सिनेमा हमेशा से ही समाज पर अपना प्रभाव छोडती है ..और सबसे अधिक इस से परभावित होता है युवा वर्ग .हर फ़िल्म का इस में काम करने वालों का देखने वालों पर के असर होता है यह बात अब कहने की नहीं रह गई है ...युवा वर्ग अपना हीरो जिस को मान लेते हैं उसी के अनुसार उनकी चाल ढाल ढल जाती है ..बबिता कट बालों से ले कर बाबी ड्रेस तक धोनी के बालों से ले कर शाहरुख़ के सिक्स एप्स तक ..कौन अछुता रहा है इन सब से उनके हाव भाव उनकी उपयोग की गई चीजों की भी जबरदस्त मांग मार्केट में बढ़ जाती है ..और जाने अनजाने फ़िल्म और हीरो व्यवसायिक वस्तुओं के विज्ञापन की भूमिका निभाते रहते हैं .ताल में सुभाष घई ने जिस खूबसूरती से कोका कोला बेचने की शुरुआत की थी वह आज तक कायम है उस फ़िल्म में भारतीय संगीत भी इस की बिक्री के आगे फीका सा नज़र आने लगा था ...लक्स का विज्ञापन तो इस बारे में एक रेकॉर्ड ही माना जा सकता है की कोई हिरोइन सुंदर है तो वह लक्स का ही कमाल है ..हर चीज अब विज्ञापन बनती जा रही है जिस से न केवल युवा वर्ग बलिक आज की नई पौध भी अच्छी खासी प्रभावित है ...बिना उसका नुकसान जाने पहचाने बस लेने की जिद है .अब अभिताभ बच्चन डाबर गुलोकोज पी के ताक़तवर हो रहे हैं या वह चाकलेट खा रहे हैं तो उनको मानने वाले कैसे इन चीजों नही अपनाएंगे ..विज्ञापन बनाने वाले या फ़िल्म में इसका इस्तेमाल करने वाले जिस खूबसूरती से भावनाओं से जुड़ कर इस से आम जनता को जोड़ देते हैं वह काबिले तारीफ है ..याद करे ताल का कोका कोला का वह सीन जहाँ हीरो हिरोइन में कोई स्पर्श नही हुआ पर एक दूसरे का झूठा पीने का वह सीन कितनी देर तक परदे पर छाया रहा जो प्रेम का स्वीकृत रूप बना ..चिट्ठी पत्री , दोस्त सखी या कोई और अन्य साधन अब बीते वक्त की बात हो चुकी हैं ... आज सब बिकता है साबुन से लेकर फेयर एंड लवली तक ..बस बेचना आना चाहिए आख़िर बाज़ार की संस्कृति ने हमे हर चीज को बेचना सिखा ही दिया है ....टीवी पर आने वाले हर प्रोग्राम का यही हाल है आधे घंटे का प्रोग्राम नही की ५० तरह के विज्ञापन हर प्रकार के विज्ञापन से भरा पढ़ा है शायद इन में आने वाले सीरियल की कहानी लिखने वालों को पता है की यह दर्शकों को बाँध सके न सके पर शायद यह विज्ञापन तो कुछ ऐसे मजेदार बनाए जाए कि लोग देखते रहे ....कई बार कोई पुरानी फ़िल्म देखने को मिले तो उस में एक ख़ास बात नोट की मैंने कि नायक या नायिका के हाथ में कभी कभी अंग्रेजी लेखक या हिन्दी कवि की कोई किताब होती है जिस से उस किताब को पढने की इच्छा होती है पर आज की नई पीढ़ी शायद यही विज्ञापन देख के ही बेचैन रहेगी और इसी तरह हमारी फिल्म सीरीयल कहानी कम और विज्ञापन ज्यादा नजर आते रहेंगे !!
10 comments:
रजूं सही कह रही है ।
रंजना जी,
सही कहा... लक्स को कौन देखता है... जो देखे जाते है वह हैं उस से नहाने वालों के चेहरे.. चेहरे कहना गलत होगा ..बदन ही ज्यादा उचित होगा...
और मार्किटिंग कम्पनियां भी यही चाहती हैं कि उत्पाद के बारे में ग्राहक ज्यादा जागरूक न हो कर विज्ञापन में ही उलझा रहे... कुछ साल पहले तक पारले विस्कुट का छोटा पेक्ट (१०० ग्राम) ४ रुपये का था.. आज भी चार रुपय का है मगर कितने लोग जानते हैं कि (८० ग्राम) का रह गया है :)
रंजू जी
ये बाज़ार वाद का बढ़ता प्रभाव है जहाँ हर एक को अपना समान बेचने की होड़ लगी है..जब लोग अपने आप को बेचने के लिए कई हथकंडे अपनाने लगे हैं तो किसी वस्तु को बेचने में क्यों नहीं अपनाएंगे....जहाँ माँ, बाप, भाई, बहिन ,पत्नी पति, मित्र, शिक्षक और बच्चों तक को याद रखने के लिए दिन निश्चित कर दिए हैं वहां जो हो जाए कम है.
नीरज
अभी हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार द्वय श्री श्रवण गर्ग और ज़ी.टीवी की सलाहकार सुश्री अल्का सक्सैना के साथ प्रेस की आज़ादी दिवस (३ मई) को एक परिसंवाद में शिरक़त का मौक़ा मिला था.श्रवण जी ने बड़े पते की बात कही थी कि कौन कहता है कि प्रेस आज़ाद है बाज़ार ही तो तय कर रहा है कि क्या छपेगा.यही स्थिति टीवी चैनल्स की है. इश्तेहारों ने कुछ इस कदर ज़िन्दगी को रौंदा है कि आप उसके प्रभाव से बच नहीं सकते . अल्काजी ने कहा था कि टीवी चैनल्स को चलाना इतना ज़्यादा महंगा हो गया है कि कारोबारी समझौते किये बग़ैर अस्तित्व संभव ही नहीं. दर असल हम सब ही कहीं न कहीं इन ब्रैंड्स की मौजूदगी चाहते हैं अपने इर्द गिर्द सो ये हमारी विवशता भी तो बन गए हैं.पच्चीस साल एडवरटाज़िंग में काम करने के बाद मुझे यही समझ में आया है कि हम सब कटघरे में खड़े हैं हाँ इतना इत्मीनान ज़रूर है कि हम रचना - प्रक्रिया से जुडे लोग हैं
बहुत सही कहा. इनके प्रभाव से बचना/ बचाना बड़ा मुश्किल है.
10 सेकेंडे का विज्ञापन तैयार करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण कार्य होता है।
यही आज की दुनिया का सच है ,मेरा ४ साल का बेटा ..आइस क्रीम ओर नमकीन विज्ञापन देखकर ही फरमाइश करता है......लोगो की जुबान पे ब्रांड का नाम चढ़ जाए बस यही उनका उद्देश्य है.
बिल्कुल ठीक कहा है आपने, कई बार तो बहुत देर तक ये पता ही नहीं चलता की विज्ञापन किस चीज़ का है.
यह विज्ञापन ही आज कल जैसे हर चीज की जरुरत बनते जा रहे हैं ...और सच में इस के प्रभाव से बचना बहुत ही मुश्किल है कभी कभी और लगता है की ज़िंदगी ही एक विज्ञापन बन के रह गई है :)
well said....
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