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Wednesday, January 25, 2012

खोये हुए पल

बीते वो लम्हे
जो सुख से भरे थे
हरियाले से वह पत्ते
अब क्यों पीले पड़ चले हैं
पर अब भी याद है
उन पलों की सोंधी सोंधी
जब सिर्फ़ तुम्हारे छूने भर से
देह तपने लगती थी
लगती थी तपते होंठों  की मोहर जब
कभी गर्दन और काँधे पर
तो झनझना के देह थिरक उठती थी

उठने लगती थी ऐसी हिलोरें
दोनों तरफ़ जैसे
कोई नदिया मचल के उमड़ती थी

पर आज वही है हम दोनों
साँसे भी वहीँ है
काँधे पर ठहरा है
कोई पुरानी याद का बोसा
और तेरी मेरी उलझी यादे कई हैं
पर न जाने कहाँ खो गया
वह स्पंदन
न जाने वह मिलने की
खुशी कहाँ गुम हुई है  

सोख लिया सब रस
इस जीवन नदिया से
हमारी भागती दौडती जरूरतों ने 
और जीवन का वह अनमोल पल
कहीं छिटक कर खो गया है ...

Friday, April 15, 2011

रिश्तों की स्व मौत

जन्म लेने से पहले ...
साँसों के तन से ,
जुड़ने से पहले ...
न जाने कितने रिश्ते
खुद बा  खुद जुड़ जाते हैं
और बन्ध जाते हैं
कितने बंधन
इन अनजान रिश्तों से ,
और फिर विश्वास की डोर से
बंधे यह रिश्ते
लम्हा -लम्हा
पनपने लगते हैं
होता है फिर न जाने ..
अचानक से कुछ ऐसा ,
कि अपने ही कहे जाने वाले
अजनबी से हो जाते हैं
रस्मी बातें ...
रस्मी मुलाकातें ...
एक "लाइफ सपोर्ट सिस्टम "
से बन जाते हैं
बोझ बने यह रिश्ते
आखिर कब तक यूँ ही
निभाते जायेंगे
सोचती हूँ कई बार
आखिर क्यों नहीं
इन बोझिल रिश्तों को
हम खत्म हो जाने देते
आखिर क्यों नहीं ....
हम अपनी "स्व मौत" मर जाने देते ??