मुसाफ़िर है मन बवाला
जाने कहाँ कहाँ ले जाता है
कभी छेडता राग मिलन के
कभी विरह में डूब जाता है
बिखरेता कभी रंग स्नेह के
कभी वात्सलय हो जाता है
भटकता ना जाने किस खोज में
कभी शांत नही यह हो पाता है
सांसों की गति पर थिरकता
यह निरन्तर चलता जाता है
कभी ना उबता ,ना रुकता
बस हवा सा उड़ता जाता है
शाश्वत सच को यह मन
जिस पल पा जाएगा
चंचल चपल यह मुसाफ़िर
स्वयम् ही तब मंज़िल पा जाएगा !!
https://youtube.com/shorts/erx0kjwwHxk?feature=share
#रंजूभाटिया
4 comments:
यह मुसाफिर मन कभी तो मंज़िल पा ही जायेगा ।
फलसफा ज़िन्दगी का ।।
सुंदर प्रस्तुति।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार 15 अगस्त, 2022 को "स्वतन्तन्त्रा दिवस का अमृत महोत्सव" (चर्चा अंक-4522)
पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति
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