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Thursday, July 02, 2009
छल( खुदा भी आसमां से जब जमीन पर देखता होगा ....)
बीत गयी यूँ ही
ज़िंदगी की शाम भी
सुबह पर कभी..
उजाला दे ना पाई
शब बदली सहर में,
पर कभी मंज़िल की किरण
दिल तक ना पहुँच पाई
रंग बदले कितने ज़िंदगी ने
बन दर्पण ख़ुद को ही छला
खिल सका ना आंखो का सपना
कहने को प्यार बहुत मिला
इस छोर से उस छोर तक
देती रही बस प्यार की दुहाई
इन्द्रधनुष के रंग सी खिलती
वो प्रीत की डगर कभी ना पाई
छली गयी हर पल मानव प्रवंचना से
पर छल के भी ख़ुद को पा नही पाई !!
ईश्वर भी कभी कभी तो ऊपर बैठा सोचता होगा न कि उसने कैसी दुनिया बना के भेजी ,जिस में नर नारी कुदरत के हिसाब से चलेंगे ढलेंगे | पर आज के फैसले को सुन कर वह भी हैरान परेशान होगा या शायद हँसता होगा , कि हाय रे मनुष्य उसको जो मिलता है उस से वह कहाँ खुश होता है| .बनाए उसने आदम हव्वा ताकि यह दुनिया सहज रूप से चल सके और उसकी हाई कोर्ट में कोई मुकदमा शायद इसको ले कर न चला होगा ...तभी तो यहाँ कि हाई कोर्ट ने कह दिया कि क्या आदम क्या हव्वा ,जिसका जैसा दिल चाहे वैसे रहो | चलो जी रहो .....जनसख्याँ निवारण तो हो जाएगा पर अजीब सा भविष्य दिखाई दे रहा है आज इस फैसले की ख़ुशी को टीवी पर आदम को आदम के गले मिलता देख कर और हव्वा को हवा होते देख कर |
कुछ दिन पहले इंडियन फेशन वीक में अजीब से नज़ारे देखने को मिले थे | तभी यह कविता की पंक्तियाँ यूँ ही लिखी गई थी ...कि क्या यह लोग ख़ुद को छल रहे हैं | या प्यार इस तरह भी अँधा होता है क्या ? शक्ल से आदम पर पहनावा औरतो वाला | हाव भाव अजीब से | होंठो पर गहरी लिपस्टिक ,आँखों में गहरा आई लाइनर ,हाथ में टंगे बड़े लेडिज बैग ......और हवा में उड़ते फ्लाइंग किस .....देख कर लगा था जैसे कोई राही रास्ता भूल कर गलत राह पर चला गया है | उस राह पर जिस पर आदम -हव्वा सब एक हैं ... कुदरत भी एक बार देखे तो एक पल के लिए ठिठक के खड़ी हो जाए कि यह क्या और कौन सा कैसा नजारा है | और अब तो कानून ने ही रास्ता दिखा दिया है ..अब इस रास्ते की मंजिल कहाँ जा कर मिलती है वह तो शायद वह ईश्वर भी नहीं जानता होगा | बस वो तो सोच में डूबा होगा कि मैंने ऐसा तो इस तरहसे नहीं सोचा था कभी ....?????
रंजू भाटिया
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44 comments:
गहरी अभिव्यक्ति ...........अतिसुन्दर
छली गयी हर पल मानव प्रवंचना से
सुन्दर भाव सम्प्रेषण
bahut sunder,hirdya ko chune wale bhav.
बीत गयी यूँ ही
ज़िंदगी की शाम भी
सुबह पर कभी..
उजाला दे ना पाई
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति . बधाई.
सही कहा आपने। हर कदम पर हर मोड पर छल का बल है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
क्या कहें...? शायद यह कुछ बीमार लोगों को आराम देने का तरीका अपनाया गया है। कितना करगर होता है, यह वक़्त बताएगा।
शायद बीमार लोगों की संख्या ही बढ़ जाय। शायद इलाज की आशा में कहीं छिपी बीमारी भी बाहर आ सके।
हमारा दिल , दिमाग और आत्मा स्वीकारे या नहीं .. पर इस दुनिया में रहना है तो .. यहां दिए जा रहे हर फैसले को मानने की मजबूरी तो है ही ।
कहने को प्यार बहुत मिला
इस छोर से उस छोर तक
देती रही बस प्यार की दुहाई
इन्द्रधनुष के रंग सी खिलती
वो प्रीत की डगर कभी ना पाई
आपकी रचना से उदासी का भाव साफ़ नज़र आता है ........... शायद ये मन की प्रतिकूल कुछ न कुछ घटित होने से है ........पर इंसान कभी कभी सोच नहीं पाता और समय तेजी से आगे निकल जाता है............ जाने क्या लिखा है वक़्त के गर्भ मैं .........
घघूति जी के बाद आपके ब्लॉग पर यही विषय ....याधिपी विचार विपरीत है ..ये एक संवेदनशील विषय है ..इसलिए यूँ ही फौरी टिपण्णी देना नहीं चाहता .वैसे मै अपने विचार संजय बैगानी जी के ब्लॉग पे दे चूका हूँ...
क्या कहूँ रंजू दी.....जब से यह पढ़ा जाना है....मन अजीब ढंग से सिथिल सा पड़ा है,एकदम किच्किचाया हुआ है.....
समझ में नहीं आ रहा की एक मनोरोग को वैधानिक मान्यता वैयक्तिकता के आधार पर कितने सहजता से दे दिया गया........हम कहाँ जा रहे हैं.....
मन को बार बार समझा रही हूँ की जाने दो इससे जनसँख्या नियंत्रण तो हो जायेगा कम से कम....लेकिन सोचने वाली बात यह है की देश में वह समूह जो सर्वाधिक उत्तरदायी है जनसँख्या विस्फोट का,यह व्यवस्था क्या वे लोग अंगीकार करते हैं ? क्या सचमुच फर्क पड़ेगा जनसँख्या नियंत्रण प्रकरण में ????
यह क्या हो रहा है....व्यक्ति को आत्मकेंद्रित होने के लिए हर पल सामने साफ़ सुथरा चौडा रास्ता उपलब्ध कराया जा रहा है.....बहुत बड़ी बात नहीं की कुछ दिनों बाद एक और विधेयक पास हो- बिना विवाह किये साथ रहने को वैधानिक मान्यता प्राप्त..
खैर ,हम कुछ नहीं कर सकते,खुल कर बोल भी नहीं सकते...डंडे लेकर हमें खदेड़ने आ जायेंगे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पुरोधा...
आपकी कविता बहुत ही लाजवाब है.....
अब इस रास्ते की मंजिल कहाँ जा कर मिलती है वह तो शायद वह ईश्वर भी नहीं जानता होगा | बस वो तो सोच में डूबा होगा कि मैंने ऐसा तो इस तरहसे नहीं सोचा था कभी ....?????
आपसे सहमत हूं. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
एक बात तो पक्की हो गई कि हम पश्चिम की जितनी बुराई ले सकते है ले रहे है अध नंगे शरीर बालो के बच्चे तो ऎसे ही अग्रेज होगे ना, पश्चिम वाले अब हमरी अच्छाईया अपना रहे है, ओर हम उन की गंदगी को खा रहे है, पहले मर्द का शराब पीना भी बुर समझा जाता था आज .....आगे आगे देखे होता है क्या,
हमें भी समझ न आई ये दुनिया कभी... बहुत बनावटी लगती है...
बहुत सही कहा..
छली गयी हर पल मानव प्रवंचना से
पर छल के भी ख़ुद को पा नही पाई !!
बहुत खूब !
छल से उपजी निराशा का विषद वर्णन.
एक अच्छी रचना।
बन दर्पण ख़ुद को ही छला
खिल सका ना आंखो का सपना
ये पक्तिं कुछ ज्यादा ही भाइ।
मेरे तो समझ से परे है की ये अप्राकृतिक चीज़ें और ऊपर से कानून ....उफ्फ अजीब सी सोच ....
भाव -विभोर कर गयी यह रचना .
aajkal to halat bad se badtar hote ja rahe hain aise mein insaan se to kya ummeed.......ishwar bhi pareshan hai.........bahut sahi kaha aapne.
ईश्वर के प्रोग्राम में बहुत 'बग' हैं जी :) अभी तो समय के साथ-साथ और निकलेंगे ! समझना बड़ा जटिल है.
बहुत गहन अभिव्यक्ति!! कई बार पढ़ा!! बधाई.
कविता अच्छी है बाकी के लिए हाय भारत !
विचारोत्तेजक और सोचने को मजबूर करता
बहुत अच्छा लेख....बहुत बहुत बधाई....
सुन्दर अभिव्यक्ति
---
विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
कविता अच्छी है आपकी...! विषय के कई पहलू हैं...! यूँ निर्णायक वाक्य नही कहा जा सकता..!
जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो रे दुनिया...
bahut badia badhai......
फुरसत मिली ही नहीं अपनी तलाश की
रिश्तों की मजबूरी फर्ज़ों का तकाज़ा हू
औरत का तो यही सच है बहुत सुन्दर पोस्ट है आभार्
jin cheejo se smaj ka bhala hona hai
un mamlo ko lambit rkhte hai salo tk koi nteeje nhi ?aur yha itni jaldi vaidh manyta ?
apki kvita bhut achi lagi .
ranjana ji ,
aapne to in panktiyon me sabkuch kah diya ji ...
छली गयी हर पल मानव प्रवंचना से
पर छल के भी ख़ुद को पा नही पाई !!
dil se badhai ..
Subah par kabhi ujala nahi de paayi
aapne bahut gahri abhivaykti ki hai
duniya to khair tezi se badal rahi hai ham peeche chhut gaye hain
कटु सत्य को आपने अपने लेखनी में जिस तरह से तवज्जो दिया है वो काबिले तारीफ़ है , बात सिर्फ अब बात तक ही सिमित है ,मानसिकता की पकड़ किस तरह से खारिज कर उसे एक अलग कपडे में लोग देखना चाहते है वो सबके सामने आ रही है ... इस तरह के फैसले कभी रचनात्मक नहीं होते और नाही सुखद खुद उस वर्ग के लोग भी उसे दिल से स्वीकार नहीं करते ... चुकी उन्हें ये फैसन भी हिन्दुस्तान को पहनानी थी सो पहना दी... बस ये नहीं सोचा के भारत अभी भी सिर्फ विकासशील देश है और ये फैसन विक्सित देशो में महज फैसन तक ही सिमित है ...एक तो पहले से ही हम कितने पीछे है और ये फैसला और न जाने कितने पीछे धकेल दे .... आपकी बात प्रतिशतः सही है ....
अर्श
बेहतरीन.........
'रंग बदले कितने ज़िंदगी ने
बन दर्पण ख़ुद को ही छला
खिल सका ना आंखो का सपना'
-कविता में अभिव्यक्ति सशक्त है.
Kisi bhi संवेदनशील व्यक्ति को ऐसी खबरें और दृश्य भीतर तक झकझोर देते हैं.
प्रकृति के विरुद्ध जाने की प्रक्रिया हमेशा दुखद परिणाम लाती है.
भारतीय संस्कृति के इतिहास में समलैंगिकों को मान्यता देना!-यह बड़ा ही अजीब सा कदम लगा.
इस के पक्ष में दिए जाने वाले तर्क मेरी समझ से परे हैं.
आपकी सोच मे बहुत ही गहराई है... कविता जो कि बहुत ही पेचिदा और मनभावक है शब्दों का बहाव अपने आपको झाकने का इशारा देता है और लेख कि गहराई बनते जा रहे समाज पर एक नज़र रखता है वो समाज़ जो सभ्यता से परे है जिसके आने वाले कल की कल्पना की जाऐ तो कुछ अदभुत दिखता है जैसा कि आपने कहा ईश्वर भी सोच कर हैरान या हसता होगा ये देखकर।
आपकी ये नायाब कोशिश बहुत ही लुभावक थी।
ab khuda dekh kar rota nahi, hansta he...///
me samjhta hoo, paagalo ke seeng nahi uga karte..//
377 esa hi ek khaanaa he ji.
kher..vishaya vivadaspad he(jabki ye to ghrnaspad he)
hamare tathakathit budhhijivi logo ki jay ho../
aapki rachna marm ko chhuti he.
छली गयी हर पल मानव प्रवंचना से
पर छल के भी ख़ुद को पा नही पाई !!
ranju ji aapke liye mere veerbahuti blog par ek award hai sveekaar karen
किसी किसी में यह अस्वाभाविक प्रवृत्ती हो सकती है अपवाद के रूप में । पर अब यह एक फैशन सा चल पडा है । और सरकारी मान्यता भी अब मिल गई है ।
चलो जनसंख्या नियंत्रण ही हो जाये ।
man ke awasaad ki bahut sundar abhiwyakti hai yah rachana.
Behad sundar abhivyaktiyan..badhai !!
"शब्द-शिखर" पर आप भी बारिश के मौसम में भुट्टे का आनंद लें !!
दुनिया जाने किस ओर जा रही है...
सही कहा आपने एक बार तो कुदरत भी अचरज में पड़ जाए.
कवि होने का ये भी एक अनूठा ही दर्द है...और आपके साथ खास बात है कि देखे-सुने इस दर्द को बड़ी खूबसूरती से आप उकेरती हैं अपनी कविता में।
’मेरा साया’ का पाठन चल रहा है। जल्द ही मेल करता हूँ आपको।
रंग बदले कितने ज़िंदगी ने
बन दर्पण ख़ुद को ही छला
खिल सका ना आंखो का सपना
कहने को प्यार बहुत मिला
badiya- baddiya
ranju ji...excellently expressed....
plese visit my blog too if u have time...
http://shayarichawla.blogspot.com/
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