Pages
Thursday, September 11, 2008
लाइट ..साउंड .. कैमरा .. ""११ सितम्बर ""
कुछ बातें चलती भागती ज़िन्दगी में यूँ होती है कि उन्हें भुलाना मुश्किल होता है | हमारे आस पास जो भी घटता है ,हम उस से प्रभावित होते हैं | कभी कभी ज़िन्दगी में उसको बदलना अनिवार्य सा हो जाता है | सिनेमा .टीवी सीरियल्स यह सब जनमानस पर गहरा प्रभाव छोड़ जाते हैं |
जब ११ सितम्बर २००१ को अमेरिका के ट्विन्स टावर से आतंवादियों ने जहाज टकराए तो लगा जैसे कि किसी कल्पना और सच्चाई में टक्कर हो गई है | उस जगह से भागते लोगो का दृश्य आंखों से हटता नही हैं | भागते गिरते पड़ते लोग यही कह रहे थे कि यह तो किसी फ़िल्म के दृश्य की तरह है ,पर यहाँ फिल्मों से उलट उनकी ज़िन्दगी बचाना .बचना दोनों महत्वपूर्ण थी | फ़िल्म में क्लाइमेक्स के समय हीरो इस तरह की खतरनाक हालात को टाल देता है.लेकिन इस तरह के जब हालात असली में पैदा होते हैं तो दुःख पूर्ण होता है यह सब |
अपनी ही बुनी कहानियों को यूँ इस तरह से घटते देखना न केवल अमेरिका वासियों के लिए और पूरे विश्व के लिए भी बहुत दुखद पूर्ण था | सोचिये एक्शन फिल्मों का असर किस तरह से करता है | भारतीय बालीवुड में बनी फिल्मों से .टीवी सीरियल्स से लोग बुरी तरह से प्रभावित होते देखे गएँ है | बच्चे तो हर बात को सच मान बैठते हैं | याद करे वह टीवी सीरियल शक्तिमान ..उस तरह से ख़ुद को ढालने में कितने अबोध बच्चो ने जान दी | यह नहीं कि हालीवुड ने ख़ुद को इस बात के दोषी माना .पर उनकी फिल्मो के कथानक किस तरह के होते हैं...इस बात पर वह एक बार सोचेंगे क्या ? यदि इस तरह के कथानक फ़िर से सफलता के लिए फिल्माते जाते रहेंगे ,तो जनमानस पर इसका प्रभाव अच्छा नही पड़ेगा |
पर उस घटना के बाद अमेरिका के मनोरंजन जगत ने इस बात का ध्यान रखा कि वह अब इस तरह के कार्यक्रम न बनाए जिस में आतंकवाद .साजिशों और अमेरिका विरोधी भावनाएं हों | दर्शक अब बुराई पर सच्चाई की जीत देखना चाहते हैं |
इस घटना का प्रभाव किस तरह से हालीवुड में काम करने वाले एक कलाकार पर पड़ा वह इस बात से पता चलता है ..
''यह कलाकार लोगों को हंसा कर अपनी आजीविका चलाते हैं और हँसाने के लिए रोज़ सुबह का अखबार उठा कर ताज़ी घटनाओं को पढ़ते हैं .टीवी देखते हैं कि किस तरह से लोगों के आज से जुड़ कर लोगों को हंसाया जा सकता है | पर ११ सितम्बर कि दुर्घटना के बाद जब इन्होने रोज की तरह अपना काम करना चाहा तो दिमाग ने काम करना बंद कर दिया | जैसे अन्दर से कोई खाली हो गया है .एक छेद दिखायी दे रहा है मानवता की आत्मा में छेद | कोई शो ह्यूमर से जुडा नही हो पा रहा था | देश के सारे विदूषक जैसे आज एक सामान्य नागरिक हो गएँ थे |कामेडियन की आदत होती है कि किसी भी हालत में वह हँसी मजाक खोज ही लेते हैं | पर इस घटना ने उभर कर यह हँसी मजाक कब वापस लौटेगा पता नहीं .""यह पंक्तियाँ एक पत्र में लिखी गई थी जो उस वक्त के अमेरिकी जनमानस को बताती है |
सिनेमा समाज का आईना है तो समाज भी इस से कहीं भीतर तक जुडा हुआ है | जो वह देखता है वह अपनी ज़िन्दगी से जुडा हुआ महसूस करता है | फ़िर इंसानी फितरत जल्दी से बुरी बातो को दिमाग में बिठा लेती है | वैसे भी अब सब तरफ जिस तरह से भौतिकवाद बढ़ रहा है ,वह इंसान से सब संवेदनाये खत्म करता जा रहा है | हर कोई जल्द से जल्द सब कुछ पा लेना चाहता है | यदि हमारा सिनेमा और टीवी जागृत नही हुए तो मुश्किल हो जायेगा | सपनों से जागो और सिर्फ़ अच्छे कथानक लिखो , वह निर्माण करो जो कुछ सच्चाई से जुडा हुआ हो | क्यूंकि अब पूरे विश्व को एक सच्चाई से इस आतंकवाद से लड़ना है |
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
24 comments:
संवेदन शील पोस्ट।
हमारे यहाँ भी समाज में ...सरकार में और नितिनिधारको के गलियारों में इस बात को सोचना होगा तभी बात बनेगी...अच्छे लेख के लिए बधाई .
संचार माध्यमों को सामाजिकता सीखना पड़ेगा। इस के लिए अभियान और नियंत्रण की भी आवश्यकता है।
जीवन मूल्यों की ओर राह दिखाती पोस्ट ! जीवन की बीभत्स सचाईयाँ कभी कभी मन को जीवन के प्रति उदासीन कर देती हैं -पर मनुष्य का उदगम ही जिजीविषा और उत्साह के साथ जीवन जीने के लिए हुआ है ,यही कारण है की आज वह धरती को जीत कर ब्रह्माण्ड प्रयाण पर निकल रहा है -एक दिन वह ब्रह्माण्ड जेता भीबनेगा जरूर -वामन देव की परिकल्पना को साकार करते हुए !
सही विचार प्रस्तुति।
.
इतनी अच्छी और सार्थक पोस्ट का लिंक
मेरे ब्लाग पर क्यों नहीं लग रहा है... जी ?
आपको पढ़कर याद आया ...एक बहुत पुराना शेर है रंजना जी...कुछ कुछ याद है.....
इस कदर है परेशां मसखरे भी
अब इस जमाने को कैसे हंसाया जाये
एक बहुत ही संवेदनशील पोस्ट।
वो पूरा मंजर आंखों मे घूम सा गया।
" ah! ek bhut bdee trasdee, kitna bhyanak tha sub kuch, sara vakya yaad a gya"
Regards
बहुत सही
अनुराग जी सहमत हूँ...
"सिने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है
इस सहर में हर शक्स परेसान सा क्यों है "
......निश्चय ही जो किया है भोगना तो पड़ेगा ही
विषय और पोस्ट दोनों ही बहुत अच्छे हैं...
बहुत अच्छा लिखा है. बधाई.
फिल्मों का असर तो होता ही है... बैंक डकैतियों से लेकर मास शूटिंग तक सब पर असर डालती हैं. आजकल सिगरेट को लेकर भी हल्ला है.
ek sahi tasweer....manwiye mulyon ko ukerti
संवेदनशील अच्छा आलेख!! ..आभार.
आप के इस संवेदनाशील लेख पर मे बस इतना ही कहुगां....
इंसाँ का ख़ून खूब पियो इज़्बे आम है
अंगूर की शराब का पीना हराम है
धन्यवाद
sahi kaha aapne...cinema ka prabhav hamare man mastishk par padta hai. bahut achcha lekh.
9-11 ko lekar bahut kuchh likha ja chukaa hai. aapne un tamaam baton se alag ek nayee prakaar ki bhaavna se parichay karaaya hai. nisandeh aatankwaad ka ilaaj hona chaahiye, par jis dhang se yah ho raha hai, isse nahi lagta ki jaldee hi yah is sansaar se vida ho payega.
दृश्य माध्यमों का समाज पर पड़ रहे खराब असर से सबक लेकर सिनेमा और टीवी से जुड़े लोगों को अपनी जिम्मेवारी जरूर समझनी चाहिए। लेकिन अफसोस वे अभी तक ऐसा नहीं कर पा रहे हैं..
बहुत ही सार्थक पोस्ट है.सही कहा आपने.सिनेमा या टीवी सीरियल रूपी ये दृश्य माध्यम जनमानस में अपना बहुत ही गहरा असर छोड़ती हैं.सही दिखाएँ तो भी और ग़लत दिखाएँ तो भी.ऐसे में अपने दायित्व से भटके ये दृश्य जगत निश्चित ही जनमानस को गुमराह कर रहे हैं.और मुश्किल तो यह है की भले हलिवूड इस दुर्घटना के बाद चेतने का मन बना रहा हो पर हिन्दी सिनेमा और टीवी जगत के ये आज के निर्माता जो सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसा बनाने के लिए कुछ भी बना दिखा रहे हैं,इनके चेतने की गुंजाईश तभी दिखती है जब दर्शकों द्वारा बड़े पैमाने पर इन्हे नाकारा जाए.
bilkul sahmat hu aapke vicharo se.. bilkul satee lekh
New Post :
I don’t want to love you… but I do....
बहुत बड़ा सच कह दिया आपने... आज अच्छे और सकारत्मक कथानक ही इंसान को सही राह दिखा सकते हैं.. जीना आसान कर सकते हैं. देर आए दुरुस्त आए समझिएगा...:)
बहुत बड़ा सच कह दिया आपने... आज अच्छे और सकारत्मक कथानक ही इंसान को सही राह दिखा सकते हैं.. जीना आसान कर सकते हैं. देर आए दुरुस्त आए समझिएगा...:)
Post a Comment