आक्रोश
होंठो की चुप्पी में
दफ़न है
बर्फ हुए जज्बात
पथरी हुई आँखों में
ठिठके हुए सूखे हुए
बीते हुए मौसम के साए
वो गीत जो कभी
गुनगुनाये नहीं गए
पर न जाने क्यों
अब वह लावे से
धधकते सब हदें
पार कर देना चाहते हैं
और झर झर बहते
आक्रोश के रूप में बरसना चाहते हैं....
रंजू भाटिया
11 comments:
वो गीत जो कभी
गुनगुनाये नहीं गए
पर न जाने क्यों
अब वह लावे से
धधकते सब हदें
पार कर देना चाहते हैं
बहुत खूब .... लावा कभी तो बहेगा
गहन भाव लिए सशक्त लेखन ...आभार
अत्यंत सशक्त एवम प्रभावी रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
कूल मैंम कूल ..मैं तो घबरा ही गया हूँ -ज्वालामुखी से धुंआ निकलते देख -बड़ी सम्प्रेश्नीय कविता है !
♥
वो गीत जो कभी
गुनगुनाये नहीं गए
आऽऽहऽऽऽ…
सचमुच बड़ी पीड़ादायक होती है ऐसी स्थिति …
आदरणीया रंजना 'रंजू भाटिया' जी
गीत प्रस्फुटित होने दें … लेकिन…
झर झर बहते आक्रोश के रूप में बरसना एक बार … बस एक बार स्थगित करदें न ! प्लीज़ … … …
*भावपूर्ण सुंदर रचना !!*
कुछ नये गीतों की प्रतीक्षा में…
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत ही प्रभावी रचना, शुभकामनाएं.
इस लावे को बह जाने देना चाहिए ... बाहर निकाल देना चाहिए ... नहीं तो खुद को ही जला के राख कर देते हैं ये लावे ... शशक्त रचना ...
शब्द सब हलाहल पीने में सक्षम हैं, लावा शब्दों में ही बह जाने दें।
laava jitni jaldi beh jaye acchha hai. varna vo bahut kuchh khaak kar deta hai.
sundar rachnaa!
होंठो की चुप्पी में
दफ़न है
बर्फ हुए जज्बात
beautiful lines with great feelings
and emotions
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