Tuesday, July 28, 2009

देख के सावन झूमे है मन ..



यह एक पुरानी कविता है ,जिसको पढने वाले पाठक "वसंत जी " ने इस चित्र के साथ सुन्दर रूप में बदल दिया है ,और आशीष जी ने इसको पोस्ट करने का तरीका बताया :)...बहुत ही अच्छा लगा यह चित्र इस कविता के साथ मुझे तो ..आपको पसंद आया या नहीं ...जरुर बताये .शुक्रिया

Tuesday, July 14, 2009

एक ख्वाब ...

बहुत पहले एक कविता लिखी थी जिसके भाव तो यही थे पर वह गजल के स्वरूप में नहीं थी | इसको गजल के रूप में ढाला है गौतम राजरिशी जी ने ..उन्होंने इस कविता के भावों को गजल का एक सुन्दर रूप दे दिया है | और यह कविता "पुरानी डायरी के पन्नो "से निकल कर नए रंग में ढल गई ,पर उसके भाव वही रहे ....उनका कहना सही है कि" ग़ज़ल में भाव पक्ष की प्रधानता के अलावा बहर की तकनीक को ध्यान में रखना नितांत आवश्यक है। ये गज़ल अब बहरे हज़ज पर बैठ गयी है। इस बहर कई सारी लोकप्रिय ग़ज़लें और फिल्मी गाने हैं। जैसे कि "हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले" या फिर "है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आयेगा"....। इस बहर पे बैठ जाने से अब आपकी ये ग़ज़ल इन धुनों पे आराम से गायी जा सकती है। येही खास बात है बहर में होने की।" मैंने तो गौतम से गुजारिश की थी कि वह इसको अपना स्वर भी दें .मुझे तो उनके स्वर में इसके गाये जाने का इन्तजार रहेगा :).आप में से कोई इसको स्वर देना चाहे तो ख़ुशी होगी .गौतम जी का तहे दिल से शुक्रिया


जमीनें हैं कहीं सूखीं कहीं बादल बरसता है
यहाँ इतनी मुहब्ब्त है, ये दिल क्यों फिर तरसता है

मिली जब भी नजर उनसे धड़कता है हमारा दिल
पुकारे वो उधर हमको, इधर दम क्यों निकलता है

बहे ये इश्क की थोड़ी हवा अपने भी जानिब कुछ
जरा
देखें ये तेवर मौसमों का कब बदलता है

बिखेरे मेरे रास्ते पर कभी तो रौशनी थोड़ी
कि देखें प्यार का दीपक ये कब दुनिया में जलता है

खिले हैं फूल कितने बागबाँ में इश्क के यारों मेरी बगिया में भी ये फूल देखें कब महकता है


लिये कब तक फिरेंगे हम कि इस बेनाम रिश्ते को
जो आँसू बन के पलकों पर यूं ही कर ठहरता है

ख्यालों
की मेरी दुनिया भरी कितने सवालों से
जो तुम पहलु में आओ, ख्वाब आँखों में उतरता है

रंजू भाटिया

Thursday, July 09, 2009

अधूरे सपने....


नदी के किनारे
नन्हें पैरों को जोड़ कर
उस पर मिटटी को थाप
एक नन्हा सा घर बनाया था ..

सजाई थी
उसके चारो तरफ़
टूटी हुई टहनियां ..
कुछ रंग बिरंगे
कांच के टुकडे
और ......
रंगीन सपनो से
उसको सजाया था

टांगा था घर की छत्त पर
अपनी फ्राक की लैस को
विजय पताका समझ के
फ़िर कई रंगों से सजा
खिलखिलाता बगीचा
लगाया था .......

नन्ही आँखों में सपने
हाथो पर टिकी ठुड्डी
दिल में बस यही ख्याल
कि यह घर मेरा है ...

पर ...
तब न जाना था
कि मिटटी के घर
टूट जाया करते हैं
और रिश्ते यूँ ही
अधूरे छूट जाया करते हैं !!

रंजू भाटिया
जुलाई २००९
आज माँ
की पुण्यतिथि पर यूँ ही उमडे कुछ भाव ...

Thursday, July 02, 2009

छल( खुदा भी आसमां से जब जमीन पर देखता होगा ....)


बीत गयी यूँ ही
ज़िंदगी की शाम भी
सुबह पर कभी..
उजाला दे ना पाई
शब बदली सहर में,
पर कभी मंज़िल की किरण
दिल तक ना पहुँच पाई
रंग बदले कितने ज़िंदगी ने
बन दर्पण ख़ुद को ही छला
खिल सका ना आंखो का सपना
कहने को प्यार बहुत मिला
इस छोर से उस छोर तक
देती रही बस प्यार की दुहाई
इन्द्रधनुष के रंग सी खिलती
वो प्रीत की डगर कभी ना पाई
छली गयी हर पल मानव प्रवंचना से
पर छल के भी ख़ुद को पा नही पाई !!




ईश्वर भी कभी कभी तो ऊपर बैठा सोचता होगा न कि उसने कैसी दुनिया बना के भेजी ,जिस में नर नारी कुदरत के हिसाब से चलेंगे ढलेंगे | पर आज के फैसले को सुन कर वह भी हैरान परेशान होगा या शायद हँसता होगा , कि हाय रे मनुष्य उसको जो मिलता है उस से वह कहाँ खुश होता है| .बनाए उसने आदम हव्वा ताकि यह दुनिया सहज रूप से चल सके और उसकी हाई कोर्ट में कोई मुकदमा शायद इसको ले कर न चला होगा ...तभी तो यहाँ कि हाई कोर्ट ने कह दिया कि क्या आदम क्या हव्वा ,जिसका जैसा दिल चाहे वैसे रहो | चलो जी रहो .....जनसख्याँ निवारण तो हो जाएगा पर अजीब सा भविष्य दिखाई दे रहा है आज इस फैसले की ख़ुशी को टीवी पर आदम को आदम के गले मिलता देख कर और हव्वा को हवा होते देख कर |

कुछ दिन पहले इंडियन फेशन वीक में अजीब से नज़ारे देखने को मिले थे | तभी यह कविता की पंक्तियाँ यूँ ही लिखी गई थी ...कि क्या यह लोग ख़ुद को छल रहे हैं | या प्यार इस तरह भी अँधा होता है क्या ? शक्ल से आदम पर पहनावा औरतो वाला | हाव भाव अजीब से | होंठो पर गहरी लिपस्टिक ,आँखों में गहरा आई लाइनर ,हाथ में टंगे बड़े लेडिज बैग ......और हवा में उड़ते फ्लाइंग किस .....देख कर लगा था जैसे कोई राही रास्ता भूल कर गलत राह पर चला गया है | उस राह पर जिस पर आदम -हव्वा सब एक हैं ... कुदरत भी एक बार देखे तो एक पल के लिए ठिठक के खड़ी हो जाए कि यह क्या और कौन सा कैसा नजारा है | और अब तो कानून ने ही रास्ता दिखा दिया है ..अब इस रास्ते की मंजिल कहाँ जा कर मिलती है वह तो शायद वह ईश्वर भी नहीं जानता होगा | बस वो तो सोच में डूबा होगा कि मैंने ऐसा तो इस तरहसे नहीं सोचा था कभी ....?????

रंजू भाटिया