सुबह की पहली किरणे सी
मैं न जाने कितनी उमंगें
और सपनों के रंग ले कर
तुमसे बतियाने आई थी ...
लम्हे .पल सब बीत गए
मिले बैठे मुस्कराए हम दोनों ही
पर चाह कर भी कुछ कह न पाये
बीते जितने पल वह
बीते कुछ रीते कुछ अनकहे
भीतर ही भीतर
रिसते रहे छलकते रहे
चुप्पी के बोल
इस दिल से उस दिल की
गिरह पड़ी राह को खोजते रहे ...!!
मैं न जाने कितनी उमंगें
और सपनों के रंग ले कर
तुमसे बतियाने आई थी ...
लम्हे .पल सब बीत गए
मिले बैठे मुस्कराए हम दोनों ही
पर चाह कर भी कुछ कह न पाये
बीते जितने पल वह
बीते कुछ रीते कुछ अनकहे
भीतर ही भीतर
रिसते रहे छलकते रहे
चुप्पी के बोल
इस दिल से उस दिल की
गिरह पड़ी राह को खोजते रहे ...!!
4 comments:
बेहद खूबसूरत शब्दों से सजी रचना
बहुत सराहनीय प्रयास कृपया मुझे भी पढ़े | :-)
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शानदार कविता है रंजू..हमेशा की तरह. तुम्हें पढना एक अद्भुत अहसास होता है. बधाई
दिलों की गिरह जितनी जल्दी खुल जाए उतना ही अच्छा है प्रेम के लिए ... अच्छी रचना ...
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