Wednesday, April 21, 2010

लफ्ज़ बिखरे हुए ...




१)सपने देखना
बंद पलकों में
क्यों कि उन में उड़ने के
कुछ पर होंगे
दुनिया देखना
तो आँख खोल के
यहाँ उन
सपनो के टूटे पर होंगे



२)रात के घने अंधेरे
कैसे सब फ़र्क
मिटा जाते हैं
अलग अलग वजूद
अलग राह के
मुसाफिर की परछाई को
एक कर जाते हैं
रोशन होते ही
हर उजाले में
यह छिटक कर
अलग हो जाते हैं



रंजना (रंजू ) भाटिया















Wednesday, April 14, 2010

प्यार -एक एहसास


कैसे लिखूं मैं तेरे लिए,
जबकि मैं जानती हूँ
कि तुझ तक पहुँचने के बाद
विचार शून्य हो जाते हैं
और कल्पनाएँ ........
वो तो न जाने
किस ताखे पर
बैठ जाती है
और देखो ...
मैं यूँ ही अलसाई हुई सी
उसी ताखे पर बैठी हुई
देखती रहती हूँ
बस देखती रहती हूँ
कैसे लिखूं मैं तेरे लिए
जबकि मैं जानती हूँ
कि प्यार तुझ तक आ कर
तुझे छूने के बाद
पूरी आत्मा को
कुछ इस क़दर
झंझोर देता है
कि सारे लफ्ज़
भरभरा कर
रेत किले की तरह
ढह जाते हैं ...और
फिर रह जाता है बस
प्यार ...
और उसकी तो कोई भाषा ही नहीं ....

Monday, April 05, 2010

अपनी मंज़िल कहीं और तलाशिये


बन रही है यह ज़िंदगी एक रास्ता भूलभुलैया सी
वो कहते हैं अब अपनी मंज़िल कहीं और तलाशिये

खत्म होने को है अब सब बातें प्यार की
अब कोई नया दर्द और नया शग़ल तलाशिये

नाकाम है सब हसरतें इस पत्थर दिल संसार में
जाइए अब नया शहर ,कोई नया युग तलाशिये

दिखता नही नज़रों में इजहार अब किसी भी बात का
अब कहाँ हर इंसान में यह रूप आप तलाशिये

जागती आँखो में ना पालिए अब कोई नया ख्वाब
समुंद्र से गहरे दिल का बस किनारा तलाशिये

होते नही अब वो ख़फा भी मेरी किसी बात पर
प्यार पाने का उनसे कोई नया अंदाज़ तलाशिये!!