Wednesday, February 29, 2012

तुम याद आए______________

तुम याद आए आज फिर_

सुबह उठते ही गरम चIय के साथ,

जब जीभ जल गयी थी,

पेपरवाले ने ज़ोर से फेंका अख़बार जब,

मुह्न पर आकर लगा था ज़ोर से,

बाथरूम मैं जाते वक़्त,

जब मेरा पैर भी दरवाज़े से उलझ गया था,

फिर सब्ज़ी काटते वक़्त जब उंगली काट बैठी थी,

नहाते वक़्त उसी कटी अंगुली में जब साबुन लगा था,

हाँ याद आए तुम तभी, प्रेस ने भी हाथ जला दिया था.

और बरसात से अकड़ा दरवाज़ा भी बंद नही होता था,

तुम याद आए______________

हर चुभन के साथ.....

हर टूटन के साथ...........

हर चोट के साथ...........

दे गये ना जाने कितने और ज़ख़्म

याद दिलाने को अपनी

हर ज़ख़्म में उठती टीस के साथ.,...

ना नही--.

मेरी टीस से डरना मत

मेरी चुभन को सहलाना मत.

मेरे ज़ख़्मो को छूना मत

फिर तुम याद कैसे आओगे?

यूँ ही आते रहो मेरे ख़्यालो मैं

देते रहो नये ज़ख़्म,

पुराने को करो हरा,

बनेने दो इन्हे नासूर,

इनसे उठता दर्द, दिलाते रहे याद

तुम्हारी, यूँ ही हर सुबह.................

 
रंजू .....

Monday, February 27, 2012

याद के पल

जीवन की रेल पेल में
हर संघर्ष को झेलते
हर सुख दुःख को सहते
कभी मैंने चाही नही इनसे मुक्ति
पर कभी बैठे बैठे यूं ही अचानक
जब भी याद आई तुम्हारी
तब यह मन आज भी
भीगने सा लगता है
चटकने लगते हैं तन मन में
जैसे मोंगारे के फूल
और जैसे सर्दी से कांपते बदन में
तेरी याद का साया
गुनगुनी धूप सी भर देता है

छेड़ता नहीं है कोई सरगम को
फ़िर भी एक संगीत दिल में
गूंजने लगता है ..
उतर जाते हैं कई आवरण
उन यादो से .
जिन्हें दिल आज भी संजोये हुए हैं
नही पड़ने देता दिल
 इन पर वक्त का साया
 क्यों कि यही कुछ याद के पल
इस तपते जीवन को
एक ठंडी छाया देते हैं
जीवन के कड़वे यथार्थ  को
कुछ तो समृद्ध बना देते हैं !!

Monday, February 20, 2012

हथेलियों पर इश्क़ की मेहंदी का कोई दावा नही

प्रेम के विषय में बहुत कुछ पढ़ा और समझा गया है ... प्रेम का नाम सोचते ही ...नारी का ध्यान ख़ुद ही जाता है ... क्यों कि   नारी और प्रेम को अलग करके देखा ही नही जाता|
मैने जितनी बार अमृता ज़ी को पढ़ा प्रेम का एक नया रूप दिखा नारी में और उनकी कुछ पंक्तियां
दिल को छू गयी |उनके लिखे एक नॉवल "" दीवारो के साए'' में शतरूपा .. की पंक्तियां नारी ओर प्रेम को सही ढंग से बताती हैं ...
औरत के लिए मर्द की मोहब्बत और मर्द के लिए औरत की मोहब्बत एक दरवाज़ा होती है और इसे दरवाज़े से गुज़र कर सारी दुनिया की लीला दिखाई देती | लेकिन मोहब्बत का यह दरवाज़ा जाने खुदा किस किस गर्दो _गुबार मैं खोया रहता है की बरसो नही मिलता, पूरी पूरी जवानी रोते हुए निकल जाती है तड़पते हुए यह दरवाज़ा अपनी ओर बुलाता भी है ओर मिलता भी नही...
प्यार का बीज जहाँ पनपता है मीलों तक विरह की ख़ुश्बू आती रहती है,............ यह भी एक हक़ीकत है की मोहब्बत का दरवाज़ा जब दिखाई देता है तो उस को हम किसी एक के नाम से बाँध देते हैं| पर उस नाम में कितने नाम मिले हुए होते हैं यह कोई नही जानता. शायद कुदरत भी भूल चुकी होती है कि जिन धागो से उस एक नाम को बुनती है वो धागे कितने रंगो के हैं, कितने जन्मो के होते हैं.......
शिव का आधार तत्व हैं और शक्ति होने का आधार तत्व :..वो संकल्पहीन हो जाए तो एक रूप होते हैं . संकल्पशील हो जाए तो दो रूप होते हैं ,इस लिए वो दोनो तत्व हर रचना में होते हैं इंसानी काया में भी . कुदरत की और से उनकी एक सी अहमियत होती है इस लिए पूरे ब्रह्म में छह राशियाँ पुरुष की होती है और छह राशियाँ स्त्री|
शतरूपा धरती की पहली स्त्री थी ठीक वैसे ही जैसे मनु पहला पुरुष था|ब्रह्मा ने आधे शरीर से मनु को जन्म दिया और आधे शरीर से शत रूपा को | मनु इंसानी नस्ल का पिता था,
और शतरूपा इंसानी नस्ल की माँ..|
अंतरमन की यात्रा यह दोनो करते हैं लेकिन रास्ते अलग अलग होते हैं मर्द एक हठ्योग तक जा सकता है और औरत प्रेम की गहराई में उतर सकती है ...साधना एक विधि होती है लेकिन प्रेम की कोई विधि नही होती ,इस लिए मठ और महज़ब ज्यदातर मर्द बनाता है औरत नही चलाती|
लोगो के मन में कई बार यह सवाल उठा कि बुद्ध और महावीर जैसे आत्मिक पुरुषों अपनी अपनी साधना विधि में औरत को लेने से इनकार क्यूं किया ? इस प्रश्न की गहराई में उतर कर रजनीश ज़ी ने कहा ..
बुद्ध का सन्यास पुरुष का सन्यास है , घर छोड़ कर जंगल को जाने वाला सन्यास ,जो स्त्री के सहज मन को जानते थे कि उसका होना जंगल को भी घर बना देगा ! इसी तरह महवीर जानते थे कि स्त्री होना एक बहुत बड़ी घटना है..उसने प्रेम की राह से मुक्त होना है साधना की राह से नही , उसका होना उनका ध्यान का रास्ता बदल देगा |
वह तो महावीर की मूर्ति से भी प्रेम करने लगेगी ... उसकी आरती करेगी हाथो में फूल ले ले कर उसके दिल में जगह बना लेगी ,उसके मन का कमल प्रेम में खिलता है ....ध्यान साधना में बहुत कम खिल पाता है|
उन्ही की लिखी कविता एक कविता है जो प्रेम के रूप को उँचाई तक
पहुँचा देती है

आसमान जब भी रात का
रोशनी का रिश्ता जोड़ते हैं, 
सितारे मुबारकबाद देते हैं
मैं सोचती हूँ
 अगर कही ...........मैं
 जो तेरी कुछ नही लगती
 

 जिस रात के होंठो ने
 कभी सपने का माथा चूमा था
सोच के पैंरों में उस रात से
एक पायल बज रही है,
तेरे दिल की एक खिड़की ,
 जब कही बज उठती है
 ,सोचती हूँ
 मेरे सवाल की
यह कैसी ज़रूरत है !
 


 हथेलियों पर इश्क़ की
मेहंदी का कोई दावा नही
हिज़रे का एक रंग है ,
और
तेरे ज़िक्र की एक ख़ुश्बू

 

 मैं जो तेरी कुछ नही लगती !!!!!!

Wednesday, February 01, 2012

मरीचिका

बसंती  ब्यार सा
खिले  पुष्प सा
उस अनदेखे साए ने
भरा दिल को
प्रीत की गहराई से,

खाली सा मेरा मन
गुम हुआ हर पल उस में
और  झूठे भ्रम को
सच समझता रहा ,

मृगतृष्णा बना यह  जीवन
  भटकता रहा न जाने किन राहों पर
ह्रदय में लिए झरना अपार स्नेह का
 यूं ही निर्झर  बहता रहा,

प्यास बुझ न सकी दिल की
  न जाने किस थाह को
पाने की विकलता में
गहराई  में उतरता रहा,

प्यासा मनवा खिचता रहा
उस और ही
जिस ओर पुकारती रही
मरीचिका ...
पानी के छदम वेश में
किया भरोसा जिस भ्रम पर
वही जीवन को छलती रही
फ़िर भी
पागल मनवा
लिए खाली पात्र अपना
प्रेम के उस अखंड सच को
सदियों तक  तलाशता रहा !!!ढूंढ़ता रहा ........
{चित्र गूगल के सोजन्य से }