Friday, September 05, 2008

कमबख्त इश्क़ ..एक नज़र एक समीक्षा

दिल्ली के एल टी जी सभागार में यह नाटक कमबख्त इश्क़ नाटक देखना एक सुखद अनुभव था। नाटक का ताना बाना बहुत अच्छे विषय पर लिया गया है | नाटक में दो बुजर्गों के बीच में प्यार हो जाता है | दो बुजर्गों के बीच में प्यार हो जाता है। दोनों शादी करना चाहते हैं, लेकिन इस नाटक के किरदार कृष्ण और राधा के बीच में उनके परिवार वाले लोग आ जाते हैं। इसके बाद एक के बाद एक होने वाली घटनाएँ पूरे नाटक को मनोरंजक और सार्थक बना देती है।

नाटक का उद्देश्य यह बताना था कि बच्चे हों या बुजर्ग सभी परिवार के साथ रहना चाहते हैं। परन्तु जैसे -जैसे माता -पिता बुढ़ापे की ओर बढ़ते जाते हैं, बच्चे उनसे और दूरी बनाते चले जाते हैं। इस कारण वे ख़ुद को तन्हा और बेबस सा महसूस करने लगते हैं। अकेलापन किसी से सहन नही होता है, इसी वजह से अकेले रहने वाले लोग अपने लिए किसी साथी को तलाशते हैं। लेकिन अभी हमारे समाज में आज बी बुजुर्गों को अपने लिए साथी खोजना और उसके साथ रहना स्वीकार्य नहीं है।


कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से इस नाटक के मुख्य किरदार कृष्ण और राधा गुजरते हैं। नाटक के एक अन्य किरदार डॉ भट्ट एक रास्ता सुझाते हैं। वे उनके परिवार के लोगों को बताते हैं कि कृष्ण और राधा का प्रेम बहुत आगे बढ़ चुका है और राधा अब माँ बनने वाली है। यह सुन कर परिवार के लोग दोनों को घर में क़ैद कर देते हैं। इसके बाद दोनों की तबियत बिगड़ जाती है। लेकिन तामम घटनाओं के बाद नाटक का सुखांत होता है।


नाटक में हर कलाकार ने बहुत सुंदर अभिनय किया है। इसका मूल संदेश यही है कि घर के बड़े बुजुर्ग का अकेलापन बीमारी को बढ़ावा देता है। सहारे की जरुरत हर वक्त हर उम्र में होती है,खासकर बुढापे में ताकि वह अपने सुख दुःख आपस में बाँट सकें। जब यह सब घर के अन्दर नही मिलता है तो इंसान अपने सुख दुःख बांटने के लिए घर के बाहर बाहर सहारा तलाश करने लगता है। आपके शहर में यह नाटक आए तो जरुर देखें। नाटक में रंजकता और नाट्य तत्वों का प्रवाह था मगर कुछ खामियाँ अखरने वाली थी। लेकिन तमाम कमियों के बावजूद नाटक एक सार्थक संदेश देता है।

16 comments:

Abhishek Ojha said...

इस विषय पर अशोक कुमार की एक फ़िल्म भी देखि थी... नाम याद नहीं आ रहा. अच्छी समीक्षा की आपने. देख तो कहाँ से पायेंगे पर अच्छा लगा.

L.Goswami said...

गुस्ताखी माफ़ -पर यह इश्क है या अकेलेपन का निदान?




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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.

admin said...

नाटक के बारे में बहुत दिनों के बाद कोई पोस्ट पढने को मिली। नाटक के क्षेत्र में इधर के दिनों में काफी प्रयोग देखने को मिले हैं। आशा है यह सफर जारी रहेगा।

रश्मि प्रभा... said...

ek natak se rubru karaya,achha laga

सुशील छौक्कर said...

आपने पहले नही बताया नही तो हम भी देख आते। ये नाटक पता नही कितनी बार खेला जा चुका है यहाँ मंडी हाऊस में। पर कभी देख नही पाया। और नाटक तो देखता रहता हूँ।

डॉ .अनुराग said...

.इश्क की कोई उम्र नही होती ...........

पारुल "पुखराज" said...

akelaa pan sabsey badaa abhishaap hai ...

Arvind Mishra said...

जब वाराणसी में आयेगा तब जरूर देखूंगा तब तक कुछ और बूढा हो रहा होऊंगा और विषय से तादात्म्य स्थापित कर पाऊंगा !
पर समीक्षा अच्छी है थोड़ी और बड़ी होती तो ज्यादा अच्छा रहता -यह पढ़ते पढ़ते अचानक ही ख़त्म हो गयी?और अनेक सवाल अनुत्तरित छोड़ गयी !

Poonam Agrawal said...

achanak itne dino baad ek naatak se rubru hoker achcha laga...natak ka sandesh bhi bahut achcha hai...

दिनेशराय द्विवेदी said...

नाटक समस्या अच्छी लगी। नाटक का उल्लेख सुन कर ही अच्छा लगा।

Ashok Pandey said...

जब हम छोटे थे, गांवों में विविध आयोजनों पर नाटक खेलने का काफी चलन था। अब तो बड़े शहरों तक ही नाटकों का मंचन सीमित रह गया है। यह नाटक देखने को तो शायद ही मिले, लेकिन आपकी समीक्षा अच्‍छी लगी।

Udan Tashtari said...

अच्छी समीक्षा!! आभार!

Tarun said...

Isi vishay per kuch samay pehle shayd 1-2 saal pehle ek film aayi thi. Rishi kapoor aur dimple kapadiya ki....achhi film thi. Ant me in dono ke bachhe inka vivah kara dete hain.

मीनाक्षी said...

बहुत अच्छी समीक्षा की ... नाटक की विषय-वस्तु आज के समय में सही लगी..

mamta said...

अरे पहले बताना था न। :)
वैसे नाटक की समीक्षा अच्छी लगी । ८० के दशक मे खट्टा-मीठा और हमारे-तुम्हारे नाम की फिल्में भी इसी विषय पर आधारित थी। पर त्रासदी ये है की आज भी वही हालत है। कुछ नही बदला है।

शोभा said...

बहुत विस्तार से वर्णन किया है। चित्रात्मक शैली ने रचना की रोचकता बढा दी है। बधाई स्वीकारें।