अपने मैं होने का
दंभ क्यों
कैसे
जहन पर
छा जाता है
सोते जागते
हँसते गाते
हर वक़्त बस
मैं ,मैं
का राग
यह दिल
अलापता है
किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक हम बना
पाता है....
जैसे रात का
अस्तित्व भी
चाँद,तारों
जुगनू से
जगमगाता है
पर शायद
चाँद भी
समझता है
ख़ुद को अहम
अपनी ही धुन में
खोया सा
घुलते घुलते
बस सिर्फ़ एक
लकीर सा
रह जाता है
और ........
तब चाँद
कितना अकेला
और बेबस सा
हो जाता है !!
20 comments:
जी! कहते भी तो कुछ नहीं बनता :-(
वाह....
बेहद सुन्दर !!!
नाज़ुक से जज़्बात...
"मैं" के दंभ को नकारते...
सस्नेह
अनु
और
तब चाँद
कितना अकेला
और बेबस सा
हो जाता है !!,,,,,,उत्कृष्ट प्रस्तुति ,,,,
RECECNT POST: हम देख न सके,,,
मैं और तूके इस अंतर्द्वन्द्व का शायद कोई अंत नहीं....
बहुत सुन्दर रचना
रंजू जी
सादर
मैं ...अकेला कर देता है ...बहुत खूबसूरती से लिखा है
चिर परिचित द्वन्द , मैं और तुम का |
main akela kar deta hai or hum dilata hai purnta ka abhas....bahut sundar rachna mam
किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक हम बना
पाता है..मैं और तुम मिलकर हम बनते हैं तभी सम्पूरण होती हैं कायनात हमारी ......... बहुत खूब रंजू जी
वाह....
बेहद सुन्दर !!!
वाह ... बहुत खूब
गज़ब- अद्भुत!
और
तब चाँद
कितना अकेला
और बेबस सा
हो जाता है ....
बहुत गहन भावों के साथ लिखी रचना
किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक हम बना
पाता है....
सुन्दरम...सुन्दरम...
एक अकेला, सब ताके हैं,
जगती रातें, सब जागे हैं।
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 04-10 -2012 को यहाँ भी है
.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....बड़ापन कोठियों में , बड़प्पन सड़कों पर । .
अहम् को खाद पानी मिलता रहता है और हम उसका तुष्टिकरण करते रहते है .. अहम् ब्रम्हास्मि भी तो "मै " का प्रतीक है . भावनाएं उबाल पर है .
किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक हम बना
पाता है....
गहन अभिव्यक्ति ..निश्चित ही दंभ और अहंकार हमें बहुत अकेला बना देता है ....
'मै'-के लिये तुम भी तो चाहिये ,अकेला रहेगा कहाँ !
बहुत सुन्दर कविता
बहुत सुन्दर रचना आभार
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