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Thursday, December 18, 2014

कल्पना जगत और हम




कल्पना का संसार सपनो से अधिक बड़ा होता है ,सपने जो हमे आते हैं वो असल में कही ना कही हमारी कल्पना से ही जुड़े होते हैं !जब हम बच्चे होते हैं तो तब हमारा मस्तिष्क एक कोरे काग़ज़ की तरह होता है धीरे धीरे जैसे जैसे हमारा मस्तिष्क परिपक्व होता जाता है वैसे वैसे उस में हमारे आस पास जीये अनुभव और ज़िंदगी की यादे उस में रेकॉर्ड होने लगती हैं फ़िर जैसा फिर हमे अपने आस पास का माहोल मिलता है वैसे ही हमारे विचार बनते जाते हैं उसी के आधार पर हम कल्पना करते हैं और उस के आधार पर हम में सपने जागने लगते हैं!

हमारा शरीर दो तरह से क्रिया करता है एक अपने दिल से यानी अपनी इच्छा से दूसरी बिना इच्छा के जैसे किसी गर्म चीज़े के हाथ पर पड़ते ही हम हाथ हटा लेते हैं हमे सोचना नही पड़ता दूसरी कुछ बाते हम सोच के करते हैं किसी को किसी भी कार्य को करें के लिए पहले उसकी एक कल्पना बनाते हैं ! दिल में उसी कल्पना का हमारे जीवन में बहुत ही महत्व है, कल्पना ना हो जीवन भी नही जीया जा सकता ,कल्पना जो हम सोचते हैं वो भी एक मज़ेदार दुनिया है ,वहाँ समय ठहर जाता है और हम पल भर में जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं एक दुनिया अपने सपनो की बसा लेते हैं इसी के आधार पर कई महान काव्य लिखे गये ,कई अविष्कार हुए !

Friday, June 27, 2008

आवारा मौसम और अल्हड सी कविता


कभी कभी कैसे दिल होता है न ..कि बस कुछ न करो और पलटो पन्ने बीती जिंदगी के ....और बुनो उस से फ़िर कोई नया सपना .....कभी लगेगा कि बस आज का दिन है कर लो जितना काम करना है क्या पता अगली साँस आए या न आए ..कभी कभी यूँ हो जाता है की क्या जल्दी है अभी तो बहुत समय है जीना है बरसों ...:) दिल की यह आवारा बातें हैं जो शांत नही बैठने देती हैं ......खिड़की से बाहर देखती हूँ तो बारिश नटखट हो कर कभी लगता है बरस जायेगी .कभी यूँ शांत हो कर बैठ जाती है की जैसे किसी शैतान बच्चे को बाँध कर बिठा दिया गया है ....दिल भी आज यूँ इस मौसम सा ही हो रहा है ..खुराफाती दिमाग और इस आवारा मौसम से मासूम दिल का क्या ठिकाना किस और चल पड़े :) सोचा कि चलो आज डायरी की बजाये उन साइट्स को पढ़ा जाए जब नेट से दोस्ती हुई थी और लफ्जों की जुबान यूँ ही कुछ भी लिख देती थी .......मैं करती हूँ जब तक ख़ुद से बातें ..आप पढ़े यह एक अल्हड सी लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ ...

जब चली यूँ सावन की हवा
दिल के तारों को कोई छेड़ गया
वक्त के सर्द हुए लम्हों को
फ़िर से तू रूह में बिखेर गया

इक नशा सा छाया नस नस में
जब तू नज़रो से बोल गया
रंग बिखरे इन्द्र धनुष से
जब तू बस के साँसों में डोल गया

इक मीठी सी कसक उठी
जब हुई खबर तेरे आने की
फूलों की खुशबु सा महक कर
मेरा अंग अंग कुछ बोल गया


12 july 2006

Thursday, April 24, 2008

उलझन ....

ईश्वर ने जब रचा यह संसार
तब शायद बनाया
ज़मीन को एक किताब
चाँद सितारों की जिल्द
से उसको सजा कर
फूलों और नज़ारों
से कुछ पन्ने लिख डाले
वही उस किताब में ही
लिखे कुछ बेकारी और
जुल्म के किस्से
और ....
कई अनचाहे दर्द भर डाले
अब यह उस किताब में लिखी
कोई सच्ची कहानी है
या खुदा की लिखावट
से छूटी हुई कुछ गलतियां ??

Saturday, March 08, 2008

डायरी के पुराने पन्नों से महिला दिवस की कुछ पंक्तियाँ




नन्हा फूल मुरझाया

गर्भ गुहा के भीतर एक ज़िंदगी मुस्कराई ,
नन्हे नन्हे हाथ पांव पसारे..........
और नन्हे होठों से फिर मुस्कराई ,
सोचने लगी की मैं बाहर कब आऊँगी ,
जिसके अंदर मैं रहती हूँ, उसको कब"माँ " कह कर बुलाऊँगी ,
कुछ बड़ी होकर उसके सुख -दुख की साथी बन जाऊँगी..
कभी "पिता" के कंधो पर झुमूंगी
कभी "दादा" की बाहों में झूल जाऊँगी
अपनी नन्ही नन्ही बातो से सबका मन बहलाऊँगी .......

नानी मुझसे कहानी कहेगी , दादी लोरी सुनाएगी,
बुआ, मासी तो मुझपे जैसे बलिहारी जाएँगी......
बेटी हूँ तो क्या हुआ काम वो कर जाऊँगी ,
सबका नाम रोशन करूंगी, घर का गौरव कहलाऊँगी ,

पर.......................................................................
यह क्या सुन कर मेरा नन्हा ह्रदय  कंपकपाया,
माँ का दिल कठोर हुआ कैसे,एक पिता यह फ़ैसला कैसे कर पाया,
"लड़की "हूँ ना इस लिए जन्म लेने से पहले ही नन्हा फूल मुरझाया ..!!!!!!!!!

june 18 ....2006

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देखा है अजब चलन इस समाज का......
बदले है अनेक रूप इस दुनिया के.........
पर "नारी' के अस्तित्व पर आज भी प्रश्न चिन्ह सा पाया है..........
दिया है इसी समाज ने कभी उसको.......
अख़बार के पहले पन्ने पर दिया है उसको सम्मान ,
पर वही पिछले पन्नों पर उसकी इज़्ज़त को उजड़ता पाया है.......
उसने जन्म दिया मर्दो को.........
और उन्होने उस को बाज़ार का रुख़ दिखाया है.................

कही पूजा गया है उसको लक्ष्मी के रूप में........
वही उसको जानवरो से भी कम कीमत में बिकता हुआ पाया है..........
इसी समाज ने दी है उसको कोख में कब्र.........
आज भी देखा है उसको द्रोपदी बनते हुए......
आज भी उसको कई अग्निपरीक्षाओं से गुज़रता हुआ पाया है............



संवारा है अपने हुनर से, अपने हसीन जज़्बातों से......
उसने हर मुकाम को.............
पर फिर भी इस समाज ने उसके हुनर को कम.......
और हुस्न को ज्यादा आजमाया है.........................


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एक छोटी सी कली की इच्छा

मुझे भी आँखो में एक सपना सजाने दो
कल्पना के पंख लगा के मुझे भी कुछ दूर उड़ जाने दो
मुझे भी बनाने दो अपना एक सुनहरा सा जहान
मेरे दिल की कोमलता को मत यूँ रस्मो में बाँध जाने दो
मत छिनो मुझे से मेरा वजूद यूँ कतार रिवाज़ो से
एक अपनी पहचान अब मुझे भी अपनी बनाने दो
छुना  है मुझे भी नभ में चमकते तारो को
एक चमकता सितारा .........
अब मुझे भी इस दुनिया में बन जाने दो !!

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मैं क्या हूँ ,यह सोचती खुद में डूबी हुई हूँ
मैं हूँ क्या ???
कोई डूबते सूरज की किरण
या आइने में बेबस सी कोई चुप्पी
या माँ की आंखों का कोई आँसू
या बाप के माथे की चिंता की लकीर
बस इस दुनिया के समुंदर में
कांपती हुई सी कोई किश्ती
जो हादसो की धरती पर
खुद की पहचान बनाते बनाते
एक दिन यूँ ही खत्म हो जाती हूँ
चाहे हो पंख मेरे उड़ने के कितने
फिर भी क्यों
कई जगह खुद को बेबस सा पाती हूँ ?
aug 10 2006

Monday, January 21, 2008

अमृता प्रीतम जो नाम है ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का


पिछले कुछ दिनों से मैं अमृता जी की लिखी हुई कई नज्म और कहानी लेख पढ़ रही थी ..यूं तो इनको मैं अपना गुरु मानती हूँ .पर हर बार इनके लिखे को पढ़ना एक नया अनुभव दे जाता है ..और एक नई सोच ..वह एक ऐसी शख्सियत थी जिन्होंने ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जी ..एक किताब में उनके बारे में लिखा है की हीर के समय से या उस से पहले भी वेदों उपनिषदों के समय से गार्गी से लेकर अब तक कई औरतों ने अपनी मरजी से जीने और ढंग से जीने की जरुरत तो की पर कभी उनकी जरुरत को परवान नही चढ़ने दिया गया और अंत दुखदायी ही हुआ ! आज की औरत का सपना जो अपने ढंग से जीने का है वह उसको अमृता इमरोज़ के सपने सा देखती है ..ऐसा नही है की अमृता अपनी परम्पराओं से जुड़ी नही थी ..वह भी कभी कभी विद्रोह से घबरा कर हाथो की लकीरों और जन्म के लेखो जोखों में रिश्ते तलाशने लगती थी ,और जिस समय उनका इमरोज़ से मिलना हुआ उस वक्त समाज ऐसी बातों को बहुत सख्ती से भी लेता था ..पर अमृता ने उसको जी के दिखाया ..

वह ख़ुद में ही एक बहुत बड़ी लीजेंड हैं और बंटवारे के बाद आधी सदी की नुमाइन्दा शायरा और इमरोज़ जो पहले इन्द्रजीत के नाम से जाने जाते थे, उनका और अमृता का रिश्ता नज्म और इमेज का रिश्ता था अमृता की नज़मे पेंटिंग्स की तरह खुशनुमा हैं फ़िर चाहे वह दर्द में लिखी हों या खुशी और प्रेम में वह और इमरोज़ की पेंटिंग्स मिल ही जाती है एक दूजे से !!


मुझे उनकी लिखी इस पर एक कविता याद आई ..

तुम्हे ख़ुद से जब लिया लपेट
बदन हो गए ख्यालों की भेंट
लिपट गए थे अंग वह ऐसे
माला के वो फूल हों जैसे
रूह की वेदी पर थे अर्पित
तुम और मैं अग्नि को समर्पित
यूं होंठो पर फिसले नाम
घटा एक फ़िर धर्मानुषठान
बन गए हम पवित्र स्रोत
था वह तेरा मेरा नाम
धर्म विधि तो आई बाद !!

अमृता जी ने समाज और दुनिया की परवाह किए बिना अपनी ज़िंदगी जी उनमें इतनी शक्ति थी की वह अकेली अपनी राह चल सकें .उन्होंने अपनी धार दार लेखनी से अपन समय की सामजिक धाराओं को एक नई दिशा दी थी !!बहुत कुछ है उनके बारे में लिखने को .पर बाकी अगले लेख में ...

अभी उन्ही की लिखी एक सुंदर कविता से इस लेख को विराम देती हूँ ..

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के उपर उभर आयीं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें



अमृता जी पर लिखी एक जानकरी के आधार पर लेख