Friday, October 04, 2013

ज़िन्दगी कभी पहले भी मुझे कभी अपनी बन के मिली न थी

रिस रिस कर बीता समय
बहका के ,बहला के ..
ले गया .........
तुम्हे भी और मुझे भी ...
अब सब तरफ है
तो सिर्फ धुंआ ही धुंआ
सच है न ...
छलकती आँखों से
बुझता नहीं कुछ भी ....

**************************
सुलगते हुए पलों की
रेखाएं हैं
यादों की दीवारों पर
जो कभी बुझती ही नहीं
बार बार स्टेम्प लगाती हुई
यह जल कर कुछ और
निशाँ गहरे कर जाती है.............



ज़िन्दगी कभी पहले भी मुझे कभी अपनी बन के मिली न थी ..पर आज कल तो बहुत अजनबी है .हर पल एक नया तमाशा ..रोज़ सुबह उठते ही एक सवाल ज़िन्दगी से कि आज के पन्ने पर क्या अनजाना लिखा है मेरे लिए ...........ईश्वर बस ताक़त दे और सहने की असीम शक्ति यही दुआ करें .... 

6 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

तुम बहुत बहादुर हो रंजू.... होने दो तमाशे. बहुत परेशान हो?

ANULATA RAJ NAIR said...

ज़िन्दगी बहुत अपनी है...बस इम्तहान लेती रहती हैं हमारे ..
बहुत सुन्दर रचना है रंजु...काश के बस रचना ही हो !!!

सस्नेह
अनु

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

जो पली हो दर्द-दवारा,जिन्दगी है i
भाग्य का टूटा सितारा,जिन्दगी है i
मीत के असहाय बिछुड़ने की सजा ,
सिर्फ यादों का सहारा ,जिन्दगी है i

RECENT POST : पाँच दोहे,

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बढ़ि‍या.

पर ज्‍यादा ही छोटी नहीं हो गई ?

दिगम्बर नासवा said...

जीवन की उठापटक से परे बहुत खूब्सूतर है जिंदगी ... सुबह उठ के पार्क की किसी सुनसान बेंच पे बैठ के पंछियों को देखना ... वो भी जीवन ही है ...

प्रवीण पाण्डेय said...

दिन दिन बढ़ना,
शान्ति दूर यदि।