगता है |
इस से जुड़ी एक घटना याद रही है कहीं पढ़ी थी मैंने ..कि एक बार जिगर मुरादाबादी के यहाँ एक मुशायरे में एक नए गजल कार अपनी गजल सुनाने लगे .जिगर कुछ देर तो सुनते रहे फ़िर एक दम बोले कि आप अगर इश्क करना नही जानते तो गजल क्यूँ लिखते हैं ? जो एहसास पास ही नहीं उसका अनुभव न आपकी रूह कर पाएगी न आपकी कलम ..

..एक रिश्ता जो कण कण में रहता है और पूरी कायनात को अपने वजूद में समेट लेता है .यह एहसास सिर्फ़ मन में उतरना जानता है ..किसी बहस में पड़ना नही .....यह सदियों से वक्त के सीने में धड़कता रहा ...कभी मीरा बन कर ,कभी लैला मजनू बन कर ..और कभी शीरी फरहाद बन कर ..
और कभी बाहर निकला भी तो कविता बन कर या शायरी की जुबान में .....जो चुपके से उन अक्षरों में ढल गई और सीधे एहसासों में उतर गई ..पर होंठों तक अपनी मोजूदगी नही दर्ज करा पायी ..
साहिर ने भी शायद यही मुकाम देखा .कुछ बोला नही गया तो धीरे से यही कहा कि मैं अपने ख्यालों के सदके ....

पलकों पर लरजते अश्कों में
तस्वीर झलकती है तेरी
दीदार की प्यासी आँखों में
अब प्यास नही और प्यास भी है ...

यही इश्क का रिश्ता जब सब तरफ़ फ़ैल जाता है तो इस में किसी दूरी का दखल नही होता .किसी भी तर्क का दखल नही होता और न ही किसी तरह के त्याग का ..वह तो लफ्जों के भी पार चला जाता है ....सोलाह कलाएं सम्पूर्ण कही जाती है पर मोहब्बत .इश्क सत्रहवीं कला का नाम है जिस में डूब कर इंसान ख़ुद को पा जाता है ..जहाँ इंसान की चौथी कही जाने वाली अवस्था तक तो शब्द है पर अगली अवस्था पाँचवीं अवस्था है जिसको सिर्फ़ अनुभव से पाया जा सकता है .जहाँ न कोई संकेत है न कोई शब्द ..बस उस में एक अकार होने का नाम ही सच्चा रूहानी इश्क है ..जुलफियां खानम की लिखी पंक्तियाँ इस संदर्भ में कितनी सही उतरती है ..

तेरे होंठो का रंग ,दिल के खून जैसा
और रगों में एक मुहब्बत बह रही
लेकिन उस दर्द का क्या होगा
जो तूने दिल में छिपा लिया ..
इतना ...
कि किसी शिकवे का धुंआ नही उठने दिया ..
वो कौन था ?
अच्छा मैं उसका नाम नही पूछती
तेरी जुबान जलने लगेगी .....




इसी लेख से जुड़ी पहले लिखी कड़ियाँ यहाँ पर पढ़े ..

ढाई आखर प्रेम के
प्रथम कड़ी

ढाई आखर प्रेम के दूसरी कड़ी

प्रेम में स्वंत्रता

17 comments:

pallavi trivedi said...

वाकई ये ढाई आखर जादुई होते हैं....ईश्वर का बनाया सबसे खूबसूरत एहसास!आपकी कलम ने वो जादू जगा दिया!

Anil Pusadkar said...

आपका लिखा पढ कर अच्छा लगा।

रंजना said...

वाह....... बहुत ही सुंदर लिखा आपने.एक एक शब्द सही.आपकी बातें सीधे मन में उतर गई.

दीपक कुमार भानरे said...

जी पढ़कर सुकून भरा अहसास हुआ .

seema gupta said...

' beautiful expression with wonderful description abt love"

Regards

seema gupta said...

' beautiful expression with wonderful description abt love"

Regards

शोभा said...

रंजना जी
सुन्दर लिखा है। सस्नेह

Nitish Raj said...

बहुत ही अच्छा लगा ये ढाई आखर, सच ही कहा है मुरादाबादी जी ने जब एहसास ही नहीं तो उस पर ख्याल शब्दों में कैसे कोई उतार सकता है।

PREETI BARTHWAL said...

बहुत ही अच्छा लगा पोस्ट को पढ़ कर । रंजना जी आपके लिए साहिर जी की एक रचना लिख रही हूं।

ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे,
ये ख्वाब ही तो अपने अमल असास थे,
ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात,
यूं है कि जैसे दस्ते-तहे-संग है हयात।

दिनेशराय द्विवेदी said...

इश्क किये बिना उस का अहसास हो ही नहीं सकता। ये बात दूसरी है कि आप के इश्क का रंग क्या है।

डॉ .अनुराग said...

साहिर अपने आप में एक मुक़म्मल शायर थे....बेमिसाल अल्फाज़...खास तौर से प्यासा के गीत...

Abhishek Ojha said...

इश्क...
कमाल का लिखती हैं आप जब ये मुद्दा होता है.

Manish Kumar said...

meri ghazalon ki diary ke pehle safe par ye ghazal likhi huyi hai par ye sahir ki rachna hai ye aaj hi maloom hua.

lekh bhi pyara laga.

सुशील छौक्कर said...

आपने बहुत सुन्दर लिखा इश्क के बारें में। इस ढाई आखर शब्द का अहसास रुह तक जाता हैं।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन और उम्दा आलेख!! बहुत खूब!

जितेन्द़ भगत said...

very nice post.

admin said...

ढाई आखर एक ऐसा रूमानी एहसास है, जो पत्थर में भी फूल खिला देता है। आपने साहिर की नज्मों के बहाने इसका जिस सुन्दर तरीके से वर्णन किया है, वह लाजवाब है। बधाई इस सुन्दर पोस्ट के लिए।