Sunday, November 17, 2013

फॉसिल्स

अक्सर देखा है "डिस्कवरी चेनल" पर
सदियों पुराने अवशेषों को
कुरेदते ,जमे हुए उन फॉसिल्स" से
कुछ नया पता लगाने की कोशिश करते
क्या था ?क्यों था ? और कैसे था
आदि आदि प्रश्नों का हल खोजते
और अधिकतर जवाब पाया है कि
धरती के सीने में धधकता हुआ
ज्वालामुखी जब अपने अन्दर
बहते दर्द को सह नहीं पाता
तो लावा की शक्ल में
बाहर फूट जाता है
और सब तबाह कर जाता है
ठीक वैसे ही ..
जैसे तुम पढ़ लेना चाहते हो
उस मन को ..
जो सदियों से जमा है
दिल की कई तहों में
जम चुका है अब
फॉसिल्स"  की शक्ल में
यहाँ भी एक ज्वालामुखी सुलग रहा है
धीमे धीमे ...
जो कभी फटा तो
क्या संभाल पाओगे
 उस तबाही को
और यदि संभाल गए तो
यकीन है मुझे
मेरे उस अनलिखे मन को भी
तभी तुम पढ़ पाओगे !!.........अधूरा है हर लम्हा ज़िन्दगी का न जाने कौन सी राह का इन्तजार है .......@ रंजू भाटिया

5 comments:

निवेदिता श्रीवास्तव said...

फॉसिल्स .... ये तो लगता है हम सब ने खामोश दिलों में बसा रखा है .....

Arvind Mishra said...

बहुत धधकती किन्तु ऊपर से शांत कविता है

दिगम्बर नासवा said...

इस ज्वालामुखी को फट जाने देना चाहिए ... फिर प्रेम का मीठा स्त्रोत नीचे से निकलेगा ... तलाश तो इस अमृत की है है ...

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...

प्रतुल वशिष्ठ said...

दमदार अभिव्यक्ति।

इधर-उधर पुरानी डायरियों में दबे पड़े
बिन भेजे बेहद भावुक प्रेम पत्रों की
कतरनें यदि मेरे हाथ लग गयी होतीं
तो आपको डिस्कवरी चैनल जैसा ही
आपके मन का फॉसिल्स देखने को मिलता।
अनलिखा अव्यक्त भी आकार लेता दिखता। :)