गतांक से आगे ....
एक बार इमरोज़ ने बताया कि जब वह लाहौल के आर्ट स्कूल में पढ़ते थे तो गर्मी की छुट्टियों में गांव चला जाता था ,वहाँ गाय भैंस चराने ले जाता और वह चरती रहती मैं आराम से एक और बैठा स्केच बनाता रहता ..
तब अमृता ने हंस कर पूछा कि क्या तुम रांझे की तरह बंजाली बजाते रहते थे और गाय भैंस आपे चरती रहती थी !"
इमरोज़ भी हंस पड़े और बोले हां... लेकिन वहाँ कोई हीर नही थी जो मुझे चूरी खिलाती !"
लेकिन क्या आर्ट स्कूल में तुम्हे कोई लड़की पसंद नही थी ? अमृता ने पूछा ..
कुछ लडकियां हाबी की तरह पेंटिंग्स सीखने आती थी लेकिन कभी कभी ..और उन में से मुझे एक लड़की पसंद थी उसका नाम मंजीत था ..उस को मैं कभी कभी दूर से देख लेता लेकिन पास कभी नही गया ..फ़िर कुछ सोच में डूब कर बोले ..मुझे पता चल गया था कि वह एक अमीर बाप की बेटी है इस लिए मेरा उस से बात करने का सवाल ही नही पैदा होता था मैं बस उसको दूर से देख लेता लेकिन उसके नाम का पहले अक्षर को मैंने अपने नाम के आगे लगा लिया था अब मैं एम् -इंदरजीत था !""
कितनी बदकिस्मत लड़की थी ! के उसको पता नही था की कोई फरिश्ता उसकी तरफ़ देख रहा था .अमृता ने पूछा !
अब उसके पास तुम्हारे जैसी नजर जो नही थी !" इमरोज़ ने हंस कर कहा
एम् -इंदरजीत कब इमरोज़ बना इसकी एक लम्बी कहानी है .उन्होंने बताया की स्कूल में तीन इंदरजीत थे ,,,टीचर इंदर जीत एक इंदर जीत दो और इंदर जीत तीन कह कर रोल काल लेती .हम तीनो को भी मुश्किल और टीचर को भी मुश्किल !!
मैं सोचता कि मेरा नाम इंदरजीत क्यों हैं ? शायद तब मेरे माँ बाप को और नाम सुझा नही होगा !!!
इमरोज़ एक फारसी का शब्द है जिसका अर्थ है आज ..यह नाम इमरोज़ को इसलिए भी पसंद था क्यूंकि इस के नाम के साथ कोई एतहासिक या कोई पुराणिक नाम नही जुडा था और यह किसी अन्य घटना से भी जुडा नही था सीधा साधा अर्थ था इसका आज ......अब
इमरोज़ वैसे भी आज में विश्वास रखते हैं वे आज में जीते हैं और आज के लिए जीते हैं
१९६६ में वह इंदरजीत से इमरोज़ हो गए !
वह जिस चीज को छुते हैं वह एक कलाकृति बन जाती है वहाँ एक लेम्प शेड देखा जिनके ऊपर उन्होंने कई शायर के कलाम लिखे .फैज़ ,फिराख, अमृता .शिव बटालवीऔर ऐसे ही कई दूसरे शायरों के..और इन में लाल रंग भर दिया है जब वह लैंप जलता है तो लाल रंग कमरे की खिड़की से दरवाज़े पर बिखर जाता है सारा कमरा तब लाल दिखायी देने लगता है ...कभी कभी अमृता उनसे पूछती कि इमरोज़ तुम मुझे कैसे मिल गए ..तब इमरोज़ शांत और छोटा सा जवाब देते जैसे तुम मुझे मिल गई !""
एक जगह अमृता जी द्वारा बताया हुआ लिखा है कि ..पहले कोई इमरोज़ से मिलना चाहता था तो मुझे फ़ोन करता था .पूछता यह अमृता जी का घर है ..मेरे हाँ कहने पर वह फ़िर पूछता कि क्या इमरोज़ जी घर पर हैं ..मैं हाँ कह कर इमरोज़ को छू के कहती ..देखा आज कल लोग तुम्हे मेरे पते पर तलाश कर लेते हैं !!
वाह सजन
सच तू -सुपना भी तू
गैर तू -अपन भी तू
वाह सजन ..वाह सजन
खुदा का इक अंदाज तू
औ फज्र की नमाज़ तू
जग का इनकार तू
औ अजल का इकरार तू
वाह सजन ..वाह सजन !
फानी हुस्न का नाज़ तू
रूह की इक आवाज़ तू
जोग की इक राह भी तू
इश्क की दरगाह भी तू
वाह सजन ..वाह सजन !
आशिक की इक सदा भी तू
अल्लाह की इक रज़ा भी तू
यह सारी कायनात तू
खुदा की मुलाकात तू
वाह सजन ...वाह सजन !!
अमृता प्रीतम .
.शेष अगले अंक में
एक बार इमरोज़ ने बताया कि जब वह लाहौल के आर्ट स्कूल में पढ़ते थे तो गर्मी की छुट्टियों में गांव चला जाता था ,वहाँ गाय भैंस चराने ले जाता और वह चरती रहती मैं आराम से एक और बैठा स्केच बनाता रहता ..
तब अमृता ने हंस कर पूछा कि क्या तुम रांझे की तरह बंजाली बजाते रहते थे और गाय भैंस आपे चरती रहती थी !"
इमरोज़ भी हंस पड़े और बोले हां... लेकिन वहाँ कोई हीर नही थी जो मुझे चूरी खिलाती !"
लेकिन क्या आर्ट स्कूल में तुम्हे कोई लड़की पसंद नही थी ? अमृता ने पूछा ..
कुछ लडकियां हाबी की तरह पेंटिंग्स सीखने आती थी लेकिन कभी कभी ..और उन में से मुझे एक लड़की पसंद थी उसका नाम मंजीत था ..उस को मैं कभी कभी दूर से देख लेता लेकिन पास कभी नही गया ..फ़िर कुछ सोच में डूब कर बोले ..मुझे पता चल गया था कि वह एक अमीर बाप की बेटी है इस लिए मेरा उस से बात करने का सवाल ही नही पैदा होता था मैं बस उसको दूर से देख लेता लेकिन उसके नाम का पहले अक्षर को मैंने अपने नाम के आगे लगा लिया था अब मैं एम् -इंदरजीत था !""
कितनी बदकिस्मत लड़की थी ! के उसको पता नही था की कोई फरिश्ता उसकी तरफ़ देख रहा था .अमृता ने पूछा !
अब उसके पास तुम्हारे जैसी नजर जो नही थी !" इमरोज़ ने हंस कर कहा
एम् -इंदरजीत कब इमरोज़ बना इसकी एक लम्बी कहानी है .उन्होंने बताया की स्कूल में तीन इंदरजीत थे ,,,टीचर इंदर जीत एक इंदर जीत दो और इंदर जीत तीन कह कर रोल काल लेती .हम तीनो को भी मुश्किल और टीचर को भी मुश्किल !!
मैं सोचता कि मेरा नाम इंदरजीत क्यों हैं ? शायद तब मेरे माँ बाप को और नाम सुझा नही होगा !!!
इमरोज़ एक फारसी का शब्द है जिसका अर्थ है आज ..यह नाम इमरोज़ को इसलिए भी पसंद था क्यूंकि इस के नाम के साथ कोई एतहासिक या कोई पुराणिक नाम नही जुडा था और यह किसी अन्य घटना से भी जुडा नही था सीधा साधा अर्थ था इसका आज ......अब
इमरोज़ वैसे भी आज में विश्वास रखते हैं वे आज में जीते हैं और आज के लिए जीते हैं
१९६६ में वह इंदरजीत से इमरोज़ हो गए !
वह जिस चीज को छुते हैं वह एक कलाकृति बन जाती है वहाँ एक लेम्प शेड देखा जिनके ऊपर उन्होंने कई शायर के कलाम लिखे .फैज़ ,फिराख, अमृता .शिव बटालवीऔर ऐसे ही कई दूसरे शायरों के..और इन में लाल रंग भर दिया है जब वह लैंप जलता है तो लाल रंग कमरे की खिड़की से दरवाज़े पर बिखर जाता है सारा कमरा तब लाल दिखायी देने लगता है ...कभी कभी अमृता उनसे पूछती कि इमरोज़ तुम मुझे कैसे मिल गए ..तब इमरोज़ शांत और छोटा सा जवाब देते जैसे तुम मुझे मिल गई !""
एक जगह अमृता जी द्वारा बताया हुआ लिखा है कि ..पहले कोई इमरोज़ से मिलना चाहता था तो मुझे फ़ोन करता था .पूछता यह अमृता जी का घर है ..मेरे हाँ कहने पर वह फ़िर पूछता कि क्या इमरोज़ जी घर पर हैं ..मैं हाँ कह कर इमरोज़ को छू के कहती ..देखा आज कल लोग तुम्हे मेरे पते पर तलाश कर लेते हैं !!
वाह सजन
सच तू -सुपना भी तू
गैर तू -अपन भी तू
वाह सजन ..वाह सजन
खुदा का इक अंदाज तू
औ फज्र की नमाज़ तू
जग का इनकार तू
औ अजल का इकरार तू
वाह सजन ..वाह सजन !
फानी हुस्न का नाज़ तू
रूह की इक आवाज़ तू
जोग की इक राह भी तू
इश्क की दरगाह भी तू
वाह सजन ..वाह सजन !
आशिक की इक सदा भी तू
अल्लाह की इक रज़ा भी तू
यह सारी कायनात तू
खुदा की मुलाकात तू
वाह सजन ...वाह सजन !!
अमृता प्रीतम .
.शेष अगले अंक में
4 comments:
agalii kadii ka besabri se intzaar.....abhi se
बहुत अच्छा !!
बीच-बीच मे छूट जाता है पर पढ़ते रहते है।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
सच भी तू सपना भी तू,अच्छा रहा,अगले का इंतजार,
आलोक सिंह "साहिल"
अमृता जी के प्रति आपकी इतनी श्रद्धा सराहनीय है।
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