जब से या संसार बना नारी की शक्ति से कोई अपरिचित नही रहा है ..उसने जब भी कोई काम किया पूरी लगन के साथ किया और अपने पूरे जोश के साथ किया ...शायद तभी पुरूष समाज में धबराहट शुरू हुई होगी कि यदि यह यूं ही ही चलता रहा तो हमारा तो पत्ता ही कट जायेगा ..तभी उसने कायदे कानून बनाये अपनी सुविधा के हिसाब से ..अब नारी भावुक और भोली भी बहुत है ...उसके दिल दिमाग में भर दिया गया कि बाहर तुम जो चाहे काम करो पर घर कि जिम्मेदारी तो पूर्ण रूप से तुम्हारी है नारी के अन्दर यह गुण प्रकृति ने ही कूट कूट के भर दिया है कि वह एक साथ कई रिश्ते ,कई जिम्मेदारी और कई काम एक साथ संभाल सकती है ...मैं यह नही कहती कि उसको ईश्वर ने सुपर पावर दे के भेजा है बलिक वह कुदरती ही ऐसी है और कई पुरूष भी इस बात को अब मानने लगे हैं ...पर जो दिल दिमाग में भर दिया गया है कि उसको घर भी देखना है और कुदरती उसको अपने बनाए आशियाने से भी उतना ही लगाव होता है जितना वह अपना काम मतलब अपने प्रोफेशन से करती है और जब वह घर को नही देख पाती है या उस से जुड़ी कोई जिम्मेदारी पूरी नही कर पाती है तो एक अपराधबोध उसके अन्दर जन्म लेने लगता है और इन हालात में वह अपनी मानसिक ,दैहिक सभी इच्छाओं को कहते हुए भी डरने लगती है
बिना शीर्षक के ..
बदलते हुए
शरीर में
बदलते हुए
एहसासों को
समझने के बाद
जाग उठी है
मेरे अन्दर भी
वह "आदम भूख "
जो सृष्टि के
नियमों को
चलाने के लिए
तय कर दी है
कुदरत ने
कुछ भावनाओं में
कुछ प्रतीकों में
सुनी- देखी बातों ने
पर ....
अपनी ही सीमाओं में
बंधी मैं इसको
क्यूँ ढंग से भोग न पायी ?
मैंने भी रचे हैं
इसको ले कर
वही सोच और
कुछ "जंगली सपने "
जिनको तुम खुल कर
अपनी "wild fantasies "कहते हो
और
मैं उस विशेष एहसास को
ले कर
अपने ही अन्दर
रोज़ जीती हूँ ,मरती हूँ
नापती हूँ सूनी आँखों से
"बीतती रातों को "
अपनी ही कराह से
अपनी ही सीमाओं में
बंधी मैं इसको
क्यूँ ढंग से भोग न पायी ?
मैंने भी रचे हैं
इसको ले कर
वही सोच और
कुछ "जंगली सपने "
जिनको तुम खुल कर
अपनी "wild fantasies "कहते हो
और
मैं उस विशेष एहसास को
ले कर
अपने ही अन्दर
रोज़ जीती हूँ ,मरती हूँ
नापती हूँ सूनी आँखों से
"बीतती रातों को "
अपनी ही कराह से
बिस्तर की सलवटों
खाली खनकती चूड़ियों में
और देखती हूँ
और देखती हूँ
अपनी टूटी हुई बिखरी हुई
"fantasies "को दम तोड़ते हुए .
चाह कर भी
कभी तोड़ न पायी
उन बन्धनों को ,वर्जनाओं को
जिन में घुट के अपने ही
"नारीत्व "का अपमान सहती हूँ
सच में बहुत मुश्किल है
यूँ ही अपने आप से
यूँ लड़ते हुए जीना
तुम कुछ यूँ
ऐसा कहोगे
करोगे तो
वह "साहस "और पुरुषत्त्व
कहलायेगा वह "साहस "और पुरुषत्त्व
और मैंने जो दर्शाया
अपनी इस "भूख "को
तो "नारी शब्द
अपमानित हो जाएगा
शेष अगले अंक में...
No comments:
Post a Comment