ख्वाब क्यों .
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क्यों बनाए
हमने ख्वाबों के
कुछ पुल
जिस पर उड़ रहे हैं हम
कागज की चिन्दियों की तरह
कुछ भी तो नही है शेष
अब मेरे तुम्हारे बीच
क्यों हमने
कल्पना के पंख लगा के
रिश्तों को एक नाम दे दिया
जिस पर
रुकना ,चलाना ,मिलना
फ़िर अलग होना
ही लिखा है ...
सिर्फ़ हवा है
जो बाँध ली है
बंद मुट्ठियों में
जिस में ...
सिर्फ़ तुम हो और तुम्हारा " मैं "
जो रचता रहता है गुलाबी सपने
और चन्द बेजुबान से गीत
जिस में सब कुछ है
तुम्हारा ही बुना हुआ
,पर जैसे जमी हुई नदी सा
रुका हुआ और ठहरा हुआ
कहीं नहीं पाती हूँ
खुद को इस में
बेबस सी हो जाती हूँ
क्यों बुनती हूँ वह ख्वाब
मैं अक्सर जिस में
खुद को इतनी तन्हा पाती हूँ ..(रंजू भाटिया ...)
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