रेत के महल बना कर
उसको अपने सपनों से सजा कर
बच्चे यूँ ही
कितना प्यारा घर घर का
खेलते हैं खेल
फ़िर जब उनका भर जाता है दिल
तो यूँ ही जाते जाते एक पैर की ठोकर से
उसको गिरा के फ़िर से मिटटी में मिला देते हैं
तुम भी मुझे उन्ही बच्चो से दिखते हो "ईश्वर"
जो रचाते हो संसार को
और फ़िर ख़ुद ही उसका कर देते हो संहार
फ़िर एक बच्चे सा
उसको बिना किसी मोह के
बस बिखरते हुए देखते रहते हो .....उतराखंड की त्रासदी दिल की बेबसी को यूँ ही ब्यान कर गयी .
7 comments:
waah...sahi baat kahi hai aapne..bhagwaan ki leela samjhna insaan ke bas ki baat nahin...sundar khayal
बहुत मार्मिक रचना, उतराखंड त्रासदी को शायद ही लोग भुला पायेंगे.
रामराम.
पर इन्सान है कि न बच्चों से कुछ सीखता है न भगवान से, मोह लगा बैठता है ये ...
सच है ईश्वरीय खेल ही है यह
रुचिर बनाया, तोड़ दिया फिर,
दुख के बादल फिर आये घिर।
prakrati ka khel niraala hee hai!
उसकी माया को वो ही जानता है ... क्या करना है किस्से करवाना है ... उसके ही खेल हैं ..
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