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Wednesday, September 05, 2007
तिलिस्म
हर इंसान जीता है अपने ही बनाये तिलिस्म में
और बुन लेता है जाने अनजाने कितने सपने
रंग भर के इन में अपने ही मन चाहे
वो एक ख्वाबों की दुनिया बसा लेता है
नही तोड़ पाता वह ख़ुद के बुने इस जाल को
कोई तीसरा इंसान ही उसे इस ख़्वाब से जगाता है
और फ़िर एक खामोशी सी फ़ैल जाती है जहाँ में
जहाँ ना कोई आता है और ना ही फ़िर कोई जाता है
जिन्दगी की शाम ढलने लगती है फ़िर तनहा-तनहा
और बीते सायों का लबादा पहने वक्त
हमे यूं ही कभी डराता है कभी बहकाता है !!
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9 comments:
बहुत सही!!
हम यह तिलस्म भी खुद ही बनाते हैं और फ़िर इसी से डरते रहते हैं।
बढ़िया!!
सच.. तिलिस्म में फंसा हुआ है इंसान..
कविता का चिंतन बिंदु 'तीसरे इंसान' की बात आने पर ज़ाहिर हो रहा है। जोड़े का तिलिस्म.. अहा. गंभीर भाव
बधाई रंजू जी.. प्रेरक पंक्तियों के लिए
बड़ी गहरी रचना-वाकई तिलिस्मी!!
हर बार एक अलग सा अर्थ..सुन्दर.
बधाई.
bhut hi acchi rachna lagi aap ki.
आप तो अपनी कविताओं से एक तिलिस्मी संसार बुन देती हैं ।
घुघूती बासूती
गहरा सच लिख दिया इस बेहतरीन कविता के द्वारा… यहाँ मात्र प्रेम :) तक सीमित नहीं रहा है कही बहुत दूर गगन तक सितारों जैसा चमक रहा है,,, काफी अच्छा लगा…।
aachi baat ki hai saaf sacchi seedhi....bina sajawaat ke...pasand aai kavita
आपकी कविता मन के तारों को झंक्रित कर गयी। ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं-
"हर इंसान जीता है अपने ही बनाये तिलिस्म में
और बुन लेता है जाने अनजाने कितने सपने"
बहुत-बहुत बधाई।
ऱंजना जी, बहुत ही कटु यथार्थ पर नज़र डाली है आपने.
मैं तो अनुरोध करता हूं उन सारे परोपकारीयों से कि ना तोड़े ये तिलिस्म-व्यामोह का ताना-बाना, हो सकता है किसी के ज़ीने का आखिरी सहारा यही हो.
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