Friday, December 07, 2012

किशोर चौधरी और उनका लिखा मेरी कलम से .............

किशोर चौधरी ..........


.परिचय .....रेत के समंदर में बेनिशाँ मंज़िलों का सफ़र है. अतीत के शिकस्त इरादों के बचे हुए टुकड़ों पर अब भी उम्मीद का एक हौसला रखा है. नौजवान दिनों की केंचुलियाँ, अख़बारों और रेडियो के दफ्तरों में टंगी हुई है. जाने-अनजाने, बरसों से लफ़्ज़ों की पनाह में रहता आया हूँ. कुछ बेवजह की बातें और कुछ कहानियां कहने में सुकून है. कुल जमा ज़िन्दगी, रेत का बिछावन है और लोकगीतों की खुशबू है.
रुचि ----आकाशवाणी से महीने के 'लास्ट वर्किंग डे' पर मिलने वाली तनख्वाह
पसंदीदा मूवी्स--- जब आम आदमी किसी फिल्म को देखने का ऐलान करता है, टिकट खिड़की पर मैं भी अपना पसीना पौंछ लेता हूँ.
पसंदीदा संगीत ---लोक गीत और उनसे मिलते जुलते सुर बेहद पसंद है. कभी-कभी उप शास्त्रीय और ग़ज़लें सुनता हूँ.
पसंदीदा पुस्तकें ---किताबों को पढने की इच्छा अभी भी कायम है.























जिसका परिचय ही इतना रोचक हो ..उसके लिखे हुए को पढना कैसा होगा ,यह पढने वाला खुद ही जान सकता है :)

किशोर चौधरी के लिखे से मैं वाकिफ हुई जब से मैंने उनका ब्लॉग हथकड़  और बातें बेवहज पढ़ी | बातें जो कविता की तरह से    लिखी गयी थी वह बेवजह ही लिखी गयी थी पर वह इतनी पसंद आने की वजह बन गयी कि  मैंने उनके प्रिंट आउट ले कर कई बार पढना शुरू किया और किशोर जी को सन्देश भी भेजा हो सके तो आप इन बातो को एक किताब की शक्ल में ले आयें ..मेरी तरह बहुत से पाठक आपको यूँ पढना चाहेंगे ..पर मैं अदना सी पाठक ,बात गोल मोल जवाब में खतम हो गयी | अब किशोर जी के दो संग्रह बातें बेवजह और चौराहे पर सीढियां एक साथ आये और उनसे दिल्ली में मिलना भी हुआ तो मैंने उन्हें यह बात याद दिलाई ..और ख़ुशी जाहिर की ..कि मेरे जैसे उनके पढने वालों के लिए यह एक बहुत बढ़िया तोहफे जैसा है | किशोर जी से मिलना भी एक तरह से मेरे लिए उनके लिखे से मिलना था | वह अक्सर पूछी गयी बातों का बहुत मुक्तसर सा जवाब देते हैं ...जिस से पता चलता है कि वह बहुत कम बोलने वाले इंसान हैं ,पर मिलने पर ऐसा नहीं लगा ..जितनी देर उनके साथ बैठने का वक़्त मिला उनको सुना ,उनके लिखने की वजह को सुना ..और वह क्या सोच कर कैसा लिखते हैं वह पढ़े गए कई किरदार .कई बातें बेवजह मेरे मन में अन्दर चलती रही|उनकी ज़िन्दगी की बातें उनकी  बाते बेवजह में ..सामने आती रही
ज़िन्दगी गुल्लक सी होती तो कितना अच्छा होता
सिक्के डालने की जगह पर आँख रखते
और स्मृतियों के उलझे धागों से बीते दिनों को रफू कर लेते.
...सच में ऐसा होता तो क्या न होता फिर ..
लिखना कैसे शुरू हुआ ....कहानी का पूछने पर उन्होंने बताया कि वह लिखते थे बहुत पहले से पर हर साल उन डायरी /कापी को फाड़ दिया करते थे .ताकि उनको कोई और न पढ़ सके क्यों कि उस समय उस में उम्र की वो नादानियाँ भी शामिल हो जाती थी जो समय के साथ हर इंसान जिनसे वाकिफ होता है ..फिर खुद उन्ही के शब्दों में "मैंने यूं ही कहानियाँ लिखनी शुरू की थी। जैसे बच्चे मिट्टी के घर बनाया करते हैं। ये बहुत पुरानी बात नहीं है। साल दो हज़ार आठ बीतने को था कि ब्लॉग के बारे में मालूम हुआ। पहली ही नज़र में लगा कि ये एक बेहतर डायरी है जिसे नेट के उपभोक्ताओं के साथ साझा किया जा सकता है।"हर महीने कहानी लिखी। कहानियाँ पढ़ कर नए दोस्त बनते गए। उन्होने पसंद किया और कहा कि लिखते जाओ, इंतज़ार है। कहानियों पर बहुत सारी रेखांकित पंक्तियाँ भी लौट कर आई। कुछ कच्ची चीज़ें थी, कुछ गेप्स थे, कुछ का कथ्य ही गायब था। मैंने मित्रों की रोशनी में कहानियों को फिर से देखा। मैंने चार साल तक इंतज़ार किया। इंतज़ार करने की वजह थी कि मैं समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं से प्रेम न कर सका हूँ। इसलिए कि मैं लेखक नहीं हूँ। मुझे पढ़ने में कभी रुचि नहीं रही कि मैं आरामपसंद हूँ। मैं एक डे-ड्रीमर हूँ। जिसने काम नहीं किया बस ख्वाब देखे। खुली आँखों के ख्वाब। लोगों के चेहरों को पढ़ा। उनके दिल में छुपी हुई चीजों को अपने ख़यालों से बुना। इस तरह ये कहानियाँ आकार लेती रहीं।..और आज हमारे सामने एक संग्रह के रूप में है |
           उनके डे  ड्रीमर में एक रोचक बात उन्होंने पेंटिंग सीखने की भी बताई कि कैसे उनके पिता जी ने उन्हें पेंटिंग सीखने के लिए भेजा और सिखाने वाले गुरु जी तो अपनी पेंटिंग सामने कुदरती नज़ारे को देख कर खो कर सीखा गए और किशोर जी आँखे खोले ड्रीम में खोये रहे कि उनकी पेंटिंग बहुत बढ़िया बनी है और लोग वाह वाही कर रहे हैं ..और गुरु जी के कहने पर ,आँख खुलने पर सामने खाली कैनवास था ..मजेदार रहा यह सुनना उनके खुद की  जुबानी ..पर क्या यह मन का कैनवास वाकई कोरा रहा होगा .??.यहाँ तो कई सुन्दर कहानियाँ और बाते बेवजह जन्म ले रही थी |
उनसे हुई बात चीत में यह बातें वहां उनके जुबानी भी सुनी और उनकी नजरों से उनके लफ़्ज़ों में दिल्ली को भी देखा ..आईआईटी की दूजी तरफ
पश्चिमी ढब के बाज़ार सजे हैं
कहवाघरों के खूबसूरत लंबे सिलसिलों में
खुशबाश मौसम, बेफिक्र नगमें, आँखों से बातों की लंबी परेडें
कोई न कोई कुछ तो चाहता है मगर वो कहता कुछ भी नहीं है।

सराय रोहिल्ला जाते हुये देखता हूँ कि
सुबह और शाम, जाम में अकड़ा हुआ सा
न जाने किस ज़िद पे अड़ा ये शहर है। ये अद्भुत शहर है, ये दिल्ली शहर है।
...दिल्ली शहर को इस नजर से देखना वाकई अदभुत लगा |मुझे पढ़ कर ऐसा लगा कि  लिखने वाला दिल, दिमाग अपनी ही सोच में उस शहर को लिखता है परखता है ..वह बहुत बार दिल्ली आये होंगे पर मैं अब भी याद करूँ तो उनकी वही उत्सुक सी निगाहें याद आती है जो बरिस्ता कैफे के आस पास घूमते .बैठे लोगो को देख रही थी .सोच रही थी .और मन ही मन कुछ न कुछ लफ्ज़ बुन  रही थी |पक्के तौर पर कह सकती हूँ कि  जो सोचा बुना गया उस वक़्त ,वह हम हो सकता है आगे आने वाली कहानियों में पढ़े या बातें बेवजह में सुने |
             उनके संग्रह चौराहे पर सीढियां कहानियों पर कुछ लिखा है पहले भी ..पर वो सिर्फ तीन पढ़ी कहानियों पर था .जैसे जैसे उनकी और कहानियाँ पढ़ी ..उनके लिखे से उन्हें और समझने की कोशिश जारी रही ..कोई भी कहानी यदि आपके जहन पर पढने के बाद भी दस्तक देती रहे तो वह लिखना सार्थक हो जाता है | और जब पढने वाला पाठक यह महसूस करे की उन में लिखे कई वाक्य  बहुत कुछ ज़िन्दगी के बारे में बताते हैं और उन में साहित्य ,ज़िन्दगी का फलसफा मौजूद है .साथ ही यह भी कि  हर कहानी ऐसी नहीं की आप समझ सको पर उसने में लिखी बातें आपको कुछ सोचने समझने पर मजबूर कर दे तो लिखना वाकई बहुत असरदार रहा है लिखने वाले का | यह संग्रह अपनी चौदह कहानियों में कही गयी किसी न किसी बात से पढने वाले के दिलो दिमाग पर दस्तक देता रहेगा ...बेशक यह एक बैठक में न पढ़ा जाए पर यदि आप अच्छा साहित्य पढने वालों में से हैं तो यह संग्रह आपकी बुक शेल्फ में अवश्य होना चाहिए | चौराहे पर सीढियां यह शीर्षक ही पढने वाले को एक ऐसी जगह में खड़ा कर देता है कि  आप अपना रास्ता किस तरह से कहाँ कैसे चुनना चाहते हैं वह आपके ऊपर है |समझना भी शायद आपके ऊपर है कि  आप उसको कैसे लेते हैं .बाकी पढने वालों का पता नहीं .पर मैं अक्सर कई कहानियों में गोल गोल सी घूम गयी ..और वह मेरे पास से हो कर गुजर गयी ..यही कह सकती हूँ शायद वह सीढियां जो बुनी गयी लफ़्ज़ों में ,मैं उन पर चढ़ने समझने में नाकाम रही ...लिखने वाले ने अपनी बात पूरी ईमानदारी से लिखी होगी |
....अब कुछ बातें उनकी बेवजह बातों पर ....मुझे वह बातें कभी कविता सी नहीं लगी .बस बातें लगी जो अक्सर हम खुद बा खुद से करते हैं ,या अक्सर मन ही मन कुछ बुनते रहते हैं लफ़्ज़ों में .....मुझे यह बेवजह बातें दिली रूप से पसंद हैं क्यों कि मुझे यह दिल की  आवाज़ लगीं और जब जब पढ़ा सीधे दिल में उतरीं ..और जब किशोर जी से जाना की क्यों उन्होंने यह बेवजह बातें लिखनी शुरू की तो एक मुस्कान मेरे चेहरे पर आ गयी .अक्सर ज़िन्दगी आपको उन लोगो से मिला देती है जिस को आप बहुत कुछ कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते हैं ..मेरे ख्याल से यदि वह बाते कहने वाले के हाथ में कलम है तो इस से बेहतर जरिया कोई नहीं हो सकता अपनी बातों को कहने का ..पर चूँकि यह बातें बेवजह है ..सो यह आसानी से अपनी जगह आपके दिल में भी बना लेती है .और  मुझे लगता है कि  हर इंसान कभी न कभी इस मोड़ से इस राह से गुजरा
जरुर है ....

तुम ख़ुशी से भरे थे
कोई धड़कता हुआ सा था
तुम दुःख से भरे थे
कोई था बैठा हुआ चुप सा. ....
......और यह सब कुछ  उसके बारे में है जो है ही नहीं

सब कुछ उसी के बारे में है
चाय के पतीले में उठती हुई भाप
बच्चों के कपड़ों पर लगी मिट्टी
अँगुलियों में उलझा हुआ धागा
खिड़की के पास बोलती हुई चिड़िया।

....इन बातों बेवजह में अक्सर शैतान  का जिक्र आया है जो कहीं अपनी ही आवाज़ सा लगता है ....
हवा में लहराती हरे रंग की एक बड़ी पत्ती से
प्रेम करने में मशगूल था, हरे रंग का टिड्डा
पीले सिट्टे की आमद के इंतज़ार में थी पीले रंग की चिड़िया
शैतान ने सोचा आज उसने पहना होगा, कौनसा रंग.
....यह सवाल बहुत साधारण सा होता हुआ भी ख़ास सा लगता है | उनकी बाते बेवजह में उनके रहने की मिटटी का रंग भी अक्सर कई जगह पढने को मिला है जो एक स्वाभविक रंग है आप जहां रहते हैं वहां का होना आपके लिखे में सहजता से अपनी जगह बना लेता है ..........उन्ही के शब्दों में ..किसी शाम को छत पर बैठे हुये सोचा होगा कि यहाँ से कहाँ जाएंगे। बहेगी किस तरफ की हवा। कौन लहर खेलती होगी बेजान जिस्म से। किस देस की माटी में मिल जाएगा एक नाम, जो इस वक़्त बैठा हुआ है तनहा। उसको आवाज़ दो। कहो कि तनहाई है। बिना वजह की याद के मिसरे हैं। रेगिस्तान में गीली हवा की माया है। पूछो कि तुम कहीं आस पास हो क्या? अगर हो तो सुनो कि मेरे ख़यालों में ये कैसे लफ़्ज़ ठहरे हैं…. "
स्त्री मन के कई रंग भी उतरे हैं उनकी बाते बेवजह में ........
ख़ूबसूरत औरतें नहीं करती हैं
बदसूरत औरतों की बातें
वे उनके गले लग कर रोती हैं। 
दुःख एक से होते हैं, अलग अलग रंग रूप की औरतों के।  ......यदि कोई पुरुष मन इस बात को समझता है तो वह बहुत बेहतरीन तरीके से ज़िन्दगी को समझ सकता है |बाते बेवजह बहुत सी है और उन पर जितना लिखा जाए वह बहुत कम ...किशोर जी का लिखा और उनसे मिलना मुझे कहीं से भी एक दूजे से जुदा नहीं लगा | एक बहुत सरल ह्रदय इंसान जो लिखता तो खूबसूरती से है ही उतना  ही जुड़ा हुआ है अपनी मिटटी से अपने परिवार से ...और अपने पढने वाले पाठकों से ...बाते बेवजह चढ़ रही है धीरे धीरे कहानी बुनती हुई अपनी सीढियां कदम दर कदम और अपने होने के एहसास जगा रही है हर पढने वाले के दिल में |यही बहुत बड़ी बात है | कोई भी लिखने वाला आगे तभी बढ़ पाया है जब उसको पढने वालों से सरहाना मिली है प्यार मिला है और किशोर जी की झोली में उनके पाठकों ने यह भरपूर दिया है |
           पहले कदम हैं अभी इन सीढ़ियों पर चढ़ने पर ..कुछ अलग से लग सकते हैं पर मजबूत हैं और अपनी मंजिल तक पहुंचेंगे जरुर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है और साथ ही यह भी कि ब्लॉग के लेखन से शुरू हुआ यह सफ़र अब आगे और भी लिखने वालों को ,पढने वालों को एहसास दिलवा देगा की ब्लॉग लेखन सिर्फ समय खर्च या पास करने का जरिया नहीं है यह आगे साहित्य को समृद्ध करने का रास्ता भी है | चलते चलते उन्ही का बताया हुआ याद आया कि उनके डे ड्रीम में एक ऐसा मंच भी है या था अब भी (किशोर जी यह  बेहतर जानते होंगे) कि वह रेड कारपेट पर चल रहे हैं आस पास बहुत सी सुन्दर कन्याएं  हैं :)  और वाकई उनको आज प्यार करने वालों और चाहने वालों की कमी नहीं है ...आज जब उनके दो संग्रह आ चुके हैं तो लगता है यह ड्रीम असल में रंग जरुर जाएगा यही दुआ है कि वह ज़िन्दगी के सुन्दर रास्ते पर ..यूँ ही मंजिल दर मंजिल सीढियां चढ़ते रहे | उन्ही की लिखी एक बेवजह बात ..जो मुझे बेहद बेहद पसंद है ,क्यों कि यह बहुत सच्ची है ज़िन्दगी सी . और कम से कम मेरे दिल के तो बहुत ही करीब है

दरअसल जो नहीं होता,
वही होता है सबसे ख़ूबसूरत
जैसे घर से भाग जाने का ख़याल
जब न हो मालूम कि जाना है कहां.

लम्बी उम्र में कुछ भी अच्छा नहीं होता

ख़ूबसूरत होती है वो रात, जो कहती है, न जाओ अभी.

ख़ूबसूरत होता है दीवार को कहना, देख मेरी आँख में आंसू हैं

और इनको पौंछ न सकेगा कोई
कि उसने जो बख्शी है मुझे, उस ज़िन्दगी का हाथ बड़ा तंग है.

कि जो नहीं होता, वही होता है सबसे ख़ूबसूरत. 



 चौराहे पर सीढ़ियाँ/कहानियाँ/ पृष्ठ 160/ मूल्य 95 रु./ प्रकाशक हिन्द युग्म/

8 comments:

सदा said...

कि जो नहीं होता, वही होता है सबसे ख़ूबसूरत.
क्‍या बात है ... आपकी कलम से किशोर जी को पढ़ना आपकी तरह हमें भी भा गया ... आभार इस प्रस्‍तुति के लिये

सादर

Neeta Mehrotra said...

डे ड्रीमर किशोर जी के विषय में रंजू जी आपके विचार पढ़ना सुखद लगा ।
फिज़ाओं में तैरते , खुश्बूओं में बसते , मिट्टी की सौंध से शब्दों को आकार देता किशोर जी का व्यक्तित्व साकार हो उठा ।पाठकों के साथ सरलता से रिश्ते बना लेना किशोर जी जैसे ऊँचे कद के व्यक्ति के लिए ही संभव है ।
बेहद सुन्दर चित्रण ।

Neeta Mehrotra said...

डे ड्रीमर किशोर जी के विषय में रंजू जी आपके विचार पढ़ना सुखद लगा ।
फिज़ाओं में तैरते , खुश्बूओं में बसते , मिट्टी की सौंध से शब्दों को आकार देता किशोर जी का व्यक्तित्व साकार हो उठा ।पाठकों के साथ सरलता से रिश्ते बना लेना किशोर जी जैसे ऊँचे कद के व्यक्ति के लिए ही संभव है ।
बेहद सुन्दर चित्रण ।

ANULATA RAJ NAIR said...

यकीनन केसी रेड कार्पेट पर चलेंगे...(सुन्दर कन्याओं वाली बात को इग्नोर कर दें अभी...)
रंजू आपकी कलम से किशोर को जानना अच्छा लगा...आप तो महारथी हो इस क्षेत्र में.
अभी "बातें बेवजह" मुझ तक पहुँची नहीं है...चौराहे पर सीढियाँ तो बेमिसाल है.
ढेर सी शुभकामनाएँ आपको और केसी को भी....
एक दिवास्वप्न हमने भी पाला है....कभी एक साझा संग्रह प्रकाशित करेंगे इस बेवजह की बातें लिखने वाले लेखक के साथ :-) [कितना अच्छा है न कि स्वप्न देखने के लिए न इजाज़त लेनी पड़ती है न मोल देना होता है]
अमीन!!

अनु

Anju (Anu) Chaudhary said...

रंजू जी आपको और किशोर जी को एक साथ मिलना ...अच्छा लगा ,बहुत खूबसूरत यादों के साथ वापसी हुई थी ....किशोर जी का कहानी संग्रह अभी तक पढ़ तो नहीं पाई हूँ ..पर आपकी समीक्षा पढ़ने के बाद ये दावे से कह सकती हूँ कि कहानी संग्रह सच में बढ़िया होगा ...बस इंतज़ार है उसका मेरे हाथों में आने तक का ...

दिगम्बर नासवा said...

के सी ... मरे पसंदीदा ब्लोगेर्स में से एक हैं ...
दोनों संग्रह संजोने लायक होंगे ऐसा दावा कर सकता हूं ... हालांकि अभी तक हाथ नहीं लगे हैं ...

manurana said...

आदरणीय रंजू जी ,
सादर नमस्कार !
आज जो मैंने पढ़ा अद्भुत है !!सचमुच कहाँ थी मैं सोच रहीं हूँ खूबसूरत !!!बहुत ही !!

मुकेश कुमार सिन्हा said...

रंजू जी बेहतरीन समीक्षात्मक रिपोर्ट!! वैसे सच कहूँ... एक आम हिंदी पढने वाले पाठक के रूप में ये बात कहना चाहता हूँ.. किशोर जी को शायद ये बात बुरी लग जाये.. क्योंकि छोटी मुंह बड़ी बात होगी ये... एक बेहतरीन कहानीसंग्रह की पुस्तक है "चौराहे पर सीढियाँ" बहुत प्यारी साहित्यक सोच और उम्दा शब्दों से सजी हुई है ये बुक.. जिसमे से चार कहानी का तो कोई तोड़ ही नहीं है.. अगर रेटिंग की बात हो तो A++ देंगे ...पर बहुत सी अन्य कहानी में ये नहीं समझ आ रहा की सच में कहानी क्या थी, और कहानी ख़त्म हो जाती है... शायद मेरी छोटी सोच इसका मुख्य कारन हो सकता है.. न समझ पाने का....!! पर इतना सच है.. किशोर जी आप एक बेहतरीन इंसान, बेहतरीन रचनाकार हो.. मेरी शुभकामनायें आपके साथ है...