रविवार की सुबह से एक किताब हाथ लग गयी और उस पर प्रेम विषय कई तरह से परिभाषित था | कई बाते सही लगी ..कई बकवास क्यों कि आज का युग ..बहुत स्वार्थी युग है ,जहाँ प्रेम एक पल में जन्म लेता है और दूसरे पल अंतिम साँसे गिन रहा होता है :)
प्रेम
उस विस्तृत नील गगन सा
जो सिर्फ अपने आभास से ही
खुद के अस्तित्व को सच बना देता है.......
प्रेम
टूट कर बिखरने की
एक वह प्रक्रिया
जो सिर्फ चांदनी की रिमझिम में
मद्दम मद्धम सा
दिल के आँगन में
तारों की तरह टूटता रहता है!
एक
जगह पढ़ा कि प्यार बुनयादी तौर लेना देना ही है --जिस हद तक तुम दे सकते
हो और जिस हद तक मैं ले सकता हूँ। .सच ही तो तो है। प्रेम को परिभाषित करना
मिर्जा ग़ालिब के शब्दों में। ।इश्क़ - ऐ तबियत ने जीस्त का मजा पाया /दर्द
की दवा पायी दर्द -ऐ -बे दवा पाया। भाव -- मैंने प्रेम के माध्यम से जीवन
का परमानन्द पा लिया। एक दर्द का इलाज हो गया ,पर एक रोग लाइलाज लगा लिया।….
प्रेम की अपनी परिभाषा जब आप प्यार मे होते हैं
तो कुछ और सोच नहीं पाते सिर्फ इस खेल के कि वह मुझे प्यार करता है या
वह मुझे प्यार नहीं करता :) प्रेम भाषा का संस्कृत काव्य में बहुत हद तक
परिष्कृत काव्य के साथ साथ लोकिक प्रेम काव्य पाया जाता है ..रामायण से
हमें एक संदर्भ मिलता है कि प्रेमी इस तथ्य से आन्दित है कि वह उसी हवा में
सांस ले रहा है जिस में उसकी प्रिया सांस ले रही है ...ऐ पवन ! तू वहां तक
बह कर जा.जहाँ मेरी प्रिय है उसको स्पर्श कर और मुझे स्पर्श कर ...मैं
तेरे माध्यम से उसके कोमल स्पर्श का अनुभव करूँगा और चन्द्रमा के प्रकाश
में उसका सौन्दर्य देखूंगा ..अब आज के युग में यही सब बाते बहुत बचकानी लग
सकती है ...खैर जी जो कुछ पढ़ा गया इस पर यह अब शोध का विषय है या
नहीं ..नहीं जानती पर अपनी कलम से तो लिख दिया इस पर :)
प्रेम
उस विस्तृत नील गगन सा
जो सिर्फ अपने आभास से ही
खुद के अस्तित्व को सच बना देता है.......
प्रेम
टूट कर बिखरने की
एक वह प्रक्रिया
जो सिर्फ चांदनी की रिमझिम में
मद्दम मद्धम सा
दिल के आँगन में
तारों की तरह टूटता रहता है!
प्रेम
है वह एक जंगली जानवर सा
जो चुपके से दबोच लेता है मन तन को
जलाता है उम्मीदों की रौशनी
न चाहते हुए भी
उस से बचा नहीं जा सकता
प्रेम
यह है उस कमर तोड़ बुखार सा
जो सरसराता हुआ दौड़ता है रगों में
और हर दवा हर वर्जना को तोड़ता हुआ
घर कर लेता है मन तन पर
आखिर कोई कैसे कब तक बचा सकता है प्रेम से.................
है वह एक जंगली जानवर सा
जो चुपके से दबोच लेता है मन तन को
जलाता है उम्मीदों की रौशनी
न चाहते हुए भी
उस से बचा नहीं जा सकता
प्रेम
यह है उस कमर तोड़ बुखार सा
जो सरसराता हुआ दौड़ता है रगों में
और हर दवा हर वर्जना को तोड़ता हुआ
घर कर लेता है मन तन पर
आखिर कोई कैसे कब तक बचा सकता है प्रेम से.................
आप क्या कहते हैं इस लिखे को पढ़ कर ...जानने का इन्तजार रहेगा ...# रंजू भाटिया ५ अगस्त २०१३
12 comments:
प्रेम कमर तोड़ बुखार ... ये सही प्रतीत होता है ... इससे बचना आसान होता ...
बहुत सुन्दर व्याख्या है......
प्रेम तो सदा से शोध का विषय रहा है...और परिणाम हमेशा हैरत में डालने वाले होते हैं...हर बार कुछ अलग...
:-)
सस्नेह
अनु
प्रेम से कौन बचा है भला....बहुत सही!!
प्रेम की धुरी पर विश्व घूमता है, कोई अपनी धुरी से विलग भला कैसे रह सकता है।
बस हम तो इतना ही जानते है कि प्रेम शोध का विषय तो बिलकुल नहीं है...हर किसी के लिए प्रेम की परिभाषा अलग-अलग ही है ....जैसा उसने अनुभव किया होगा ....
बेहतरीन रचना...प्रेम की शक्ति, स्वच्छंदता, असर, बेअसर व आदि आदि का गज़ब उल्लेख..!
क्या जबरदस्त कढाई है प्रेम के क्षमता, शक्ति, असर, बेअसर, प्रभाव व आदि आदि का....बेहतरीन
PREM.....
meri nayee post pe aapka swaagat hai :
http://raaz-o-niyaaz.blogspot.in/2013/08/blog-post.html
प्रेम तो परमात्मा की तरह है जो है तो पर नजर नहीं आता
प्रेम सब कुछ छोड़ देता है
पर भरोसा करना नहीं छोड़ता
प्रेम प्रकृति का सौंपा एक सहज व्यवहार है
पा लेंगे तुम्हें तो
जिंदगी में कोई हशरत ना रहेगी
और जब हशरत ना रहेगी तो क्या खाक जियेंगे
पाने की हशरत में उम्र गुजर देंगे
तुम भी खुश रहोगे और हम भी जी लेंगे
Post a Comment