Friday, January 30, 2015

दिल की गिरह dil ki girah

सुबह की पहली किरणे सी
मैं न जाने कितनी उमंगें
और सपनों के रंग ले कर
तुमसे बतियाने आई थी ...

लम्हे .पल सब बीत गए
मिले बैठे मुस्कराए हम दोनों ही
पर चाह कर भी कुछ कह न पाये

बीते जितने पल वह
बीते कुछ रीते कुछ अनकहे
भीतर ही भीतर
रिसते रहे छलकते रहे
चुप्पी के बोल  
इस दिल से उस दिल की
गिरह पड़ी राह को खोजते रहे ...!!

4 comments:

संजय भास्‍कर said...

बेहद खूबसूरत शब्दों से सजी रचना

Ravikant yadav said...

बहुत सराहनीय प्रयास कृपया मुझे भी पढ़े | :-)
join me facebook also ;ravikantyadava@facebook.com

वन्दना अवस्थी दुबे said...

शानदार कविता है रंजू..हमेशा की तरह. तुम्हें पढना एक अद्भुत अहसास होता है. बधाई

दिगम्बर नासवा said...

दिलों की गिरह जितनी जल्दी खुल जाए उतना ही अच्छा है प्रेम के लिए ... अच्छी रचना ...