Tuesday, December 04, 2012

चौराहे पर सीढियां




समपर्ण ..--अत्याचार की मौन स्वीकृति ,वफ़ा -तू जो चाहे करने की अनुमति दे .पतिता --जो साथ सोने से इनकार कर दे .वार्डन--सरकार की ओर  से नियुक्त किये गए दलाल .इसके बाद ज़िन्दगी लिख कर कई सारे अपमानजनक शब्द लिखे गए हैं ......यह परिभाषाएं हैं चौराहे पर सीढियां ..किशोर चौधरी द्वारा लिखित कहानी संग्रह की .अंजली तुम्हारी डायरी से तुम्हारे ब्यान मेल नहीं खाते ..कहानी  से ........हर कहानी अपनी बात मन के गहरे में यूँ कह जाती है कि  उसको भूलना मुश्किल हो जाता है ...इस किताब की समीक्षा करना बहुत मुश्किल है ..क्यों कि  यह कहानियाँ सिर्फ कहानियाँ ही नहीं है ,ज़िन्दगी में रोज़ उगते सूरज ओर ढलती शाम के बीच की बातें हैं ...जिन में रात के अनकहे अंधेरों की सच्चाई भी है और सुबह उगते सूरज की रौशनी में ओस की बूंदों में छिपी दर्द की आवाज़ भी है | यह कहानियाँ एक ही बैठक में पढ़ ली जाएँ ,यह मुमकिन नहीं है .इनको पढना और फिर जुगाली की तरह उनको मन में मंथन में डुबोना ही सही समझने की बात को समझ पाना है |
..मैंने अभी तक इस संग्रह में तीन कहानियाँ ही पढ़ी हैं और वह ही मेरे जहन से उतर नहीं रही हैं ....आज की इस बात में सिर्फ उन कहानियों में आई पंक्तियों की बात .और उनको समझने की बात ...: यह लिखी पंक्तियाँ ही इन कहानियों की समीक्षा है .....जो खुद ही अपनी बात कहती है ...
अंजलि तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते .."ज़िन्दगी आज में तुम्हारा आभार व्यक्त करना चाहती हूँ |सिगरेट के कडवे और नशे भरे स्वाद के लिए .मुह्बब्त के होने और खोने का एहसास को समझाने के लिए ,सबको अलग सुख और अलग तरीके की तकलीफ देने के लिए ,भेड़ियों के पंजो से भाग जाने का साहस देने के लिए और मनुष्य को बुद्धि देने के लिए की वह शुद्ध और पीड़ा रहित जहर बना सकने में कामयाब हुआ |" ....यह पंक्तियाँ और यह कहानी इतनी सच्ची है की यह भूल नहीं सकते आप इसको पढने के बाद ...अंजली करेक्टर आपके आस पास घूमता रहता है और हर लिखी पंक्ति में अपनी बात अपने होने के एहसास दिलाता रहता है |

दूसरी कहानी जो मैंने पढ़ी इस संग्रह में गली के छोर पर अँधेरे में डूबी एक खिड़की ..शुरू होती है बहुत साधारण  ढंग से यह कहानी सुदीप और रेशम की मुलाकतों की ....और फिर पढने वाला पाठक भी खुद को उस गली ,खिड़की के पास होने को महसूस करता है .किशोर जी की लिखी कहानी की यह विशेषता उसे पढने वाले को अलग नहीं होने देती ..."वह पगलाया हुआ दुधिया रौशनी के बिछावन पर खड़ा खिड़की को चूमता रहता था |कुछ नयी खुशबुएँ भी उस खिड़की में पहली बार मिली |एक रात इसी उन्माद में वह अपने सात रेशम की चुन्नी ले आया|वह रेशम के वजूद को टुकड़ों में काट कर अपने भीतर समेट लेना चाहता था |"पर यही कहानी आगे चल कर ऐसा मोड़ ले लेती है समझ के भी सब कुछ अनजाना सा महसूस होने लगता है ..ठीक इन लिखी पंक्तियों की तरह ..चाहे आप खुश हैं या दुखी .ये ज़िन्दगी अजब गलतफहमियों का पिटारा है |हरे भरे जंगलों में आग लगती है और वे राख में बदल जाया करते हैं |हम सोचते हैं कि  जंगल बर्बाद हो गया लेकिन उसी राख से नयी कोंपलें फूटती है |" पढने में यह पंक्तियाँ किसी फिल्सफी सी लगती है पर ज़िन्दगी के सच के बहुत करीब हैं |
इस कहानी का अंत .मुझे अभी तक असमंज में डाले हुए हैं कि  ..आखिर उस रात खिड़की पर कौन था ?इस कहानी के नायक सुदीप की तरह :)
तीसरी कहानी जो पढ़ी है वह है एक फासले के दरम्यान खिले हुए चमेली के फूल ....सफ़ेद खिले हुए यह फूल जब किसी याद से जुड़े हुए होते हैं तो कैसा सर्द और जलन का आभास देते हैं यह इस कहानी को पढ़ कर जाना जा सकता है ...एक घर ..घर के आँगन में लगी चमेली के फूल की बेल ...नैना और तेजिन्द्र सिंह के लिए एक यादों का जरिया है जो अपने खिले सफ़ेद फूलों से नैना के लिए बीती ज़िन्दगी का दर्द हैं वहीँ तेजिंदर के लिए उस बेटे की लगाईं बेल जो उसने अपनी माँ की पसंद को जान कर वहां लगाई थी पर  अब वहां नहीं रहता  ...उन फूलों की खुशबु दोनों के लिए एक दर्द की कसक है पर दोनों सिर्फ उसी कसक में अपनी जिंदगी सहजते रह जाते हैं .इंसान जिस चीज़ से पीछा छुड़ाना चाहता है कभी कभी वो ही अतीत सबसे ज्यादा शिद्द्त से पीछा करता है....यही इसी कहानी में नजर आता है |
 ...आसमां से टूटे तारे के बचे हुए अवशेष जैसा या फिर से हरियाने के लिए खुद को ही आग लगाते जंगल जैसा. जैसे जंगल खुद को आग लगता है वैसे ही कई पंछी भी आग में कूद जाते हैं. जंगल अपनी मुक्ति के लिए दहकता है या अपने प्रिय पंछियों के लिए,.....किशोर जी लिखने की यही विशेष शैली मन्त्र मुग्ध कर देती है .....यह कहानी भी ज़िन्दगी की सच्चाई के बहुत करीब की लगती है .वो परिवेश जिस में यह ढली है अपना सा ही लगता है ...यह कहानी बहुत दिनों तक याद रहने वाली है ..अपने कुछ विशेष भावों के साथ और आपकी लिखी इस जैसी कई पंक्तियों के साथ .जैसे यह ...."ये तुम्हारी ज़िद थी, और घर भी... मैं इसका भागीदार नहीं हूँ"किशोर जी की लिखी कहानियाँ भी यूँ ही कसक सी दे जाती है अंतर्मन में और महकती हैं इन्ही  सफ़ेद फूलों की तरह ..हर कहानी का अंत सुखद हो यह जरुरी नहीं है ...अतीत में डूबे दोनों पात्र क्यों अपनी ज़िन्दगी के दर्द से उभर नहीं पाते यह सवाल भी सहसा मन में आता है | क्यों उस सफ़ेद फूलों में अपने अतीत के साथ वर्तमान को जी रहे हैं यह सोच साथ साथ छलकती रही है उनके लिखे शब्दों में |
इनकी लिखी कहानियों के बारे में अधिक लिखना मेरे लिए बहुत संभव नहीं है ,बस यह वह कहानियाँ है जिस में आप खुद को पाते हैं ,इन में लिखे वाक्य आपको अपने कहे लगते हैं ..दर्द की लहर जब पढ़ते हुए पैदा होती है तो वह लहर अपने दिल से उठती हुई सी लगती है .."जगह जगह उगा हुआ खालीपन" जैसे शब्द आपको अपने अन्दर खालीपन का एहसास करवाते हैं |
बहुत कुछ लिखा जा चुका है अब तक किशोर जी के लिखे इस संग्रह के बारे में ...अधिक क्या लिखूं यह अभी तक पढ़ी गयी कहानियों में मेरी पंसद की पंक्तियाँ है ....बहुत बढ़िया शुरुआत है यह हिंदी कहानी में इस संग्रह के साथ ..आगे और भी बेहतर पढने को मिलेगी इसी उम्मीद के साथ फिर कोशिश करुँगी कुछ और लिखने की उनकी पढ़ी कहानियों पर .....आप यह किताब इन्फीबीम और फ्लिप्कार्ट से ले सकते हैं 

6 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत बढ़िया किताब है...वाकई..
तकरीबन पढ़ चुकी हूँ...
आपकी समीक्षा लाजवाब है हमेशा की तरह...पूरा न्याय किया है पुस्तक के साथ..
बधाई रंजू ,आपको और केसी को भी...
सस्नेह
अनु

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

किशोर जी,द्वारा लिखित "चौराहे पर सीढियां" कहानी संग्रह की बेहतरीन समीक्षा के लिए,बधाई आपको,,,,

recent post: बात न करो,

सदा said...

आपकी कलम से ... एक और उत्‍कृष्‍ट समीक्षा ...
बहुत ही अच्‍छी लगी ...
आभार सहित
सादर

प्रवीण पाण्डेय said...

बढ़िया समीक्षा..

दिगम्बर नासवा said...

जिज्ञासा बढा दी है आपने .... लाजवाब समीक्षा की है ...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

पुस्तक मैनें भी मंगा ली है.....अभी पढ़ रहा हूँ....